Saturday, April 20, 2024
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वेद में निहित है वैश्विक कल्याण

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वेद शब्द विद् धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है ‘ज्ञान’। समस्त ज्ञान-विज्ञान से युक्त वेद ही धर्म का मूल है जो मानव का सर्वाधिक कल्याण करने वाले हैं। मनुस्मृति के द्वितीय अध्याय में कहा गया है, ‘सर्वज्ञानमयो हि स:।’ यह कहकर वेद को सभी प्रकार के ज्ञान से युक्त घोषित किया गया है। तात्पर्य है कि मानव जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं हैं जिसका दर्शन हमें वेद में नहीं होता हो। वेद को अनन्त ज्ञान का भंडार माना गया है। वेदों में भारत राष्ट्र की महिमागान के साथ ही वैश्विक कल्याण की कामना की गई है। ‘वेद’ केवल सभ्यता, संस्कृति तथा ज्ञान-विज्ञान को ही महिमान्वित नहीं करते वरन अनेक मूल्यपरक विषयों को अजस्र प्रवाहित ज्ञान गंगा के सदृश्य उद्घाटित करते हैं। देशभक्ति अध्यात्म, नैतिक-तत्त्व, जीविका के साधन अनेक विषयों पर वेदों में प्रकाश डाला गया है।

सर्वसमृद्धि की कामना

वेद किसी एक व्यक्ति, एक समाज अथवा राष्ट्र की ही नहीं अपितु समस्त मानव जगत की समृद्धि की कामना करता है। वह कामना करता है कि सकल दिशाएं सदैव उन्नति को प्राप्त करें। अथर्ववेद में कहा गया है -‘इमा या पंच प्रदिशो मानवी:कृष्टय:। वृष्टे शापं नदीरिवेह स्फातिं समावहां।।’अर्थात ये जो पांच प्रदिशाएं हैं, उनमें रहने वाले जो पांच मानव हैं, वे सभी दस प्रकार की समृद्धि को प्राप्त करें, जिस प्रकार वर्षा होने पर नदियां जल प्रवाह को प्राप्त करती हैं।

एकता की भावना

वेदों में कई सौमनस्य विषयक सूक्त प्राप्त होते हैं, जिनमें परिवार, समाज, राष्ट्र तथा विश्व में सभी मानव प्रीतियुक्त मन से रहें।

संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानतां।
देवा भागं यथा पूर्वे संजनाना उपासते।।
समानि व: आकूति: समाना हृदयानि व:।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति।।

अर्थात हे मनुष्यों ! तुम सब मिलकर चलो, मिलकर वार्तालाप करो, तुम्हारे मन मिल जाएं। तुम उसी प्रकार मिलकर कार्यों को सिद्ध करो जिस प्रकार विभिन्न क्षेत्रों में देव परस्पर सहयोग से कार्य करते हैं। तुम्हारा संकल्प समान हो, जिससे तुम्हारे में परस्पर रहने की शुभ प्रवृत्ति उत्पन्न हो। अथर्ववेद के एक मंत्र में ऋषि ने हार्दिक और मानसिक सौमनस्य की स्थापना करने का प्रयत्न किया है। ‘सहृदयं सामनस्यमविद्वेषं कृणोमि व:’। सहृदयं, हृदय के भावों की समानता अर्थात् दूसरों के सुख दु:ख को अपना सुख दु:ख समझना। सामनस्य, मन उत्तम भावों और शुभ संस्कारों से पूर्ण हो।अविद्वेषम्, एक दूसरे से द्वेष न करना, परस्पर कलह न करना। मनुष्य का व्यवहार ऐसा हो कि वह किसी से द्वेष न करें। यह मनुष्य व्यवहार का आदर्श हैं। यहां ‘अविद्वेष’ शब्द है, जिसका अर्थ हैं, प्रेमपूर्ण व्यवहार।

सदाचार

वैदिक संस्कृति में सदाचार एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। हम द्वैत को मानने वाले हों अथवा अद्वैतवादी हों, परंतु यदि हम यदि सदाचारी नहीं तो मान्याएं निरर्थक हैं। वेद कहता है -‘ऋतस्य पन्थां न तरन्ति दुष्कृत:’ अर्थात दुराचारी सत्यके मार्ग को पार कर ही नहीं सकते। और जो सत्य के मार्ग पर आरूढ़ हैं, वह ईश्वर को अवश्य ही प्राप्त कर लेगा, क्योंकि ‘ऋतस्य मा प्रदिशो वर्धयन्ति’ तात्पर्य यह है कि ऋत के आदेश-सदाचार के संकेत प्रभु का संवर्धन करने वाले हैं। महर्षि वशिष्ठ ने भी कहा है -‘आचार: परमो धर्म:’ आचार ही मनुष्य का परम धर्म हैं। भारतीय संस्कृति वैदिक आचार-पद्धति का निर्देश देती हुई कहती हैं कि इस दृश्यमान संसार में जो कुछ भी हैं, वह सब ईश्वर-स्वरूप ही है। इसलिये ईशावास्योपनिषद में कहा डया है कि लोभ का परित्याग करते हुए जगत् में विद्यमान समस्त भोग्य पदार्थों का त्यागभाव से ही प्रयोग किया जाना चाहिये।

आध्यात्मिक मूल्य

वेद हमें यह संदेश देता है कि ईश्वर वस्तुत: एक ही है जिसे हम विभिन्न नामों से पूजते हैं – ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति। हम सभी लोग एक ही परमात्मा से उत्पन्न हैं। यहां की सृष्टि के प्रत्येक प्राणी में उसी ईश्वर का वास है। वैदिक संस्कृति आत्मतत्त्व प्रधान संस्कृति है। कहा गया है कि -‘इदं ज्योतिरमृतं मत्येर्षु’। अर्थात यह आत्मा मनुष्यों में अमर ज्योति के रूप में हैं-‘अयमात्मा ब्रह्म’। यह आत्मा ही ब्रह्म हैं-‘आत्मैवैदं सवं’।

मैत्री भाव

वर्तमान समय में मैत्रीभाव की अत्यधिक आवश्यकता है। यदि स्वार्थ से हटकर मानव-कल्याण के निमित्त सभी एक-दूसरे के प्रति मित्रवत् व्यवहार करेंगे तो पारस्परिक मैत्रीभाव विश्व में शांति स्थापि करने के लिए एक सुदृढ़ सेतु का काम करेगा। वेद में यह संदेश दिया गया है कि सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखने के लिए प्रयासरत हो –
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।

मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।।

इसके लिए सद्बुद्धि की कामना की गयी है हम जिन प्राणियों को देख रहे हैं, उनके प्रति सद्भाव रखें और जिन्हें हम नहीं देख रहे हैं, उनके प्रति भी हमारा सद्भाव बना रहे…यांश्च पश्यामि याश्च न तेषु मा सुमतिं कृधि…।
वेद में ब्रह्मांड की शांति एवं प्राणिमात्र के कल्याण की उदात्त भावना प्राप्त होती है -‘द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:। सर्व शान्ति: शान्तिरेव शान्ति। सा मा शान्तिरेधि। इसमें सच्ची शान्ति: की प्रार्थना की गई है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भौतिक विकास और नैतिक पतन का धनात्मक सम्बंध है। इसी कारण मानव आज दु:खों और अशान्ति से ग्रस्त है। चिंता, निराशा, कुंठा इत्यादि समस्याओं के पीछे नैतिक तत्त्वों के प्रति उदासीनता है। निश्चि ही आधुनिक मानव से सत्ता और संपत्ति के मद में लोभ, मोह, अहंकार इत्यादि के कारण अपना विवेक खो दिया है। हमें अपने जीवन में वेद को अपनाकर, सन्मार्ग पर चलकर वैश्विक कल्याण में सहयोग देना चाहिए। इससे न केवल मानव का कल्याण होगा अपितु विश्वबन्धुत्व की अवधारणा का विकास होगा। अत: न केवल वेद बल्कि समस्त संस्कृत-साहित्य का उद्धोष है-

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत।।
                                                                                                        डॉ.पवन शर्मा


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