आजकल विश्वविद्यालय राष्ट्रीय विमर्श में अपनी जगह बनाए हुए हैं। अभी तक जहां अशोका विश्वविद्यालय से एक शिक्षक का इस्तीफा चर्चाओं में था, वहीं एक कोचिंग संस्थान के शिक्षक को बाहर करना भी जोरों से चर्चा में बना हुआ है। चौधरी चरणसिंह विश्वविद्यालय परिसर में स्थित छात्रावासों में रहने वाले छात्रों के लिए भी एक नया आदेश जारी किया गया है। इस आदेश में विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा छात्र-छात्राओं को आदेशित किया गया है कि छात्रावासों में किसी भी प्रकार की बैठकें अथवा समारोह आयोजित करना पूर्णतया प्रतिबंधित होगा। अगर कोई छात्र छात्रा ऐसा करते हैं तो उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करते हुए उन्हें छात्रावास से निलंबित अथवा निष्कासित भी किया जा सकता है।
आए दिन प्रशासन की तरफ से आने वाले आदेशों की तरह ही यह आदेश भी ऐसे तो बिलकुल सामान्य दिखाई देता है, लेकिन यह खबर एक बड़े बदलाव और संकट की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित भी करती है। अभी तक अभिभावक अपने बच्चों को छात्रावासों में दो कारणों की वजह से भेजते रहे हैं, जिनमें एक बिलकुल सामान्य बात यह है कि अगर छात्र दूर कहीं से आकर शिक्षा ग्रहण कर रहा है तो रहने के तौर पर सबसे सस्ती जगह छात्रावास ही माने जाते रहे हैं।
हालांकि शिक्षा के बाजारीकरण के बाद यह बात छात्रावासों पर भी लागू नहीं होती है, अब अधिकांश छात्रावासों की फीस भी बाजार के अनुसार ही कर दी गई है। लेकिन छात्रावास में रहने वाले अधिकांश लोग यह बता सकते हैं कि छात्रावास में रहने का सबसे अधिक फायदा उन्हें यह हुआ है कि उन्होंने वहां से एक जिंदगी सीखी है।
उन्होंने उन्हीं छात्रावासों से सामाजिकता सीखी, तो उन्हीं से सामूहिकता सीखी। इन्हीं छात्रावासों में उन्होंने सीखा कि जीवन का हर दिन समारोह हो सकता है। इसका बहुत सीधा सा अर्थ है कि ये छात्रावास किसी भी अन्तमुर्खी छात्र को एक सामाजिक जीवन में ढलने का काम भी करते हैं, जो कि इनका सबसे महत्वपूर्ण काम होता है।
किसी भी देश में विश्वविद्यालय वैचारिक गतिविधियों का केंद्र माने जाते रहे हैं। विश्वविद्यालय का नाम ही अपने आप में विश्व को समेटे हुए है। ऐसे भी हम सब लोग जानते ही हैं कि विश्वविद्यालय परिसर ही बौद्धिक वर्ग को तैयार करने की नर्सरी माने जाते हैं। ना केवल बौद्धिक वर्ग को तैयार करने की नर्सरी, बल्कि एक समय तक राजनीति की पौधशाला भी इन्हीं परिसरों को माना जाता रहा है।
इन्हीं छात्रावासों और परिसरों से निकले अनेक नेता देश की राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर चमकते रहे हैं और अभी तक भी अपनी जगह बनाए हुए हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और पूर्व मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव हों या रविशंकर प्रसाद, सभी छात्र राजनीति से निकले हुए चेहरे हैं।
देश के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के ये छात्रावास भारत की विविधता के जीते जागते नमूने हैं। यहां देश-विदेश तक के छात्र एक साथ रहते, खाते पीते और जीवन की चुनौतियों के लिए तैयार होते हैं। यहां हर तरफ आपको जातीय और धार्मिक सीमाएं टूटती हुई दिखाई दे सकती हैं तो देश और दुनिया के समसामयिक विषयों पर रात-रात भर बेहतरीन वैचारिक विमर्श भी सुनने को मिल सकते हैं।
यहां से किसी नौजवान को जीवन की अठखेलियां मिलेंगी तो जीवन दर्शन को समझने की वैचारिकता भी मिलेगी। हम सब जानते हैं कि आज भी देश के बड़े-बड़े नामचीन विश्वविद्यालयों के छात्रावासों में वहां से निकलकर जाने वाले छात्रों को फिर से इकठ्ठा किया जाता है और छात्रावास नाइट तक के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
आखिर क्यों आयोजित किये जाते हैं ये सब कार्यक्रम और समारोह? क्या ये सब कार्यक्रम और समारोह केवल औपचारिकता हैं या इनसे भी हम कुछ सीखते हैं? छात्रावास में रहने वाला या रह चुका प्रत्येक छात्र यह भी जानता है कि बहुत अच्छे और वैचारिक कार्यक्रम तक भी छात्रावासों में आयोजित किए जाते रहे हैं।
फिर सवाल यह है कि आखिर विश्वविद्यालय प्रशासन किस बात से घबराया हुआ है? क्या विश्वविद्यालय यह चाहता है कि आज का छात्र बिलकुल एकाकी जीवन जिए? क्या हम सब अभी तक यह नहीं समझ सके कि इस एकाकी जीवन के चलते समाज में मनोवैज्ञानिक बीमारियाँ और आत्महत्या तक की प्रवृति बहुत अधिक बढ़ चुकी है।
बड़े से बड़े पदों पर बैठे हुए लोगों से अगर उनकी जिन्दगी के सबसे हसीन दिनों के बारे में पूछा जाए तो उनमे से अधिकांश अपनी होस्टल लाइफ को ही जिंदगी के सबसे खूबसूरत दिन बताते हैं। क्या हम भूल गए हैं कि इस देश के लोकतंत्र की सांसों पर जब पहरा लगाने की कोशिश की गई थी तो पूरे देश के विश्वविद्यालयों के इन्हीं छात्रावासों से संपूर्ण क्रांति के नायक जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन को ऊर्जा देने का काम किया था?
पूरे देश के छात्रावासों से छात्र आपातकाल के विरुद्ध सड़कों पर निकल आए थे और सरकार के इस तुगलकी फैसले का मजबूत विरोध किया था, जिसके चलते यह संभव हुआ कि उसके बाद किसी भी सरकार ने देश में लोकतंत्र को बंधक बनाने का प्रयास नहीं किया। क्या हम पूरी तरह भूल चुके हैं कि आजादी की लड़ाई में लाहौर के डीएवी कॉलेज और उसके छात्रावास क्रांतिकारियों का अड्डा हुआ करते थे। क्या उस दौर में इन नौजवानों की आवाज का पूरा देश ऋणी नहीं है?
विश्वविद्यालय परिसरों की वैचारिकता पर बात करते हुए एक बार पंडित नेहरू ने कहा था कि अगर देश की व्यवस्था में कोई कमी आ जाए लेकिन देश के विश्वविद्यालय सही से कार्य कर रहे हों तो ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि इन विश्वविद्यालयों में तैयार होने वाले हमारे नौजवान किसी भी परिस्थिति से निपटने के लिए सक्षम हैं।
बहुत विचारणीय प्रश्न हैं कि वैचारिकता के केंद्र विश्वविद्यालय परिसर भी अगर एक जिम्मेदार नागरिक पैदा नहीं कर पा रहे हैं तो क्या हमें एक अच्छा नागरिक तैयार करने में अपनी महती भूमिका निभाने वाले शिक्षकों की क्षमता पर भी सवाल उठाना चाहिए? क्या विश्वविद्यालय प्रशासन के इन लोगों को देश के लोकतान्त्रिक अधिकारों को भी प्रतिबंधित करने का अधिकार मिल गया है?
क्या सरकारों की तर्ज पर ही विश्वविद्यालय प्रशासन भी विरोध की हर आवाज को चुप करा देना चाहता है? महत्वपूर्ण सवाल है कि इन परिसरों में ऐसा क्या हो रहा है जिसके विरोध की संभावना इन्हें नजर आती और उस विरोध को यह किसी भी तुगलकी फरमान से दबा देना चाहते हैं?
इस आदेश को एक सामान्य आदेश की तरह नहीं लिया जा सकता है, बल्कि यह फरमान विश्वविद्यालय परिसर की बौद्धिक स्वतंत्रता पर एक गंभीर खतरा है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि परिसरों में अच्छा शैक्षिक और वैचारिक माहौल तैयार करके उन्हें सुधारने की जरूरत है ना कि लोकतान्त्रिक प्रवृतियों और प्रक्रियाओं को रोकने टोकने की।
What’s your Reaction?
+1
+1
1
+1
+1
+1
+1
+1