उत्तराखंड के केदारनाथ में 16 जून, 2013 को आई भीषण आपदा के आज दस वर्ष पूरे हो चुके हैं। दस वर्ष पहले आई उस आपदा को याद करने पर आज भी पूरा शरीर सिहर उठता है। केदारनाथ आपदा का मंजर इतना भयावह था कि आज भी उसकी यादें लोगों के दिलो-दिमाग पर छायी हुईं हैं। केदारनाथ की उस आपदा में लाखों लोग प्रभावित हुए थे। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक तकरीबन 4000 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थीं और 5000 से ज्यादा लोग लापता हुए थे, लेकिन मरने एवं लापता होने वालों की वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा थी। मरने वालों की वास्तविक संख्या का अनुमान आप इसी से लगा सकते हैं कि आपदा के कई सालों बाद तक वहां नरकंकाल मिलते रहे है।
इस आपदा में न केवल उत्तराखंड के लोग ही प्रभावित हुए थे, अपितु देश के कोने-कोने से आए लाखों श्रद्धालु प्रभावित हुए थे। इस आपदा में तकरीबन 13 हजार करोड़ से ज्यादा की परिसंपत्तियों का नुकसान हुआ था। हजारों की संख्या में घर, होटल, सड़कें, पुल, पानी-बिजली की लाइनें ध्वस्त हो हुई थीं।
1300 हेक्टेयर से ज्यादा कृषि भूमि नष्ट हो गयी थी एवं 11 हजार से अधिक मवेशी बह गए थे। अब सवाल उठता है कि आपदा के 10 साल बाद केदारनाथ के हालात कैसे हैं? केदारनाथ की वो आपदा इतनी भयावह थी कि उसको देखकर ये अनुमान लगा पाना मुश्किल था कि फिर से चारधाम यात्रा कब शुरू हो पाएगी?
लेकिन उत्तराखंड सरकार ने केदारनाथ के पुनर्निर्माण के साथ ही अगले वर्ष से ही चारधाम यात्रा फिर से शुरू कर दी। हालांकि शुरू के कुछ वर्षों में केदारनाथ जाने वाले श्रद्धालुओं की संख्या बेहद कम रही लेकिन उसके बाद हर वर्ष केदारनाथ जाने वाले लोगों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि होने लगी। आज स्थिति ये है कि आपदा के पहले प्रत्येक वर्ष केदारनाथ जाने वालों की संख्या महज 3 लाख के करीब थी जो अब बढ़कर 15 लाख हो चुकी है।
इन दस वर्षों में उत्तराखंड सरकार ने केदारनाथ के पुनर्निर्माण के लिए बेहद सराहनीय कार्य किए हैं। आज केदारनाथ के लिए ट्रिपल आर ( रोड, रेल, रोपवे) कनेक्टविटी पर कार्य किया जा रहा है। चारधाम आलवेदर रोड, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलमार्ग एवं गौरीकुंड-केदारनाथ रोपवे का कार्य प्रगति पर है।
यूं तो उत्तराखंड से श्रद्धालुओं एवं पर्यटकों का वास्ता तो बहुत पुराना है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या आपदा के दस साल बाद भी उत्तराखंड केदारनाथ आपदा जैसी विकट परिस्थितियों का सामना कर पाने में सक्षम है? हालांकि राज्य सरकार श्रद्धालुओं एवं पर्यटकों की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम के दावे कर रही है, लेकिन पर्यटकों की आमद को हम व्यवस्था से शायद ही तोल पाएं।
खासतौर पर गर्मियों में पर्यटकों की लंबी कतारों के बीच खतरे मंडराते रहते हैं। जाहिर तौर पर पर्वतीय रास्तों की बुनियाद आरंभ में चंद लोगों के हिसाब से विकसित होती है, लेकिन बाद में यात्रियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि से दबाव बढ़ता है।
विडंबना यह है कि हम यात्राओं की क्षमता को नवीन अधोसंरचना से न ही जोड़ पाते हैं और न ही आपात स्थितियों में वैकल्पिक मार्ग की तलाश कर पाते हैं।
पिछले कुछ वर्षों से चारों धामों की यात्रा जिस ढंग से सामान्य सैर-सपाटे और मौज-मस्ती में तब्दील होती जा रही है, उसे देखते हुए यह सोचना जरूरी हो जाता है कि इस तरह के पर्यटन को आप किस तरह की संज्ञा देंगे।
भक्तों की तादाद पर पर्यटन हावी हो रहा है और इस वजह से ऐसी यात्राओं को हम महज आस्था के सहारे नहीं छोड़ सकते। इसे राज्यीय परिपे्रक्ष्य में समझने की जरूरत है यानी इमरजेंसी के हालात में व्यापक बचाव प्रबंधन की तैयारी भी करनी होगी।
कभी किसी ने इस पहलू पर शायद गौर नहीं किया होगा कि उत्तराखंड के तीर्थ स्थल कितने लोगों के आवागमन व उनके ठहरने या गाड़ियों के काफिलों के आने-जाने की क्षमता रखते हैं और साथ में यह भी कि क्या उसके अनुरूप यहां पर इंतजाम है भी या नहीं। यहां हमारा आशय धर्मपरायण जनता की भावना को चोट पहुंचाना नहीं, उचित व्यवस्था पर जोर देना है।
प्रकृति सृजन का पर्याय भी है और प्रकोप के जरिए वह संतुलन भी स्थापित करती रही है। कुदरत अपनी आत्मा के तौर पर विनाशकारी नहीं होती। यदि ऐसा ही होता तो करीब एक हजार साल पुराना केदारनाथ मंदिर यथावत न रह पाता। इसे दैवीय चमत्कार कहें या मंदिर का बेजोड़ शिल्प, केदारनाथ के अस्तित्व ने असंख्य तीर्थयात्रियों और भक्तों की आस्था को बरकरार रखा है।
लेकिन मॉल की तरह इस्तेमाल होते मंदिरों, होटलों, धर्मशालाओं और बाजारों को उस प्रलय, आकस्मिक सैलाब या अप्रत्याशित जलजले ने मलबा बना दिया। इसमें निहित अनास्था को महसूस किया जा सकता है। मौजूदा संदर्भों में यही पहाड़ की त्रासदी है। चार धाम पर जाने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या सीमित की जाए, क्योंकि पहाड़ इतनी संख्या को झेलने में सक्षम नहीं हैं।
2013 में आई भीषण आपदा का ठीकरा भले ही हम कुदरत के सिर पर फोड़ दें, लेकिन हकीकत यही है कि यह प्रकृति से खिलवाड़ और चुनौती देने का नतीजा था। पानी का प्रवाह रोकने का मामला हो या पहाड़ों में पर्यावरण प्रदूषण का बढ़ता मामला, न सरकार सचेत नजर आती है और न ही जनता।
केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री धर्म और आस्था के ऐसे केंद्र हैं, जहां हर साल लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं। क्या सरकार ने कभी विचार किया कि इतने लोगों के जाने से पहाड़ों को क्या नुकसान हो रहा है। तीर्थ यात्रियों द्वारा फेकी जाने वाली पानी की खाली बोतले और प्लास्टिक की थैलियां पर्यावरण को कितना नुकसान पहुचाते है। हम प्रकृति को चुनौती देते रहेगें तो क्या प्रकृति चुप बैठने वाली है।