एक स्वामी जी सत्संग के लिए पधारे। लोगों ने प्रवचन देने का आग्रह किया तो स्वामीजी ने कहा कि मैं क्या बोलूं, आप सब जानते हैं। जो अच्छा है उसे करो और जो बुरा है उसे मत करो, उसे त्याग दो। लोगों में से एक स्वर उभरा, स्वामीजी, हम सब बहुत अच्छे बनना चाहते हैं और इसके लिए यथासंभव प्रयास भी करते हैं लेकिन फिर भी हम सबसे अच्छे तो दूर अच्छे भी क्यों नहीं बन पाते?
स्वामीजी ने कहा कि हम अपने ऊपर जैसी मोहर लगाते हैं, वैसा ही तो बनेंगे। लोग उनकी बात का मतलब नहीं समझ सकें। लोगों ने प्रार्थना की कि स्वामीजी अपनी बात को किसी उदाहरण से स्पष्ट करें, जिससे हमें बात समझ में आ जाए। ऐसा सुनकर स्वामी जी ने जेब से तीन नोट निकाले और पूछा कि ये कितने-कितने के नोट हैं? एक नोट दस रुपये का था, दूसरा सौ रुपये का और तीसरा हजार का।
इसके बाद स्वामीजी ने पूछा कि इनमें क्या अंतर है? लोग चुप रहे और स्वामी जी की ओर देखते रहे। स्वामीजी ने समझाया, ये तीनों नोट एक जैसे कागज पर छपे हैं। कागज के पहले टुकड़े से दस रुपये की चीज खरीदी जा सकती है तो दूसरे से सौ रुपये की और तीसरे से हजार की। ये कागज पर लगी मोहर या छाप द्वारा निर्धारित हुआ है। हमारा जीवन भी एक कोरे कागज की तरह ही है।
हम चाहें तो उस पर दस रुपये के बराबर छोटी-मोटी विशेषता या गुण की मोहर लगा सकते हैं और चाहें तो हजार रुपये या उससे भी अधिक की कीमत के गुणों की मोहर लगा सकते हैं। जैसी छाप या सोच वैसा जीवन। इस संसार रूपी छापे खाने में मन रूपी कागज पर केवल सात्विक व जीवनोपयोगी उच्च विचारों की मोहर लगाकर ही जीवन को हर प्रकार की उत्कृष्टता प्रदान की जा सकती है।
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