Saturday, June 29, 2024
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नेपाल में फिर ढाई-ढाई फॉर्मूला

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PRABHAT KUMAR RAIभारत और नेपाल सदियों से सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से अत्यंत निकट भ्राता राष्ट्र रहे हैं। आज के दौर में अनेक राजनीतिक और कूटनीतिक गलतियों के कारणवश ही दोनों राष्ट्रों के मध्य कुछ दुर्भाग्यपूर्ण कटुताएं उभर कर सामने आ गईं हैं। कम्युनिस्टों की कयादत में नेपाली राजसत्ता का चीन की तरफ स्पष्ट झुकाव है और यह भारत के लिए कशीदगी और चिंता का विषय है। हालांकि ऐतिहासिक तौर पर नेपाली कम्युनिस्टों को सदैव भारत में ही प्रश्रय हासिल हुआ, किंतु भारत के साथ सीमा विवाद को तूल देकर नेपाली राष्ट्रवाद का परचम लहराना नेपाली कम्युनिस्टों का एक शगल सा बन गया है।
इस तथ्य को एक विडंबना ही कहा जा सकता है कि नेपाल में नवनिर्मित जनतंत्र के दौर में मात्र दस वर्षों के इतिहास में पंद्र्रह दफा सत्ता परिवर्तन हो चुका है। नेपाल में राजशाही का वास्तविक खात्मा तो वर्ष 2007 में हो गया था, किंतु विकट दीर्घ कालीन उठा पटक के तत्पश्चात वर्ष 2015 में नेपाल द्वारा नए संविधान को अंगीकार किया गया। वर्ष 2015 के संविधान के तहत नेपाल हिंदू राष्ट्र की अपनी ऐतिहासिक साँमती विरासत का पूर्णत: परित्याग करके एक बहुदलीय जनतांत्रिक और धर्म निरपेक्ष राष्ट्र के तौर पर स्थापित हो गया। नेपाल के वर्ष 2022 के आम चुनाव में किसी भी एक राजनीतिक दल को संसद में संपूर्ण बहुमत का दीदार नहीं हो सका। दैनिक जनवाणी संवाद

अत: एक मिली जुली बहुदलीय हुकूमत का निर्माण करने के लिए राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लीडर पुष्प कमल दहल प्रचंड को देश का नया प्रधानमंत्री नियुक्त किया। हालांकि आम चुनाव में पचंड की कम्युनिस्ट पार्टी केवल 32 सीटें हासिल करके संसद में तीसरे स्थान पर रही। ओली की कम्युनिस्ट पार्टी को 78 सीटें हासिल हुईं और देऊबा की नेपाली कांग्रेस का 89 सीटें मिलीं। नेपाल के अनेक राजनीतिक दलों के मध्य एक राजीनामा अंजाम दिया गया कि प्रचंड और केपी शर्मा ओली क्रमश: ढाई-ढाई वर्ष की अवधि के लिए नेपाल के प्रधानमंत्री पद पर आसीन होंगे।

उल्लेखनीय है कि पचंड और ओली के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा वर्ष 2017 के आम चुनाव के पश्चात भी नेपाल में एक मिली जुली हुकूमत निर्मित हुई थी। दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों को मिलकर 2017 के आम चुनाव में संसद में 174 सीटों के साथ दो तिहाई बहुमत हासिल किया था। उस वक्त भी एकदम ऐसा ही राजीनामा अंजाम दिया गया कि पहले ढाई वर्ष केपी शर्मा ओली और अगले ढाई वर्ष प्रचंड नेपाल का प्रधानमंत्री पद संभालेंगे।

यहां तक कि 2018 में प्रचंड और ओली की कयादत वाली कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा परस्पर विलय अंजाम देकर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (मार्क्सवादी) का गठन भी कर लिया गया। ढाई वर्ष के समापन के पश्चात ओली द्वारा राजीनामा तोड़ दिया गया और ओली द्वारा प्रधानमंत्री पद पर कायम बने रहने के लिए प्रत्येक पैंतरेबाजी और हर तिकड़म अख्त्यार की गई। किंतु नाकाम रहने पर ओली ने संसद को भंग करने की सिफारिश राष्ट्रपति से कर दी। किंतु सुप्रीम कोर्ट आॅफ नेपाल ने संसद भंग करने के राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी के अध्यादेश को निरस्त कर दिया।

प्रचंड के समर्थन से नेपाली कांग्रेस के लीडर शेर बहादुर देऊबा वर्ष 2021 में पांचवी दफा प्रधानमंत्री पद पर आसीन हो गए। वर्ष 2022 का आम चुनाव देऊबा की नेपाली कांग्रेस और प्रचंड की माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने एक साथ मिलकर लड़ा, किंतु यह राजनीतिक मोर्चा चुनाव परिणाम के पश्चात विखंडित हो गया, क्योंकि देऊबा ने प्रचंड को प्रधानमंत्री बनाने के इंकार कर दिया। नेपाल के राजनीतिक पटल फिर पुराना समीकरण उभरा और दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के मध्य सत्ता के लिए एकता स्थापित हो गई है।

अब देखना है कि यह कम्युनिस्ट लीडरॉन की एकता कब तक कायम बनी रहती है? नेपाल के कम्युनिस्ट लीडर सत्तानशीन हो जाने की प्रबल महत्वाकांक्षा से सरोबोर रहते हैं। इंकलाब के लिए त्याग और बलिदान करने वाली महान संस्कृति से बहुत दूर जा चुके हैं। केपी शर्मा ओली और प्रचंड दोनों ने दीर्घ काल तक भूमिगत और संघर्षशील रहकर नेपाल के जनमानस के मध्य अपार लोकप्रियता हासिल की थी।

राजसत्ता हासिल कर लेने की सिद्धांतहीन और अवसरवादी ललक ने प्रचंड की पार्टी को तो संसद में तीसरे नंबर पर ला पटका है, जबकि 2008 के संसदीय चुनाव में प्रचंड की माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी नेपाल की संसद में पहले नंबर की पार्टी थी, तब पहली दफा प्रचंड नेपाल के प्रधानमंत्री बने थे। वर्ष 2017 के आम चुनाव में संसद में दो तिहाई बहुमत हासिल करने के साथ सत्तासीन होने वाले कम्युनिस्टों को 2022 के चुनाव में कुल मिलाकर 275 सीटों के सदन में केवल 110 सीटें ही हासिल हो सकीं और किसी तरह से कुछ अन्य छोटी पार्टियों के समर्थन से सरकार बना सके हैं। कम्युनिस्ट लीडरॉन के मध्य उत्पन्न हुई सिद्धांतहीन और महत्वाकांक्षी फितरत के कारण शनै: शनै: उनकी लोकप्रियता नेपाल में तिरोहित हो रही है।

कूटनीतिक तौर पर भारत को नेपाल पर बहुत अधिक तव्वजों प्रदान करनी चाहिए। जो कूटनीतिक गलतियां विगत काल में भारत द्वारा अंजाम दी गर्इं, उनका समुचित निराकरण करना अत्यंत आवश्यक है। भारत को अब समझ लेना चाहिए कि नेपाल अब राजशाही दौर वाला नेपाल नहीं है। वर्ष 2015 में अंजाम दी आर्थिक नाकाबंदी ने नेपाल को भारत से कहीं दूर ले जाकर चीन की तरफ जाने के लिए विवश किया।

2015 में नेपाल के नवनिर्मित संविधान को लेकर जैसा तल्ख कूटनीतिक व्यवहार भारत द्वारा अंजाम दिया गया, उस व्यवहार की कटुता आज तक भारत और नेपाल के रिश्तों में है। नेपाल के पहाड़ी इलाकों में बहुत अधिक भारत विरोधी भावनाएं हैं। नेपाल के मधेसियों के मध्य भी भारत अब पहले जैसा लोकप्रिय देश नहीं रहा है। भारत को नेपाल में अपनी अधूरी पड़ी हुई परियोजनाओं को संपूर्ण करने में पूरी ताकत लगा देनी होगी। चीन की वन बैल्ट वन रोड परियोजना में नेपाल बाकायदा दाखिल हो चुका है।

चीन का पूंजी निवेश नेपाल में अत्यंत तेजी से बढ़ रहा है। भारत को चारों दिशाओं से रणनीतिक तौर घेर लेने की कोशिश में नेपाल भी भारत के विरुद्ध चीन का एक रणनीतिक मोहरा बन सकता है। भारत द्वारा नेपाल को अपनी कूटनीतिक पहल में उच्च स्थान प्रदान करना होगा। नेबर फर्स्ट की कूटनीति कहीं केवल जुमलों में उलझ कर ही ना रह जाए और नेपाल भी कहीं पाकिस्तान की तरह से चीनी पूंजी की गिरफ्त में ना चला जाए, इस कटु तथ्य पर ध्यान केंद्रित करके भारत को नेपाल को अपना बनाए रखने की प्रबल कोशिश करनी होगी।


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