Thursday, March 28, 2024
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जब ब्रिटिश संसद से होकर दुनिया भर तक पहुंचा मेरठ का पहला स्वतंत्रता संग्राम

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  • मार्क कॉर्ल्स में उद्बोधन में कहा कि भारत में जो कुछ हो रहा है वह एक राष्ट्रीय संग्राम है, जो आम भारतीय जनता ने किया

जनवाणी संवाददाता |

मेरठ: ब्रिटिश संसद में तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष डिजराइली ने कहा था कि यह चंद लोगों या राजा महाराजाओं के षड्यंत्र की मामूली घटना नहीं है। बल्कि यह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ राष्ट्रीय संग्राम है। यह राष्ट्रीय विद्रोह है जो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ भारतीयों की ओर से किया गया है।

बताते चलें कि डिजराइली बाद में ब्रिटिश के प्रधानमंत्री बने थे। यही बात मार्क कॉर्ल्स में अपने उद्बोधन में कहीं कि भारत में जो कुछ हो रहा है वह एक राष्ट्रीय संग्राम है, जो आम भारतीय जनता ने किया है। उन्होंने अपनी किताब में भी इस बात का उल्लेख किया है। यही से मेरठ की क्रांति को अंतरराष्ट्रीय पटल पर प्रसिद्धि मिली।

इतिहासकार डा. केडी शर्मा बताते हैं कि 10 मई 1857 घटना आकस्मिक नहीं बल्कि इसकी योजना सालों से तैयार की जा रही थी। गहनता से देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि मेरठ की क्रांति का अंतरराष्ट्रीय लिंक भी रहा है। क्रांतिकारी अजीमुल्ला ने 1854 से लेकर 1856 तक यूरोप का दौरा किया था। इस दौरान उन्होंने इंग्लैंड के तत्कालीन दुश्मन देशों से संपर्क साधा। मकसद अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में सहयोग मांगना था।

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यह बात दस्तावेजों में दर्ज है कि रूस और ईरान ने समर्थन देने का भरोसा दिया था। इसके लिए शर्त यह रखी गई थी कि दिल्ली की गद्दी पर दोबारा बहादुर शाह जफर को बादशाह बनाकर बैठाया जाए। 31 मई, 1857 को फौजी विद्रोह का दिन तय किया गया था। यह संदेश गुप्त रूप से फौजियों और उन लोगों को पास कर दिया गया, जो जन सामान्य की अगुवाई लिए दम भर रहे थे। लेकिन बैरकपुर में 34वीं पैदल सेना के सिपाही मंगल पांडे अपने आप पर अंकुश नहीं रख पाए।

उन्होंने वहां दो अंग्रेज सैनिकों को गोलियों से भून डाला। कोर्ट मार्शल के बाद उन्हें आठ अप्रैल 1857 को फांसी दे दी गई। उनकी शहादत के बाद अंग्रेजों के खिलाफ लोगों में गुस्सा बढ़ गया। इसी दौरान अंग्रेजों द्वारा फौजियों को दिए गए चर्बी युक्त कारतूसों ने इस आग में घी का काम किया। मेरठ में भारतीय सैनिकों के चर्बी वाले कारतूस चलाने से इंकार, उनको सजा दिए जाने, बाद में भारतीय सैनिकों द्वारा बगावत करके जेल तोड़ने और अपने साथियों को छुड़ाकर दिल्ली कूच करने की घटनाएं हुर्इं।

मेरठ से शुरू हुई क्रांति पंजाब, राजस्थान, बिहार, आसाम, तमिलनाडु व केरल में फैलती गई। हालांकि उस समय की ब्रिटिश हुकूमत ने यह जाहिर करने की कोशिश की, कि मेरठ और उसके बाद होने वाली घटनाएं केवल कुछ राजाओं का षड्यंत्र है, लेकिन ब्रिटिश संसद में उस समय के नेता विपक्ष डिजराइली ने कहा कि ऐसा सोचना एक भारी भूल है।

यह भारत की आम जनता का ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध आंदोलन है, जनक्रांति है। लगभग ऐसे ही शब्द कार्ल मार्क्स ने भी कहे थे। इन दो बड़े नेताओं के बयान के चलते मेरठ से निकली क्रांति की चिंगारी अंतरराष्ट्रीय मंच पर चर्चा का विषय बन गई थी।

दिल्ली कूच करने वाले सैनिकों के मददगार बने गांव के लोग

प्लानिंग के तहत उसी दिन रात के समय गांवों के रास्ते फौजी दिल्ली की ओर कूच कर गए। जिस-जिस गांव से होकर वह गए, गांव के लोगों ने उनके खाने आदि की व्यवस्था की। गांव के युवक अपनी जान की परवाह न करते हुए फौजियों के साथ दिल्ली के लिए चल दिए। गाजियाबाद जिले के मुरादनगर इलाके में गांव कुम्हैड़ा, खिंदौड़ा, सुहाना, भनेड़ा और गयासपुर, सीकरी खुर्द, धौलाना, बागपत के बिजरौल, पांचली, जानी बुजुर्ग, भामौरी और अन्य कई रास्ते से फौजी दिल्ली पहुंचे।

लिहाजा विद्रोही फौजी 11 मई की सुबह दिल्ली पहुंच गए। वहां वह लाल किले के मैदान में इकट्ठा हुए। उन्हें घेरने के लिए कर्नल रिप्ले एक पलटन को लेकर वहां पहुंचा, लेकिन उस पलटन में शामिल सैनिकों ने मेरठ गए बहादुर सैनिकों को सलामी देने के बाद उन्हें अपने गले लगा लिया।

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इसी बीच एक सैनिक ने कर्नल रिप्ले के सीने में गोली दाग दी और वह वहीं गिर पड़ा। दिल्ली में कई फिरंगी अफसरों को मौत के घाट उतार दिया गया। दिल्ली में 11 से 16 मई तक पांच दिन जमकर मारकाट मची। इस दौरान फौजियों ने बहादुर शाह जफर को अपना नेता घोषित कर दिया। हालांकि अंग्रेजों ने इस पर जल्दी ही काबू पाते हुए पहली क्रांति को विफल कर दिया था।

दिल्ली हारने के बाद भी ढाई साल चला विद्रोह

1857 की पहली क्रांति के विफल होने का प्रमुख कारण भितरघात रहा। कई घरानों और रजवाड़ों ने गद्दारी की। दिल्ली हारने के ढाई साल बाद तक भी आजादी का आंदोलन करीब ढाई साल तक जिंदा रहा। किसान, मजदूर, आदिवासी, कास्तकारों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उत्तर भारत, मध्य भारत के राज्यों में क्रांति का व्यापक असर रहा था।

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डॉ. केके शर्मा अपने अध्ययन और शोध के हवाले से कहते हैं कि यह सिर्फ फौजियों का विद्रोह ही नहीं था, बल्कि फिरंगियों के खिलाफ जनसामान्य की क्रांति भी थी। यह अंग्रेजों के साथ-साथ उनके पिट्ठू जमींदारों और नवाबों के शोषण और अत्याचारों के खिलाफ उपजी क्रांति थी। हालांंकि ऐसे गांवों को अंग्रेजों ने बागी करार देकर हजारों नौजवानों को सरेआम फांसी पर लटका दिया था।

गोद लेने के अधिकार से वंचित करने का आदेश भी बना आत्मघाती

तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड डलहोजी ने भारतीय राजाओं (हिन्दू-मुस्लिम दोनों) के गोद लेने के अधिकार को अमान्य करार देते हुए उनके राज्य और रजवाड़ों को कम्पनी के आधिपत्य में लेना प्रारम्भ कर दिया, जो नि:संतान थे। कम्पनी के इस हड़पकारी सिद्धांत से भारतीय राजे-महाराजों में न केवल हड़कम्प मच गया बल्कि उन्होंने कम्पनी के इस कृत्य को उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप के रूप में लिया।

1853 में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने भारत को लंबे समय तक कम्पनी के आधिपत्य में रखने के लिए एक कमीशन बनाया जो ब्रिटिश पार्लियामेंट्री कमीशन के नाम से जाना जाता है। इसकी अनुशंसाओं में भी भारतीयों के दैनिक जीवन में हस्तक्षेप करने वाली बहुत सी बातें शामिल की गई थीं।

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