खबरों के मुताबिक इस बार 14 नवम्बर-जिसे हम जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन के साथ जोड़ कर देखते आए थे-तमाम स्कूलों में बिल्कुल अलग ढंग से मनाया गया। तरह-तरह के आयोजन हुए, कई स्कूलों में तो सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान अध्यापिकाओं ने बच्चों के स्वागत के लिए स्टेज पर नृत्य भी किए। फर्क महज इतना ही था कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू-जो बच्चों को बहुत पसंद करते थे, इन सभी में लगभग गायब मिले-जिनके बच्चों के प्रति उनके प्यार को रेखांकित करने के लिए, नवस्वाधीन भारत सरकार द्वारा बच्चों के कल्याण के लिए उठाए गए तमाम कदमों को उजागर करने के लिए इसकी शुरुआत की गई थी। कुछ साल पहले भाजपा के साठ से अधिक सांसदों ने सरकार से इसे बदलने की मांग की थी। सांसदों की तरफ से कहा गया था कि 14 नवम्बर को ‘चाचा दिवस’-नेहरू को बच्चे चाचा कहते थे-घोषित किया जाए और बाल दिवस को 26 नवंबर को मनाना शुरू किया जाए। कहा जाता है कि इसी दिन सिखों के गुरु गोविंद सिंह के चार अल्पवयस्क बच्चे और मुगल सम्राट औरंगजेब के शासन में मार दिए गए थे। मौजूदा हुकूमत द्वारा नेहरू की अहमियत को कम करने, उन्हें इतिहास के पन्नों से भी गायब कर देने या उन्हें खलनायक या ऐययाश साबित करने की जो सुसंगठित एवं सुनियोजित मुहिम जारी है, इसके अनिवार्य हिस्से के तौर पर ही इसे समझा जा सकता है।
आजादी के संघर्ष में दस साल से अधिक वक्त़ जेल में गुजारे और नवस्वाधीन भारत को आकार देने में अहम भूमिका निभाने वाले भारत के प्रथम प्रधानमंत्राी जवाहरलाल नेहरू-जिन्होंने धर्म और राजनीति के संमिश्रण के खतरे को बखूबी पहचाना था और स्वाधीन भारत को धर्मनिरपेक्ष आधारों पर खड़ा करने में नेत्रत्वकारी रोल अदा किया था, और सबसे बढ़ कर जिन्होंने धर्म के आधार पर राष्ट खड़ा करने के फलसफे को चुनौती दी थी, वह हमेशा ही देश के मौजूदा सत्ताधारियों की आंखों की किरकिरी बने रहे हैं।
‘बाल दिवस’ की चर्चाओं से नेहरू को ही गायब कर देना या उपनिवेशवादविरोधी संघर्ष के महान नेता महात्मा गांधी को स्वच्छ भारत अभियान के आयकन तक सीमित कर देना, यह सब देश को ‘न्यू इंडिया’ बनाने में लगी ताकतों के व्यापक डिजाइन का हिस्सा है। गांधी के छवि के चश्मे तक न्यूनीकरण या उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे का बढ़ता महिमामंडन हम एक ही सिक्के के दो पहलू के तौर पर समझ सकते हैं।
15 अगस्त को लाल किले से अपनी पहली तकरीर में वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने 2 अक्तूबर को-महात्मा गांधी के जन्मदिन को स्वच्छ भारत अभियान के आगाज करने का ऐलान किया था। जाहिर सी बात है कि व्यापक लोगों को यह स्पष्ट नहीं था कि यह एक ही तीर से दो निशाने साधने की बात है, एक तरफ नई सत्तासीन सरकार अपनी एक नई छवि पेश करना चाह रही थी कि और साथ ही साथ ब्रिटिश विरोधी महान जनसंघर्ष के अगुआ रहे तथा सांपद्रायिक सदभाव बनाए रखने के लिए अपनी जान तक कुर्बान किए महात्मा गांधी को एक तरह से उनकी विरासत से काट कर स्वच्छ भारत अभियान के आयकन के तौर पर न्यूनीकृत करना चाह रही थी। स्वच्छ भारत अभियान का प्रतीक गांधी के चश्मे को बनाना इसी का प्रतिबिंबन था।
प्रतीकों के विकृतिकरण या उनके मामूलीकरण में सामाजिक मुक्ति संग्राम के अग्रणी भी उनके चपेट में बखूबी आते गए है। वर्ष 2017 का वह प्रसंग निश्चित ही जनता की यादों से ओझल नहीं हुआ होगा। महाड क्रांति -जैसा कि उसे दलित विमर्श में कहा जाता है-जब वर्ष 1927 में महाड के चवदार तालाब पर डॉ. अम्बेडकर की अगुआई में ऐतिहासिक सत्याग्रह किया गया था और जातिप्रथा को चुनौती दी गई थी-की नब्बेवीं सालगिरह मनायी जा रही थी, तब हम सभी एक विचलित करने वाले नजारे से रूबरू थे और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि हम वहीं कदमताल कर रहे हैं, कहीं आगे नहीं बढ़े हैं।
मिसाल के तौर पर देश की राजधानी के नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर प्रायोगिक तौर पर बिलबोर्ड लगाए गए थे, जिन्हें बाद में देश के अन्य रेलवे स्टेशनों पर लगाया जाना था और जिसे स्वच्छ भारत अभियान के हिस्से के तौर पर पेश किया गया था। इन बिलबोर्डस पर डॉ. अम्बेडकर को स्वच्छता के आयकन अर्थात प्रतीक के तौर पर प्रस्तुत किया गया था, जिसमें अम्बेडकर सदृश्य एक व्यक्ति को कतार में खड़े लोगों की अगुआई में दिखाया गया था जो कूडेदान में कूड़ा डाल रहा है और बोर्ड पर लिखा है कि ‘आप के अंदर के बाबासाहब को आप जागरूक करें।
गंदगी के खिलाफ इस महान अभियान में अपना योगदान दें।’ उन अम्बेडकरी संगठनों एवं रेडिकल दलित कार्यकर्ताओं की पहल की तारीफ करनी पड़ेगी, जिन्होंने सैकड़ों लोगों के साथ अम्बेडकर के इस अपमान का विरोध किया और ‘जातिवादी आग्रहों’ को प्रदर्शित करनेवाले इन बिलबोर्डस को हटाने के लिए भारतीय रेल को मजबूर किया, मगर यह समूचा प्रसंग तमाम सवालों को छोड़ गया।
यह प्रश्न तत्काल उठा कि इन जातिवादी आग्रहों को दिखाने वाले बिलबोर्डस को बिना आपत्ति प्रमाणपत्र किसने दिया और उनके सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति आखिर किसने दी? और अब रेल मंत्रालय या संबंधित विभाग इस मामले में क्या कार्रवाई करनेवाला है? क्या भेदभाव के खिलाफ बने कानूनों के तहत किसी पर कोई कार्रवाई होने वाली है? आखिर इस बिलबोर्ड के संदेश के जरिए क्या संप्रेषित की जाने की कोशिश हो रही थी? यही न कि देश के नीतिनिर्धारकों के लिए तथा उनके मातहत काम करनेवालों के लिए डॉ. अम्बेडकर की अहमियत आज भी उत्पीड़ित जातियों के उन सदस्यों से अलग नहीं है, जिन्हें वर्णव्यवस्था ने धर्म की मुहर लगा कर अस्वच्छ पेशों तक सीमित कर दिया है, जिनसे मुक्ति का हुंकार महाड सत्याग्रह था!
वैसे गांधी, नेहरू, अम्बेडकर आदि की छवि के न्यूनीकरण या विकृतिकरण में मुब्तिला जमातों की सक्रियता यहीं तक नहीं रुकती, वह उनके संकीर्ण विचारों के अगुआ तत्वों को भी समानांतर स्थापित करने की कोशिश करती है। नाथूराम गोडसे को संसद के पटल पर ‘महान राष्टभक्त’ कहलाने में उन्हें संकोच नहीं होता या अपने संगठन को आजादी के महान संघर्ष से दूर रखने वाले हेडगेवार, गोलवलकर के महिमामंडन में, यहां तक ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त ब्रिटिश सेना में भरती अभियान चलाने में सक्रिय रहे सावरकर-जिन्होंने अंदमान के जेल से अपनी रिहाई के लिए माफीनामे लिखे थे-को ‘स्वातंत्रयवीर’ कहलाने में उन्हें गुरेज नही होता।