आदिवासी जीवन
आदिवासी समाज की बदहाली को देखना-समझना चाहें तो आसानी से उस संवेदनहीनता पर उंगली रखी जा सकती है जिसे लेकर सत्ता, सेठ और समाज आदिवासियों को अपनी तरह के विकास की चपेट में फांसने में लगे हैं। कमाल यह है कि यह विकास आदिवासियों से पूछे, उन्हें समझे बिना किया जा रहा है। ऐसी हरकतों का आखिर क्या नतीजा होता है?
राजकुमार सिन्हा
हर आदिवासी समुदाय ने जीवन-यापन के लिए जरूरी भोजन, स्वास्थ्य, औषधि, आवास आदि की रचना की है। आदिवासियों के बारे में कहा जाता है कि वे ‘आज’ के लिए कमाते हैं और भविष्य की नहीं सोचते। उनका विश्वास है कि जल-जंगल-जमीन आधारित प्राकृतिक व्यवस्था उनकी जरूरतें पूरी कर देगी। ऐसे में जिन संसाधनों से उनकी ये जरूरतें पूरी होती हैं, उनका दोहनकर खत्म कर देने की बजाए उनका संरक्षण करना आदिवासी समाज की प्राथमिकता में होता है। जो संसाधन उन्हें जीवन देता है, उसे वे आराध्य मानते हैं। आदिवासियों के लिए जंगल मंदिर होता है और पेड़ देवता, परन्तु जिन संसाधनों और मूल्यों को उन्होंने अपनी जीवन-शैली का आधार माना, उसे उनके पिछड़े होने का सूचक मान लिया गया। आदिवासी समाज को आम तौर पर आर्थिक रूप से कमजोर माना जाता है, लेकिन उस प्रक्रिया का कोई अध्ययन ही नहीं होता जिसके परिणामस्वरूप उसे गरीबी के अंधेरे में धकेला गया। उनके आर्थिक पिछड़ेपन के अध्ययनों ने उनकी अर्थव्यवस्था और स्वायत्तता को समझने का कोई प्रयास ही नहीं किया। आदिवासियों की अपनी जीवन-शैली, दर्शन, इतिहास, भाषा, साहित्य और चिंतन है, इस पर कोई गौर ही नहीं किया गया। इसी नासमझी के परिणामस्वरूप आदिवासियों को कथित मुख्यधारा में जोड़ने की अवधारणा विकसित हुई।
यह अवधारणा श्रेष्ठता बोध से ग्रसित साजिश की विचारधारा है जो आदिवासियों को उनके जल, जंगल, जमीन से बाहर हकालकर उन पर कब्जा जमाना चाहती है। औपनिवेशिक काल और उसके बाद स्वतंत्र भारत में भी सत्ताधारी समूहों ने आदिवासी समाज को संसाधनों से वंचित कर उनके उत्पादन के साधनों और व्यवस्था को खत्म कर दिया। इस तरह सांस्कृतिक और आर्थिक दोनों तरह से आदिवासी समाज को पंगु बना दिया गया।
आदिवासी समाज ने रखवाला व अभिभावक की हैसियत से प्राकृतिक सम्पदा का संरक्षण हजारों सालों से किया है, लेकिन जंगल-पहाड़ के किसी हिस्से पर निजी स्वामित्व की दावेदारी कभी नहीं की। इस समाज के लिए जो कुछ भी है वह सब कुछ सामूहिक है। आदिवासी समुदायों का दर्शन सामूहिकता, प्रकृति के साथ तालमेल और समुदाय के कल्याण पर केंद्रित है। यह दर्शन व्यक्तिवादी दृष्टिकोण के विपरीत, सामूहिक जिम्मेदारी और सहयोग पर जोर देता है। आदिवासी जीवन में, व्यक्तिगत लाभ से बढ़कर, समुदाय के हित को महत्व दिया जाता है और संसाधनों का उपयोग सभी के हित में किया जाता है।
आदिवासी दर्शन प्रकृतिवादी है और प्रकृति को एक पूरक के रूप में देखा जाता है, न कि एक संसाधन के रूप में। इसके साथ ही आदिवासी समाज में, गैर- आदिवासी समाज की तरह, आजीविका की व्यवस्था असमान नहीं है। जंगल काटकर खेत बनाना, सामूहिक कृषि करना तथा वनोपज उनके जीवन का आधार रहे हैं। इस स्वायत्त और स्वछंद व्यवस्था पर जब भी किसी बाहरी शक्ति ने हमला किया, तो आदिवासियों का सामूहिक प्रतिरोध खुलकर सामने आया।
आदिवासी समाज सहजीवन और सामूहिकता के रिश्ते से बंधा समतामूलक समाज है। इसलिए यहां शासक और शोषित की वर्गीय अवधारणा कभी नहीं पनप सकी। लोकतंत्र में बहुमत की अवधारणा में आदिवासी समुदाय बहुत छोटी इकाई है, वे कमतर हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में टुकड़ों में विभाजित आदिवासी समुदाय बहुमत की अवधारणा में अपनी भागीदारी कैसे सुनिश्चित कर सकते हैं? इसलिए आदिवासी बहुमत की बजाय सर्वमत पर यकीन करते हैं। आजादी के बाद सभी आदिवासी इलाके बङे – बङे राज्यों में शामिल हो गए।
इस दौर में उनकी पुरानी व्यवस्थाओं की ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया और सभी जगह धीरे-धीरे एक समान व्यवस्था लागू हो गई। इस तरह पुरानी व्यवस्था में स्थानीय परम्पराओं के लिए जो गुंजाइशें थीं वे नई व्यवस्था में खत्म हो गईं। नतीजे में आदिवासी क्षेत्रों में कई तरह की विसंगतियां पैदा हो गईं और टकराव शुरू हो गए। आदिवासियों से जुड़े सामूहिकता के दर्शन के अनुत्तरित सवालों की वजह से नीति-निर्धारण की प्रक्रिया में आदिवासी हाशिये पर धकेले जाते रहे। उनके लिए कथित विकास की सभी परियोजनाएं असफल होती गईं और वे संकट के शिकार होते गए। भारतीय समाज में आदिवासी समुदायों को उपनिवेश की तरह देखा जाता है। आदिवासी समाज के अपने आंतरिक अन्तर्विरोध भी हैं। आंतरिक जटिलताओं ने भी समाज की गति बाधित की है। वैश्वीकरण के पैरोकारों ने वनों में छिपी अकूत संभावनाओं को ध्यान में रखकर आदिवासी जीवन और वनों को अपना शिकार बनाया। उद्योगों के नाम पर सभी संसाधनों पर कब्जा कर लेने का अंतराष्ट्रीय षड्यंत्र रचा गया। केन्द्रीकरण की यह उपनिवेशवादी प्रवृत्ति आजादी के बाद विकास की नई अवधारणा के साये में और भी मजबूत होती गई। उपनिवेशवादी – विकासवादी हमले में राज्य-सत्ताओं के योगदान ने उनके अस्तित्व को संकटग्रस्त बना दिया।
आज सभी आदिवासियों का विकास करना चाहते हैं, लेकिन कोई उनसे नहीं पूछता कि क्या वे विकास की इस अंधी दौड़ में शामिल होना भी चाहते हैं या नहीं। यूं तो विकास प्रकृति का स्वाभाविक नियम है, लेकिन यहां हम विकास के पीछे छिपी पूंजीवादी ताकतों के एजेंडे की बात कर रहे हैं। पूंजीवादी प्रणाली में उत्पादन और वितरण सामाजिक समानता, न्याय और पर्यावरण की सुरक्षा की बजाय निजी मुनाफे से संचालित होती है। प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और विनाश पर अधारित विकास के कारण उन समुदायों को विस्थापित होना पङता है जो इन संसाधनों पर निर्भर हैं। बांध, खनन, अभ्यारण्य और अन्य विकास परियोजनाओं के नाम पर कृषि भूमि का जबरन अधिग्रहण आदिवासियों के ऊपर आक्रमण साबित हो रहा है। सन् 2016 में ‘जनजातीय मामलों के मंत्रालय’ द्वारा जारी की गयी वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 1950 से 1990 के बीच देश में 87 लाख आदिवासी विस्थापित हुए हैं।
आज आदिवासियों की बदहाली के मूल में तथाकथित विकास की अवधारणा है। विकास की अंधी दौड़ में उन्हें जबरन घसीटकर इस बदहाली तक पहुंचा दिया गया है। अब और विकास हुआ तो शायद वे खत्म ही हो जायेंगे। पूंजी और मुनाफे से दूर उनका जीवन दर्शन जल, जंगल, जमीन के प्रति हमेशा संवेदनशील रहा है। उनके अस्तित्व का संकट, दुनिया का संकट है और उनको बचाने का मतलब है, दुनिया को भी बचाए रखना। इसलिए आज ‘हमारे गांव में हमारा राज’ का महामंत्र आदिवासी इलाकों के गांव – गांव में गूंज रहा है। गांव – गांव में ‘गांव गणराज्यों’ की स्थापना के बाद ही यह उम्मीद की जा सकती है कि संविधान, जो उस विशाल औपचारिक संरचना का आधार है, हमारा है।
संविधान में अनुसूचित क्षेत्रों की स्वशासी व्यवस्था के लिए ‘पेसा कानून’ और नियम भी बने हैं, परन्तु उनका ईमानदारी से पालन नहीं होने के कारण आदिवासी समुदाय के बीच अविश्वास का गहरा वातावरण बन रहा है, ये सही नहीं है। हमारे देश की व्यवस्था भी आदिवासियों की तरह लोकतांत्रिक, उदार और सहिष्णु होती तो स्वायत्तता से जुड़े तमाम सवाल अब तक हल हो गए होते, लेकिन हमारे देश में प्रजातंत्र की कल्पना ‘लोगों के हाथों में शक्ति’ की बजाय ‘प्रतिनिधियों के हाथों में शक्ति’ का पर्याय मान ली गई है।