विशेषकर विगत दो दशकों के दौरान संयुक्त राष्ट्र की विश्वसनीयता को अत्यंत गहरा आघात लगा है। क्योंकि संयुक्त राष्ट्र दुनिया के मुखतलिफ हिस्सों जैसे इजराइल, फिलिस्तीन, अफगानिस्तान, इराक, यूक्रेन, सीरया, लीबिया, यमन आदि अनेक देशों में जारी सशस्त्र संघर्षों को शांतिपूर्ण तौर पर निपटाने में और इनका समुचित निदान करने में एकदम अप्रभावी तथा अक्षम सिद्ध हुआ है। द्वितीय विश्वयुद्ध के तत्पश्चात विश्व पटल पर अमन ओ चैन की स्थापना के लिए 1945 में गठित किए संयुक्त राष्ट्र ने यूं तो अपनी नाकामी की पहली बानगी वस्तुत: 1950 में कोरियाई युद्ध के दौर में ही पेश कर दी थी, जबकि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद 1951 के कोरियाई युद्ध पर एक प्रस्ताव पारित करने के अतिरिक्त कुछ कर नहीं सकी। वह भी इसलिए कि यून में साम्यवादी चीन की सदस्यता के मुद्दे पर उस वक्त सोवियत रशिया ने यून सिक्योरिटी काउंसिल का बॉयकॉट अंजाम दिया हुआ था। 1956 का स्वेज नहर संकट, 1962 का क्यूबा मिसाइल संकट, 1967 का इजरायल और अरब युद्ध, 1979-89 के दौरान सोवियत और अफगान मुहादियों के मध्य दस वर्षीय युद्ध। 1980-88 के दौरान इराक और ईरान के मध्य आठ वर्षीय युद्ध।
1999 में अमेरिकी नेतृत्व नाटो सेना द्वारा यूगोस्लाविया पर आक्रमण। 2001-2021 तक अमेरिकी कयादत में नॉटो सेना और तालिबान के मध्य 20 वर्षीय युद्ध। 2003-11 में अमेरिकी नेतृत्व में नॉटो सेना का आठ वर्षिय इराक युद्ध। 2011 से जारी सीरिया में युद्ध संकट। 2014 से जारी यमन में युद्ध संकट। अत: विश्व पटल पर अंजाम दिए गए प्रमुख सशस्त्र युद्धों का यह उल्लेख स्वयं सिद्ध कर देता है कि संयुक्त राष्ट्र की सर्वोच्च ऐजेंसी सुरक्षा परिषद वैश्विक पटल पर अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने के अपने बुनियादी मकसद में एकदम विफल सिद्ध हो चुकी है। विश्व पटल पर विनाशकारी युद्धों के ज्वलंत प्रश्नों पर सुरक्षा परिषद के सदस्य देश एक दूसरे के विरुद्ध तकरीर करने और प्रस्ताव पारित करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते हैं।
वर्ष 1950 के तत्पश्चात शीतयुद्ध के दौर में अमेरिका और सोवियत संघ के नेतृत्व में दुनिया दो ताकतवर सैन्य खेमों में विभाजित हो गई थी और आगाज हुआ। तीसरा खेमा गुट निरपेक्ष आंदोलन के तौर पर जवाहरलाल नेहरु, अब्दुल गमाल नासिर और ब्रोंज टीटो की कयादत में अस्तित्व में आया। निरंतर 40 वर्षों तक शीतयुद्ध के दौर में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद सोवियत संघ और अमेरिका के वीटो के तहत एकदम नकारा बनी रही। शीत युद्ध के विकट दौर में दुनिया अनेक दफा तृतीय विश्व युद्ध के कगार तक पहुंच गई थी। शीत युद्ध की इस दुनिया को गुट निरपेक्ष आंदोलन के लीडरों ने तृतीय विश्व युद्ध की विभीषिका से बचा लिया।
वर्ष 1990 में सोवियत संघ के पराभव और विघटन के तत्पश्चात विश्व पटल पर अमेरिका एक ध्रुवीय विश्व शक्ति बन गया, जिसने संयुक्त राष्ट्र को दरकिनार करके मनमाने तौर पर यूगोस्लाविया, अफगानिस्तान और इराक पर आक्रमण अंजाम दिए। वर्ष 2010 के पश्चात एक ध्रुवीय विश्व पुन: बहु ध्रुवीय विश्व बना और अमेरिका को सैन्य और आर्थिक चुनौती प्रदान करता हुआ चीन विश्व पटल पर एक महाशक्ति बनकर उभरा। रशिया और चीन की घनिष्ट मित्रता ने पुन: विश्व को विकट शीत युद्ध के दौर में धकेल दिया है। समूचा विश्व फिर से तीसरे विश्व युद्ध की आहट को सुन सकता है। ऐसे विकराल दौर में संयुक्त राष्ट्र को फिर से नई जिंदगी देने की परम आवश्यकता है, ताकि तृतीय विश्व युद्ध की संभावना को सदैव के लिए समाप्त किया जा सके।
संयुक्त राष्ट्र की विश्वसनीयता और प्रभावशीलता को बाकायदा स्थापित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के मौलिक ढांचे में बुनियादी सुधारों को अंजाम देने की अत्यंत आवश्यकता है। विशेषकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की वर्तमान संरचना में बुनियादी तौर पर सुधार किया जाना बेहद जरूरी हो गया है। बुनियादी सुधारों का लक्ष्य 21वीं शताब्दी का संयुक्त राष्ट्र अत्यंत सशक्त होना चाहिए, ताकि संयुक्त राष्ट्र वस्तुत: विश्व की महाशक्तियों का कदापि बंधुआ नहीं रह सके और अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने के अपने बुनियादी मकसद में कामयाब सिद्ध हो सके। संयुक्त राष्ट्र में सुधारों का वास्तविक परीक्षण तो तभी संभव हो सकेगा, जबकि आगामी दौर में दुनिया के देश की युद्धों की विनाशकारी विभीषिका से मुक्ति हो सकेगी। अभी तक संयुक्त राष्ट्र वस्तुत: वर्ष 1945 की भू-राजनीतिक संरचना के मुताबिक ही गठित है, जिसके तहत किसी खूंखार नृशंस आतंकवादी को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने में 10 साल से अधिक वक्त व्यतीत हो जाता है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा के बहुसंख्यक सदस्यों की आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए उचित निर्णय लेने का यह उपयुक्त वक्त आ गया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों में अकेला फ्रांस ऐसा राष्ट्र है, जो सुरक्षा परिषद का समुचित तौर पर विस्तार अंजाम देने का प्रश्न पर खुलकर बोला है और विस्तार प्रदान करने का प्रबल समर्थन किया है। संयुक्त राष्ट्र को बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था का प्रतीक होने के कारण वैश्विक संकटों से निपटने की सबसे अधिक आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में पांच स्थायी सदस्यों द्वारा वीटो शक्तियों का उपयोग करते हुए सशस्त्र संघर्षों से पीड़ित देशों द्वारा भुगते जा रहे विनाशकारी परिणामों की कदापि परवाह नहीं की गई। सुरक्षा परिषद में वीटो का बारम्बार इस्तेमाल स्थाई सदस्यों द्वारा प्राय: अपने राजनीतिक हितों को केंद्र बुंदु में रखकर किया जाता रहा है। पांच स्थायी सदस्यीय और दस अस्थाई सदस्यीय सुरक्षा परिषद की संरचना को और अधिक लोकतांत्रिक और समस्त विश्व का प्रतिनिधित्व करने वाला बनाया जाना चाहिए। भारत, जर्मनी, ब्राजील और जापान ने मिलकर जी -4 नामक समूह बनाया। ये चार देश संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए एक-दूसरे का समर्थन करते रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक अस्थाई सदस्य होने के बावजूद भारत ने एक नए विश्व की संरचना करने और पूर्ण निरस्त्रीकरण करने की दिशा में एक बहुपक्षीय वैश्विक एजेंडा विकसित किया है और इसके लिए काफी देशों का राजनीतिक समर्थन भी जुटा लिया है। फ्रांस ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की संरचना में बदलाव करने की वकालत भी की है। फ्रांस ने सुरक्षा परिषद में बुनियादी बदलाव की आवश्यकता पर जोर देते कहा कि मौजूदा समय में भारत, जर्मनी, ब्राजील और जापान जैसे राष्ट्र स्थायी सदस्य बनने के हकदार हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा केवल गैर-बाध्यकारी सिफारिशें कर सकती है, संयुक्त राष्ट्र महासभा की शक्तियों में समुचित तौर पर बढोतरी की जानी चाहिए, जो महासभा को सुरक्षा परिषद की सलाहकार महासभा से कहीं आगे बढ़कर सुरक्षा परिषद पर निर्णायक तौर पर प्रभावकारी स्थापित कर सके।