Thursday, May 15, 2025
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सामाजिक न्याय से वंचित समाज

Samvad 52


SHAILENDRA CHAUHAN 2इतिहास गवाह है कि शताब्दियों से मानव, सामाजिक न्याय प्राप्त करने के लिए निरंतर भटकता रहा है और इसी कारण दुनिया में कई युद्ध, क्रांति, बगावत, विद्रोह, हुए हैं, जिसके कारण अनेक बार सत्ता परिवर्तन हुए हैं। अगर भारत की बात की जाए तो हमारा भारतीय समाज पहले वर्ण व्यवस्था आधारित था जो धीरे-धीरे बदलकर जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गया। असमानता, अलगाववाद, क्षेत्रवाद, रूढ़िवादिता समाज में पूरी तरह व्याप्त थी। यह सामंती दौर था, जहां गरीब, दलित, आदिवासी, महिलाओं और विकल अंग व्यक्तियों को न्याय नहीं मिलता था। आजादी के बाद यदि विश्व के हमारे सबसे बड़े लोकतंत्र पर नजर डालें तो कुछ परिवर्तन अवश्य हुआ है, लेकिन अभी भी समाज का बड़ा हिस्सा मुख्यत: गरीब, अशिक्षित, निर्बल, दलित और दमित समुदाय न्याय की तलाश में भटकता नजर आता है। अदालतों में विचाराधीन मुकदमों को देखा जाए जो कोई साढ़े पांच करोड़ की संख्या है, जिनका निपटारा कब तक हो पाएगा कह पाना मुश्किल है। यूं अदालती फैसलों में पांच-छह वर्ष का समय लगना तो सामान्य-सी बात है, पर यदि बीस-तीस साल में भी निपटारा न हो तो आम लोगों के लिए यह किसी नारकीय त्रासदी से कम नहीं है। पूर्व कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने मार्च में राज्यसभा में बताया था कि देश के अंदर हाईकोर्ट के जजों के लगभग 30 प्रतिशत पद खाली हैं।

उच्च न्यायालयों में 1114 जजों की स्वीकृत संख्या है और वर्तमान में 780 पद भरे हुए हैं, जबकि 334 पद खाली हैं। उन्होंने बताया कि उच्च न्यायालयों में 334 पदों के लिए हाईकोर्ट कॉलेजियम की 118 सिफारिशें चरणों में हैं। जबकि सरकार को अभी तक 216 वेकेंसी के लिए सिफारिशें नहीं मिली हैं। पदों की कमी और रिक्त पदों को भरे जाने में विलंब ऐसी समस्याएं हैं, जिनका निराकरण जल्दी होना चाहिए किंतु यहां भी यथावत शिथिलता देखी जा सकती है। समाचार-पत्रों और टीवी के सर्वव्यापी अस्तित्व के बावजूद नोटिस तामील के लिए उनका सहारा नहीं लिया जाता।

सच्चाई तो यह भी है कि न्यायपालिका की शिथिलता और अकुशलता से अपराध और आतंकवाद को भी बढ़ावा मिलता है। हमारे संविधान में सामाजिक और आर्थिक न्याय की गारंटी समस्त नागरिकों को एवं जीवन जीने की गारंटी प्रत्येक व्यक्ति को दी गई है। सामाजिक न्याय का मुख्य उद्देश्य व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित के बीच सामान्जस्य स्थापित करना है। इसलिए कल्याणकारी राज्य की कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय को ध्यान में रखते हुए समाजवादी व्यवस्था का प्रावधान भी रखा गया।

पर राजनीतिक स्वार्थों और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने समाजवादी स्वप्न साकार नहीं होने दिया। राजनीतिक और ब्यूरोक्रेट भ्रष्टाचार में लिप्त होते गए। देश में भ्रष्टाचार इतना सर्वव्यापी हो चुका है कि सम्प्रति व्यवस्था का कोई भी कोना उसकी सड़ांध से बचा नहीं है, लेकिन फिर भी उच्च स्तरीय न्यायपालिका कुछ अपवाद छोड़कर सामान्यतया साफ-सुथरी ही कही जाएगी। उच्चतम न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद-21 में विवक्षित गरिमामयी जीवन की विभिन्न व्याख्याओं से स्पष्ट है कि मानव जीवन पशुवत नहीं है और सम्मान व गरिमा के साथ जीवन यापन करना हमारा अधिकार है और यह

मानवाधिकार भी है। लेकिन ऐसा एक स्वस्थ, पारदर्शी, सामाजिक, आर्थिक व प्रशासनिक प्रणाली में ही संभव है। लेकिन जिस व्यवस्था के बल पर देश में सुशासन लाने की बात होती रही है, वही व्यवस्था कुशासन की नींव बन चुकी है। सवाल यह है कि आखिर क्या वजह रही कि पुलिस व्यवस्था विफलता और भ्रष्टाचार के कगार पर है। ‘इंडिया करप्शन एंव ब्राइवरी रिपोर्ट’ के अनुसार भारत मे रिश्वत मांगे जाने वाले सरकारी कर्मचारियों मे से तीस प्रतिशत की भागीदारी तो मात्र पुलिस तंत्र की है।

भारत में पुलिस के हस्तक्षेप का दायरा बहुत ही विस्तृत है, इसीलिए पुलिस के पास असीमित अधिकार हैं। वह राज्य सत्ता की सबल संस्था है, सत्ता का सशक्त औजार भी है। जाहिर है उसका चरित्र राजसत्ता के चरित्र से अलग नहीं हो सकता। पुलिस द्वारा रिश्वत प्राथिमिकी दर्ज करवाने, आरोपी के खिलाफ मामला दर्ज करने मे कोताही बरतने या मामला न दर्ज करने तथा जांच करते समय सबूतों को नजरदांज करने सम्बन्धी मामलों मे ली जाती है।

रसूखदारों के दबाव मे काम करना तथा अवांछित राजनैतिक हस्तक्षेप को झेलना पुलिस अपना कर्तव्य समझने लगी है। पुलिस रिफॉर्म और पुर्नसंगठन की आवश्यकता कई दशकों से महसूस की जा रही है लेकिन इस पर अमल नहीं किया जाता। हांलाकि पुलिस तन्त्र की स्थापना कानून-व्यवस्था को कायम रखने के लिये की गई थी तथा आज भी सामाजिक सुरक्षा तथा जनजीवन को भयमुक्त एंव सुचारू रूप से चलाना पुलिस तन्त्र का विशुद्ध कर्तव्य है।

इस क्षेत्र में पुलिस को पर्याप्त लिखित एंव व्यवहारिक अधिकार भी प्राप्त है। भारत के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक विकास, बढती जनसख्या, प्रौद्योगिकी का विकास, अपराधों का सफेद कॉलर होना इन तमाम परिस्थितियों के कारण पुलिस तन्त्र की जबावदेही के साथ जिम्मेदारी भी बढ़ी है। लेकिन भारतीय समाज में पुलिस की तानाशाहीपूर्ण छवि, जनता के साथ मित्रवत ना होना तथा अपने अधिकारी के दुरुपयोग के कारण वह आरोपो से घिरती चली गई है ।

आज स्थिति यह है कि पुलिस बल समाज के तथा कथित ठेकेदारों, नेताओं तथा सत्ता की कठपुतली बन गया है। समाज का दबा-कुचला वर्ग तो पुलिस के पास जाने से भी डरता है, पुलिस वर्ग को तमाम बुराइयों तथा कुरीतियों ने घेर लिया है। पुलिस में सामान्यतया भ्रष्टाचार और अपराधीकरण के कई मामले हमारे सामने आते रहते है। चूंकि पुलिस के पास सिविल-समाज से दूरियां बनाएं रखने और उनके ऊपर असम्यक प्रभाव बनाए रखने की तमाम व्यवहारिक शक्तियां हैंअत: साधारण वर्ग अपनी आवाज उठाने की हिम्मत नही कर पाता और यदि वह साहस जुटाता भी है तो उसके भयावह परिणाम भी उसे भोगने पड़ते हैं।

कार्यपालिका और न्यायपालिका उसकी कोई मदद नहीं कर पाती, क्योंकि उनका आधार तो पुलिस पर ही टिका होता है। ऐसे में सामान्य व्यक्ति को न्याय मिलना बहुत दूर की संभावना ही कही जाएगी। चौथा खंभा कहलाने वाला मीडिया भी अंतत: राजनीति के दलदल और मुनाफा कमाने के औजार के रूप में तब्दील हो चुका है। अब वह भी सामान्य व्यक्ति के दु:ख दर्द का साझीदार नहीं है। ऐसी स्थिति में समाज के पास एक सशक्त आंदोलन निर्मित करने के अलावा कोई और विकल्प शेष नहीं बचता है।


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