किशोरावस्था की दिशा में बढ़ते बच्चों में हार्मोनल परिवर्तन की आयु 12 वर्ष के आसपास शुरू होती थी, तब किन्हीं बच्चों में ‘एनिमल इन्सटिंकट्स’ प्रबल हो जाया करते थे। यह बच्चे गुस्सैल, आक्रामक, चिड़चिड़े, आक्रोश से भरे और आत्मनियंत्रण में कमजोर हुआ होते थे। मगर अभी जो मनोवैज्ञानिकों के निष्कर्ष हैं, उसके अनुसार अब यह झंझावात की अवस्था डेढ़-दो वर्ष पहले ही आने लगी है। इसका कारण है-प्रकृति से कटा कृत्रिम जीवन, भौतिकवाद से उपजी जीवनशैली, रेडीमेड खानपान, एकल परिवारों के दौर में बच्चों में बढ़ता अकेलापन और सूचना विस्फोट। यह अपना अधिकतर समय टीवी के आगे या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बिता रहे हैं। निम्नवर्ग के बच्चों के परिवार में स्मार्टफोन भले ही न हो, किंतु यह भी अपने मध्यवर्ग के मित्रों के बीच मोबाइल में उपलब्ध वयस्क कंटेन्ट या क्राइम थ्रिलर का मजा लेने में पीछे नहीं रहते हैं।
फिल्म, टीवी के क्राइम पर आधारित धारावाहिक और वीडियो गेम की मारधाड़ व खूनखराबा को बार-बार देखने वाला बच्चा हिंसा के प्रति संवेदनशून्य तो ही जाता है, हिंसापूर्ण कृत्य उसके लिए आनन्द की सामग्री बन जाते हैं।
अभी थोड़े दिन पहले एक खबर आई थी कि दिल्ली के एक स्कूल में कुछ बच्चों ने एक शिक्षक को चाकू मार के घायल कर दिया था। क्योंकि शिक्षक ने उनको यूनिफार्म के लिए डांटा था। यह खबरें सोचने को मजबूर करती हैं कि बच्चा जोकि मूलतया कोमल भावनाओं से भरा होना चाहिए, उसके अंदर इतनी हिंसा, गुस्सा, रक्तपात की प्रवृति और अनियंत्रित उत्तेजना कहां से आ गई है।
मनोविज्ञानवेत्ताओं की धारणाओं से इतर यह सवाल हमें अपने आसपास देखने-समझने को मजबूर करते हैं, जब हम गंभीरता से पूरे परिवेश का अवलोकन करते हैं तो बच्चे का पूरा माहौल ही संवेदनाओं से कटा हुआ मिलता है। शिक्षा यांत्रिक हो चुकी है, यह बच्चों को तेज दिमाग वाला रोबोट बनाने में लगी है।
अध्यापक के सामने भारी-भरकम पाठ्यक्रम पूरा करने की जिम्मेदारी होती है और विद्यार्थी के सामने इसे याद करने की चुनौती! छात्र-अध्यापक के बीच होने वाले अनौपचारिक संवाद समाप्तप्राय हैं। पारिवारिक परिवेश में आए बदलाव भी बच्चे पर गलत असर डाल रहे हैं।
पहले के समय में बच्चे अपना अधिकतर समय परिवार के सदस्यों के बीच बिताते थे। माता-पिता, दादा-दादी से उनका सघन संवाद हुआ करता था। उसे भरपूर प्यार मिलता था तो गलती पर डांट भी! निरंतर छोटे होते परिवार, समाज की सामूहिकता का लोप, अर्थ की प्रधानता, अपने तक सीमित होकर जीने की प्रवृत्ति, मां-बाप दोनों का वर्किंग होना जैसे कई कारण बच्चों के भटकाव के जिम्मेदार हैं।
आज कहा जाने लगा है कि दुनिया तर्क, विज्ञान, सूचना और वास्तविकता पर टिकी है। यथार्थ के नाम पर कल्पना किस्से-कहानियों और कविता से भी खारिज कर दी गई है। कल्पनाविहीन सृजनात्मकता की दुनिया में नैसर्गिकता का अभाव है।
परिणामत: हर दिन ऐसा कुछ घटित हो रहा है, जो हमें बेचैन करता हैं। बचपन जीवन की सबसे चुहलभरी अवस्था हुआ करती थी। खाना-पीना, खेलकूद, बेफिक्री, हल्के-फुल्के झगड़े, फिर सुलह, दोस्तों संग मस्ती-यह होता था बचपन…! मगर अब लगता है बचपन आता ही नहीं।
बच्चों की मासूमियत कब गंभीरता का स्थान ग्रहण कर लेती है-पता ही नहीं चलता। लगता है, आज की पीढ़ी के बच्चे अपने बचपन को जिए बिना परिपक्व होते जा रहे हैं। तकनीक और मीडिया ने समय से पहले हस्तक्षेप करके उनका बचपन छीन लिया है। आज की पीढ़ी का बचपन एक न दिखने वाली दौड़ में शामिल हो जाता है।
कम उम्र से पढ़ाई का दबाव, आगे रहने की चुनौती, हॉबी क्लासेज जैसे उपक्रमों के बीच बालजीवन की स्वभाविकता ही समाप्तप्राय हो गई है। पहले निम्नवर्ग के बच्चे मध्य और निम्न मध्यवर्ग के बच्चों को रोलमाडल के तौर पर देखकर अपनी दिशा का निर्धारण करते थे। अभी सब एक ही धारा में समाहित हो गए हैं।
सबको एक बात समझाई जाने लगी है कि अभी पढ़ाई-लिखाई करो, दोस्ती और खेलने के लिए तो सारी उम्र पड़ी है। जबकि बचपन की उमंगों भरी हरकतें ही एक मजबूत व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं।
मजबूत व्यक्तित्व आक्रामक, अस्थिर, गुस्सैल, हिंसक और अपराधी नहीं होता। बल्कि वह सृजनशील होता है। सचमुच की सृजनात्मकता कल्पना की देन होती है।
निश्चित रूप से कल्पनाशीलता प्रकृति की गोद में पनपती है। मगर जरूरी नहीं कि इसके लिए आप हिल स्टेशन जाएं।
मोहल्ले के पार्क में बच्चों के साथ थोड़ा समय बिताना, उनके मन की बात सुनकर उसपर अपनी सकारात्मक राय देकर भी आप बच्चे के तनाव को काम कर सकते हैं। बाल मनोवैज्ञानिकों का अभिमत है कि अभिभावक अगर बच्चों की छोटी-बड़ी बातों पर गौर करते हैं, तो बच्चों का उग्र और शरारती स्वभाव शांत होगा।
अकेलेपन से त्रस्त, अपने आप में गुमशुम बच्चा निराशा और कुंठा से ग्रस्त होता है। यह बच्चे श्रेष्ठता की ग्रन्थि से पीड़ित और अनुकूलन में अत्यंत कमजोर होते हैं। इनके मस्तिष्क में एक नासमझी का कुहासा भर होता है, जो विवेक सम्मत निर्णय लेने से इतर तात्कालिक संवेग के स्तर पर निर्णय ले बैठते हैं।
परिणामत: खूनखराबा की घटनाएं सामने आती हैं। निश्चय ही समय रहते हमें सचेत होना होगा। अभी बहुत देर नहीं हुई है। बचपन को कृत्रिम बेड़ियों से मुक्त करके सहज भाव से जीने दें, जिसमें पढ़ाई के साथ खेल और यारी-दोस्ती की मस्ती हो, साथ ही प्रेम भरे स्नेहिल आलिंगन और चुंबन भी! बस इतने से ही बच्चों के मन में छाया विध्वंस का कुहासा साफ होने लगेगा।
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