जो बूढ़े हैं उनके पीछे दुनिया होती है, उनके लिए अतीत होता है, जो बीत गया वही होता है। बच्चे भविष्य की कल्पना और कामना करते हैं, बूढ़े अतीत की चिंता और विचार करते हैं। जवान के लिए न तो भविष्य होता है और न अतीत होता है, उसका केवल वर्तमान होता है। यदि आप युवक हैं तो आप केवल वर्तमान में जीने की सामर्थ्य से ही युवक होते हैं। कितने लोग हैं जो मौजूद क्षण में जीते हों ? जो मौजूद क्षण में जीता है, उसे मैं युवा कहता हूं। जो मौजूद क्षण में जीने की सामर्थ्य को उपलब्ध हो जाता है, उसका मस्तिष्क युवा है; बूढ़ा नहीं है। लेकिन अक्सर यह होता है कि लोग बच्चे से सीधे बूढ़े हो जाते हैं, युवा बहुत कम लोग हो पाते हैं। जरूरी नहीं है युवक होना, आवश्यक नहीं है कि आप युवा अवस्था से गुजरें ही, यह अनिवार्य बात नहीं है। और बड़े मजे की बात है, जो एक बार युवा होता है वह बूढ़ा नहीं होता क्योंकि जिसे युवक होने का राज और सीक्रेट पता चल जाता है उसे बूढ़े होने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। शरीर बूढ़ा होगा, आयेगा और जायेगा लेकिन चित्त एक सतत यौवन में, सतत जवान, सतेज और युवक बना रह सकता है।
तो पहली बात यह कहूं कि केवल इस कारण अपने को युवक मत समझ लेना कि उम्र बूढ़े और बच्चे के बीच में है। इससे कोई युवा नहीं होता। युवा होना बड़ी गहरी बात है। उसके संबंध में कुछ थोड़ी-सी बात कहूंगा। यह भी कहा कि आप विद्यार्थी हैं, यह भी मुझे नहीं दिखायी पड़ता। अगर दुनिया में विद्यार्थी हों तो ज्ञान बहुत बढ़ जाना चाहिए, लेकिन विद्यार्थी तो बढ़ते जाते हैं, ज्ञान तो बढ़ता नहीं। बल्कि अज्ञान घना होता चला जाता है। विद्यार्थी तो बढ़ते चले जाते हैं, विद्यापीठ बढ़ते चले जाते हैं, लेकिन दुनिया रोज बुरी से बुरी होती चली जाती है।
अगर ज्ञान विकसित होता तो परिणाम में दुनिया बेहतर होना चाहिए। अगर मुझे कोई किसी बगिया में ले जायें और कहें कि हमने खूब फूल लगाये हैं, फूल के पौधे बढ़ते चले जाते हैं, फूल लगते चले जाते हैं और बगिया में बदबू बढ़ती चली जाये, गंदगी बढ़ती चली जाये, सुगंध की जगह दुर्गंध बढ़ने लगे तो हैरानी होगी। और हमें पूछना पड़ेगा ये फूल और ये पौधे, ये किस भांति बढ़ रहे हैं ? यहां दुर्गंध तो बढ़ती चली जाती है।
विद्यापीठ बढ़ते हैं, पुस्तकें बढ़ती हैं, मैं सुनता हूं कि कोई पांच हजार ग्रंथ प्रति सप्ताह छप जाते हैं। पांच हजार ग्रंथ जिस दुनिया में प्रति सप्ताह बढ़ते हों, रोज-रोज विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती चली जाती हो, लेकिन वह दुनिया तो नीचे गिरती चली जाती हो। वहां के युद्ध और घातक से घातक हुए चले जाते हैं, वहां तो घृणा और व्यापक हुई जाती है, ईर्ष्या और जलन तीव्र हुई जाती है तो जरूर कोई बुनियाद में खराबी है। और इस तरह खराबी का जिम्मा और किसी पर इतना नहीं जितना उन पर, जिनका शिक्षा से संबंध है चाहे वे शिक्षक हों, विद्यार्थी हों।
दुनिया ने इधर पांच हजार वर्षों में बहुत-सी क्रांतियां करके देख लीं। उसने आर्थिक क्रांतियां की हैं और राजनीतिक क्रांतियां की हैं, लेकिन अब तक शिक्षा में कोई बुनियादी क्रांति नहीं हुई। और यह विचारणीय हो गया कि शिक्षा में कोई बुनियादी क्रांति हुए बिना मनुष्य की संस्कृति में कोई क्रांति नहीं हो सकती है ? क्योंकि शिक्षा आपके मस्तिष्क के ढांचे को निर्धारित कर देती है और फिर उस ढांचे से छूटना करीब-करीब कठिन और असंभव हो जाता है। पंद्रह या बीस साल का एक युवक शिक्षा लेगा, पंद्रह बीस साल में उसके मस्तिष्क का ढांचा निर्णीत हो जायेगा। फिर जीवन भर उसी ढांचे से छूटना बहुत कठिन है। जिसमें साहस है, जिसमें थोड़ी हिम्मत है वे छूट सकते हैं; लेकिन सामान्यता छूट न सकेंगे। यह ढांचा कहीं गलत तो नहीं है, जो शिक्षा हमें देती है? निश्चित ही यह ढांचा गलत होना चाहिए क्योंकि परिणाम गलत हैं। और परिणाम ही परीक्षा देते हैं, परिणाम ही बताते हैं कि हम जो कर रहे हैं वह ठीक है या गलत है।
ये बच्चे जो शिक्षित होकर निकलते हैं, ये विकृत मनुष्य होकर निकलते हैं। ऐसा न सोचें कि इसका अर्थ है कि मैं आपसे कहता हूं कि पीछे पुराने दिनों में जो शिक्षा थी, वह अच्छी थी; उस पर लौट आना चाहिए। ये सब नासमझी की बातें है। पीछे लौटना दुनिया में कभी नहीं होता। और पीछे भी कोई बुनियादी रूप से ठीक शिक्षा नहीं है। अन्यथा यह गलत शिक्षा पैदा ही नहीं होती। क्योंकि ठीक से गलत कभी पैदा नहीं होता।
यह हमारी पूरी की पूरी शिक्षा किस केन्द्र पर घूम रही है, वह केन्द्र ही गलत है। उस केन्द्र के कारण सारी तकलीफ पैदा होती है। वह केंद्र है, एम्बिशन। हमारी यह सारी शिक्षा एम्बिशन के केंद्र पर घूमती है, महत्वाकांक्षा के केंद्र पर घूमती है। आपको क्या सिखाया जाता है ? हमको क्या सिखाया जाता है ? हमें सिखायी जाती है महत्त्वकांक्षा। हमें सिखाई जाती है एक दौड़, कि आगे हो जाओ; दूसरों से आगे हो जाओ। छोटा-सा बच्चा, के.जी. में पढ़ता है, उसे भी, एक छोटे से बच्चे को भी हम एंग्जाइटी पैदा कर देते हैं-प्रथम होने की एंग्जाइटी। इससे बड़ी कोई एंग्जायटी नहीं है, इससे बड़ी कोई चिंता नहीं है दुनिया में। दुनिया में एक ही चिंता है कि मैं दूसरे से आगे हो जाऊं, दूसरों को कैसे पीछे छोड़ दूं !
आखिर में वे क्या पाते हैं? आखिर में वे कहीं नहीं पहुंचते क्योंकि वे कहीं भी पहुंच जायें, जहां भी पहुंच जायेंगे, हमेशा उससे आगे उन्हें दिखायी पड़ेंगे। और जब तक उनके कोई आगे है तब तक उन्हें शांति नहीं मिल सकती। और इस दुनिया में अब तक कोई ऐसा आदमी नहीं हुआ जिसे ऐसा अनुभव हुआ हो कि मैं सबके आगे आ गया हूं क्योंकि कुछ लोग हमेशा उससे आगे हैं। दुनिया में अब तक कोई आदमी आगे नहीं आ सका लेकिन फिर भी हम बच्चों को सिखा रहे हैं कि तुम आगे आ जाओ। हम उनको पागलपन सिखा रहे हैं। -ओशो