2024 का आम चुनाव अभी दूर है। लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी के साथ ही विपक्षी दलों ने भी चुनावी तैयारियां शुरू कर दी है। राजनीतिक पार्टियों की तैयारी में एक प्रमुख बात जो दिख रही है, वह है किसी राजनीतिक साथी की तलाश। कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल मोदी सरकार को हराने के लिए गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यह कोशिश परवान भी चढ़ रही है, लेकिन सत्तारूढ़ भाजपा भी क्षेत्रीय ताकतों के साथ बैठक और गठबंधन करने की तैयारी में लग गई हैं। जबकि भाजपा के पास प्रचंड बहुमत है। यह बहुमत उसे 2014 और 2019 दोनों आम चुनावों में मिली थी। केंद्र में अभी तकनीकी रूप से एनडीए की सरकार है। लेकिन सरकार के लिए जरूरी बहुमत के लिए अकेले भाजपा के पास पर्याप्त संख्या है। दो-दो आम चुनावों में पूर्ण बहुमत पाने के बाद भी भाजपा अकेले दम पर चुनाव में न उतरकर क्षेत्रीय स्तर पर सहयोगी ढूढ़ रही है। और यह भी नहीं चाहती कि एनडीए के छोटे सहयोगी दल उसका साथ छोड़ें।
2014 में मोदी की सरकार बनने के बाद राजनीति और सरकार के मायने बदल गए हैं। यह सब भाजपा की सांप्रदायिक, फासीवादी और कॉरपोरेटपरस्त नीतियों की वजह से हैं। सत्ता में आने के बाद से ही पीएम मोदी राजनीतिक विरोधियों को चुन-चुन कर ठिकाने लगा रहे हैं।
इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे विरोधी भाजपा के नेता हैं या विपक्ष के। मोदी सरकार विपक्षी नेताओं के खिलाफ ईडी, सीबीआई और जांच एजेंसियों का सहारा लेकर जेल के अंदर डालती रही है। यहां तक कि सिविल सोसाइटी और जन संगठनों के कार्यकतार्ओं को भी देशद्रोही, कानून विरोधी, माओवादी, ईसाई मिशनरियों और आतंकवादियों का समर्थक बताते हुए जेल में डालने का सिलसिला शुरू कर दिया।
आंदोलनकारियों या राजनीतिक विरोधियों को न्यूनतम मौलिक अधिकारों से भी वंचित होना पड़ा। सरकारी उत्पीड़न के चलते समाज में ध्रुवीकरण की गति में तेजी आई। पत्रकार, बुद्धिजीवी, शिक्षक, किसान, युवा, महिला, दलित, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों तक में एक विभाजक रेखा खिंच गई।
अब जनता के बहुत बड़े तबके में यह देखा जा रहा है कि या तो वे भाजपा के साथ हैं या भाजपा के विरोध में हैं। क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के समर्थक अब यह जानना चाहते हैं कि आप भाजपा के साथ हैं या विरोध में हैं। या चुनाव के बाद भाजपा से हाथ तो नहीं मिला लेंगे।
जिस समय राहुल गांधी अमेरिका में भाजपा को हराने के लिए विचार और विजन की आवश्यकता बता रहे थे, उसी समय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्षी दलों की एकता के लिए गठबंधन की बैठक करने की कोशिश कर रहे थे। अब 23 जून को विपक्षी दलों की बैठक होने जा रही है।
कई दल इसमें शामिल होंगे और कई दलों ने एनडीए की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। बंगाल की तृणमूल कांग्रेस, राजद, जेडीयू, एनसीपी, डीएमके, आम आदमी पार्टी, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना जैसी कई पार्टियां बैठक में शामिल हो रही हैं।
लेकिन बीजू जनता, बीआरएस, टीडीपी, जेडीएस, बसपा जैसे दल विपक्ष में रहने के बावजूद गठबंधन में शामिल नहीं हो रहे हैं। टीडीपी और जेडीएस का एनडीए में शामिल होने की बातचीत चल रही है, तो बहुजन समाज पार्टी का भाजपा के साथ एक अंडरस्टैंडिंग रहती है। रही बात बीजद और बीआरएस की तो लोकसभा चुनाव तक वे एनडीए या यूपीए से समझौता कर सकते हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि कुछ क्षेत्रीय दल विपक्षी दलों के गठबंधन में शामिल क्यों नहीं हो रहे हैं। इसका पहला कारण राजनीतिक है और दूसरा कारण वैचारिक है। सफल और सशक्त लोकतंत्र के लिए राजनीतिक दलों की वैचारिक प्रतिबद्धता और चुनाव प्रणाली की पारदर्शिता और निष्पक्षता बहुत मायने रखती है।
लेकिन 90 के दशक में भारत में जब चुनाव आयोग पारदर्शिता और निष्पक्षता का कीर्तिमान स्थापित कर रहा था तब भारत में एक नए तरह की राजनीति का सूत्रपात हुआ। वह गठबंधन की राजनीति थी, और गठबंधन के सामने कांग्रेस को हराने का लक्ष्य था।
1989 में कई क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय मोर्चा के नाम से गठबंधन हुआ। उसी समय उसी लक्ष्य के लिए वामपंथी दलों का वाममोर्चा बना था। इस तरह रामो-वामो ने मिलकर कांग्रेस को सरकार बनाने से वंचित कर दिया। भारतीय राजनीति में पहले साठ के दशक में और फिर नब्बे के दशक में राजनीतिक गठबंधन का दौर शुरू हुआ। साठ के दशक में कई राज्यो में गठबंधन की सरकार बनी थी।
उस गठबंधन में जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टियां शामिल थी। तब कांग्रेस की तानाशाही से मुकाबला था। उस दौरान राजनाति में कुछ मुद्दों पर सहमति और कुछ मुद्दों पर दोस्ताना संघर्ष का फामूर्ला निकाला गया। सरकार चलाने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम का मॉडल तय किया गया। यहां से राजनीति में वैचारिक पतन का दौर शुरू होता है, जो आज तक जारी है।
गठबंधन की राजनीति से सबसे ज्यादा नुकसान ‘वैचारिकता’ और ‘राजनीतिक शुचिता’ को हुई। रातोंरात राजनीतिक दलों और राजनेताओं की वैचारिक-राजनीतिक निष्ठा में बदलाव आया। दलबदल का दौर शुरू हुआ। राजनीति में विचार की कीमत मिट्टी के बराबर भी नहीं रह गया। मंत्री बनने औ? मनचाहा विभाग पाने तक के लिए ही सारी राजनीति सिमट गई।
सरकार में शामिल होने के लिए कुछ कॉमन मुद्दों को खोज लिया जाता रहा। नब्बे के दशक में ही देश की राजनीतिक परिघटना में ‘सेकुलरवाद’, ‘राष्ट्रवाद’ और ‘सामाजिक न्याय’ की राजनीति का उभार हुआ। अब राजनीति में आप इन तीन तत्वों में से किसी के पैरोकार हैं, तो बाकी किसी चीज की जरूरत नहीं थी। लेकिन 2014 आते-आते ‘राष्ट्रवाद’ की राजनीति ने ‘सेकुलरवाद’ और ‘सामाजिक न्याय’ की राजनीति की सीमारेखा तय कर दी।
अब जरा देखते हैं कि 2019 चुनाव में कांग्रेस-भाजपा का क्या प्रदर्शन रहा था। 2019 आम चुनाव में कांग्रेस ने 421 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 52 सीटों पर जीत हासिल की थी। बीजेपी ने साल 2019 लोकसभा चुनाव में 437 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से 303 पर जीत हासिल की थी।
बीजेपी को लोकसभा चुनाव में 38 फीसद वोट मिले थे, जबकि एनडीए गठबंधन ने 353 सीटों पर करीब 45 फीसद वोट मिला था। जबकि कांग्रेस को लगभग 20 प्रतिशत मत और यूपीए को 26 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे। लेकिन एनडीए और यूपीए के अलावा 29 प्रतिशत वोट क्षेत्रीय दलों के खाते में गया था।
इस तरह दो-दो आम चुनाव में मात खाने के बाद कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों को यह आभास हो गया है कि चुनावी हार-जीत के लिए गठबंधन बनाने की बजाए वैचारिक रूप से भी एक गठबंधन बनाना होगा तभी भाजपा-एनडीए से लड़ा जा सकता है।
क्योंकि कांग्रेस की नजर में 55 प्रतिशत गैर एनडीए वोट है। ऐसी परिस्थितियों में अधिकांश क्षेत्रीय दल किसी एक गठबंधन के साथ होने की तैयारी में लगे हैं। 2024 के चुनाव में यदि देश में दो गठबंधन ही मैदान में उतरते हैं कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।
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