Saturday, July 27, 2024
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पूर्णरूपेण होना चाहिए समर्पण

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समर्पण चाहे इस संसार के इंसानों के लिए हो या भौतिक कार्यों के प्रति हो अथवा परमपिता परमात्मा के लिए ही क्यों न हो, पूर्णरूपेण होना चाहिए अन्यथा उस समर्पण का कोई अर्थ नहीं रह जाता। वह समर्पण बस एक प्रदर्शन मात्र ही बनकर रह जाता है। तब इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता है। पति-पत्नी में पूर्ण समर्पण होता है तो उनका गृहस्थ जीवन कमियों के बावजूद भी सुखों से भरपूर हो जाता है। ऐसे घर में सभी सदस्य मिल-जुलकर रहते हैं। उनमें सौहार्द बना रहता है। ऐसा घर स्वर्ग से भी बढकर होता है, जिसकी खुशबू दूर-दूर तक फैलती है। आने-जाने वाले मेहमान भी इस घर में आकर सदा शीतलता का अनुभव करते हैं।

यदि पति-पत्नी दोनों में इसकी कमी होती है तो घर अखाड़ा बन जाता है और वहाँ कलह-क्लेश बना रहता है। उस घर में सदा अशान्ति का वातावरण रहता है। वहां रहने वाले सभी सदस्य सदा ही परेशान और दुखी रहते हैं। किसी को भी चैन नहीं मिल पाता। इसका दुष्परिणाम बच्चों को सबसे अधिक भुगतना पड़ता है।

माता-पिता का समर्पण बच्चों का जीवन संवारता है। उनका भविष्य बनाकर उनका सर्वांगीण विकास करता है। यदि माता, पिता और बच्चे सभी स्वार्थी बन जाएं तो घर में तू तू मैं मैं होती ही रहती है। वहां रहने वाले सभी सदस्य एक-दूसरे की टांग खींचने में लगे रहते हैं। उस घर के बच्चे जिद्दी, बिगडै़ल और मनमानी करने वाले बन जाते हैं। ऐसे घर की सुख-शान्ति छूमन्तर हो जाती है। घर की ऐसी स्थिति का कुप्रभाव घर के सदस्यों के साथ-साथ आने वाले अतिथियों पर भी पड़ता है। वे लोग भी ऐसे घर में आना पसन्द नहीं करते जहां हमेशा अशान्ति का वातवरण रहता है।

अपने कार्यक्षेत्र में मनुष्य अपने काम के प्रति समर्पित नहीं होगा तो उसकी कार्य क्षमता घट जाती है। वह कामचोरी करने के बहाने ढूँढता रहता है। तब वह व्यक्ति अपने सभी कार्यों की जिम्मेदारियाँ दूसरों पर डालकर स्वयं मस्त रहने का प्रयास करता है। ऐसे व्यक्ति का अपने कार्यक्षेत्र में सम्मान नहीं होता। सभी लोग उससे बचने की फिराक में लगे रहते हैं। मित्रों में यदि समर्पण का भाव हो तो उनकी मित्रता लम्बे समय तक चल सकती है यानी आजीवन या मृत्यु पर्यन्त चलती है। मित्रता जाति-धर्म, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी और देश-काल आदि सभी बंधनों से परे होती है। ऐसी मित्रता भगवान श्रीकृष्ण और गरीब ब्राह्मण सुदामा की मित्रता की भांति होती है, जिसका उदाहरण युगों-युगों तक दिया जाता है।

ईश्वर के प्रति यदि पूर्ण समर्पण और श्रद्धा हो तो उसे सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। प्राय: लोग ईश्वर की उपासना का प्रदर्शन करते हैं। इसीलिए वे लोग उस परमपिता परमात्मा से कोसों दूर रहते हैं। मनुष्य जब सच्चे मन से मालिक की उपासना करता है तभी वह उसका कृपापात्र बन पाता है। उसे हर प्रकार के सुख, शान्ति व समृद्धि मिलती है। यदि मनुष्य के मन में ईश्वर को पाने की तड़प हो तो तभी वह उसे पाकर कृतार्थ हो जाता है। उसका इहलोक और परलोक दोनों संवर जाते हैं। ऐसा ही श्रेष्ठ मनीषी वास्तव में इस संसार के चौरासी लाख योनियों और जन्म जन्मान्तरों के बन्धनों से मुक्त हो जाता है।


क्रोध में कोई अहं फैसला न लें

चंद्र प्रभा सूद |

मनुष्य जब क्रोध में हो तब उस समय उसे कोई अहं फैसला नहीं लेना चाहिए। कहते हैं कि क्रोध अंधा होता है। वह मनुष्य के विवेक का हरण का लेता है। तब वह कुछ भी सोचने-समझने के काबिल नहीं रहता। वह अपने-पराए का भेद करने में असमर्थ हो जाता है। उस क्रोध की अधिकता के समय लिया गया कोई भी निर्णय उसके विरुद्ध जा सकता है। दुर्भाग्यपूर्ण लिए गए अपने उस निर्णय के कारण फिर उसे जीवन भर प्रायश्चित करना पड़ सकता है। इसी प्रकार जब मनुष्य किसी विशेष उपलब्धि अथवा किसी कारण से प्रसन्न हो तब उसे किसी से कोई वादा नहीं करना चाहिए। अधिक खुशी में इन्सान के पैर जमीन पर नहीं पड़ते। तब ऐसा लगता है कि मानो उसे पंख मिल गए हैं और वह उड़ता फिरता है। उस समय भावना में बहकर किया गया वही वादा ही उसके जी का जंजाल बन जाता है।

क्रोध और प्रसन्नता मानव मन की दो अवस्थाएं हैं। क्रोध में मनुष्य को अपना आपा नहीं खोना चाहिए, होश में रहना चाहिए। क्रोध के कारण दुवार्सा ऋषि को आजतक सम्मान नहीं मिल पाया जिसके वे हकदार थे। इसी क्रोध के कारण ही मनुष्य के मन में प्रतिशोध लेने की दुर्भावना बलवती होने लगती है। इस भावातिरेक में वह अपना विरोध करने वाले किसी का भी कत्ल तक कर बैठता है और फिर कानून का मुजरिम बनकर सारी जिन्दगी सलाखों के पीछे बिता देता है। उसके घर-परिवार के लोग और उसके भाई-बन्धु उससे शीघ्र किनारा कर लेते हैं। जिनके लिए वह अपना सारा जीवन दाँव पर लगा देता है, वही उस कृत्य के लिए उसकी भर्त्सना करते हुए नहीं थकते।

प्रसन्नता भी मनुष्य के सिर पर चढ़कर बोलने लगती है। बहुत से लोग होते हैं जिन्हें खुशी भी रास नहीं आती। इन खुशी के पलों में उनका दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच जाता है। वे पतंग की तरह ऊंचे उड़ने लगते हैं और सोचते हैं कि उनकी डोर को कोई काटने का साहस नहीं कर सकता। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि वे गुब्बारे की तरह फूलकर कुप्पा हो जाते हैं किन्तु वे भूल जाते हैं कि कोई अपना ही उसमें पिन चुभोकर उन्हें धराशायी कर देगा और वे केवल देखते ही रह जाएँगे, कुछ कर नहीं पाएंगे।

इस प्रसन्नता के आवेग में भी गलत फैसले ले लिए जाते हैं जो निकट भविष्य में जी का जंजाल बन जाते हैं। उस समय मनुष्य भूल जाता है कि उसकी यह खुशी ही उसके दु:ख का कारण बन जाती है और वह क्रोध यमराज का दूसरा रूप होता है, वह सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। अति प्रसन्नता भी विनाश का कारण बनती है। इसलिए दोनों की अति से यत्नपूर्वक बचना चाहिए, इसी में समझदारी और सबका कल्याण है।


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