संजीव कुमार आलोक |
एक समय रहा है जब दर्शक फिल्में देखते तो उसकी कहानी उन्हें अपने बीच की कहानी लगती थी। जहां कुछ समय के लिए वह खुद को भूल कहानी के बीच पाते, और जब वह अपने-अपने घरों को लौटते तो सिनेमा की ढेर सारी खट्टी-मिट्ठी यादें और फिल्म के गीत गुनगुनाते मिल जाते। उस वक्त सिनेमा दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ-साथ समाज में एक नई सीख भी दे जाती। लेकिन अब और अब की फिल्मों में कई बदलाव आए हैं।
वहीं सिनेमाघरों की जगह अब ओटीटी ने अपने पैर पसार लिए हैं। जिस कारण विगत कुछ वर्षों से सिनेमाघरों में दर्शक नजर नहीं आ रहे हैं तो कई शहरों के सिनेमाघर बंद भी हो चुके हैं। जबकि आज भी अनगिनत हिंदी, भोजपुरी और अन्य भाषा की फिल्में बन रही है लेकिन पहली जैसी उत्साह दर्शकों में देखने को नहीं मिल रही है। आखिर फिल्मकारों से कहां कमी रह जाती है कि वह दर्शकों को सिनेमा से जोड़ नहीं पा रहे हैं। फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों का कहना है कि-
फिल्मों में साहित्य की कमी : प्रमोद कुमार (कथाकार व गीतकार)
स्मार्ट फोन के आ जाने से लोगों का मनोरंजन उसी से हो जा रहा है, इसलिए वे अब टिकट कटा कर और सिनेमाघरों में जाकर सिनेमा देखने की जहमत नहीं उठाना चाहते। लेकिन बड़े परदे पर सिनेमा देखने का मजा कुछ और होता है। अतः यह संभव है कि बाद में फिर लोग सिनेमाघरों की तरफ लौटें।
सिनेमाघर में टिकट का दाम बढ़ना भी एक इशू है। पहले जो फिल्में होती थी उसकी कहानी या संवाद लोगों के भीतर तक असर पैदा करते थे। आज फिल्म में कोई साहित्य का दर्शन लगभग नहीं होता। सिर्फ स्टंट, जुमनेबाजी, नई-नई तकनीक, फूहद संवाद से युक्त और बाजार को ध्यान में रखकर फिल्में बनायी जाती है। ऐसी फिल्मों को लोग ज्यादा दिन झेल नहीं पाते। फिर उनसे लोग भागने लगते हैं। इतिहास हमेशा उन्हीं फिल्मों को स्वीकार करता है, जो साहित्य के स्तर पर ऊंचा होता है।
आज की फिल्में कला की वस्तु न होकर सिर्फ बाजार में बिकने वाली एक सस्ताऊ किस्म की प्रोडक्ट बन चुकी है। इसलिए आज की फिल्मों से लोगों का मोहभंग होना स्वाभाविक है।
संगीत का गिरता स्तर : देवी (गायिका व अभिनेत्री)
पुरानी फिल्मों का संगीत आज भी सदाबहार है। लोग उनको भुला नहीं पाते। आज भी वे गाने सुने जाते हैं। पुरानी फिल्मों का सबसे बड़ा आकर्षण उसका संगीत हुआ करता था। उस समय के गीतकार, संगीतकार और गायक-गायिकाएं बेजोड़ थे। वे लगन से, मेहनत से और अपनी प्रतिभा झोंक कर काम करते थे। यही कारण है कि पचास, साठ और सत्तर की दशक के फिल्म संगीत को सुनहरा दौर माना जाता है।
आज के संगीत को हम पुराना वाला दर्जा नहीं दे सकते। आज संगीत की दशा और दिशा बाजार तय करती है। दोयम दर्जे के संगीत के प्रोमोशन मिलता है। शायद यही कारण है कि लोगों के मन में फिल्मों का आकर्षण नहीं रहा।
मैंने सुना है कि पुरानी फिल्में अपनी सुमधुर संगीत के बल पर सालों-साल तक ही सिनेमाघर में चलती रहती थी। आज तो सिनेमाघरों में तीन दिन भी फिल्मों का चलना मुश्किल हो रहा है। आज संगीत में मधुरता लाने की जरुरत है।
पैसा वसूल सिनेमा चाहिए: पूनम दुबे (नायिका)
आजकल के दर्शक प्रैक्टिकल हो गये हैं उन्हें आप इमोशनल बेवकूफ नहीं बना सकते। उन्हें टीजर या ट्रेलर देखकर ही समझ आ जाता है कि फिल्म कैसी है। अब ठाकुर और गरीब वाला ड्रामा उन्हें नहीं देखना, ना ही बिना सिर पैर वाली स्टोरी। क्योंकि वह कीमती समय और पैसा खर्च करके जाते हैं तो उनको भी पैसा वसूल सिनेमा चाहिए। और जब से ओटीटी और टीवी पर आने लगी है तो सिनेमाघर में फ्लाॅप होना लाजिमी है। कंटेंट अच्छा होगा तो आज भी फिल्म सुपर हिट होगी।
ओटीटी पर फिल्में उपलब्ध : रुपेश कुमार (फिल्म निर्माता)
ऐसी बात नहीं है कि आज अच्छी फिल्में नहीं बनती। दरअसल देखा जाए तो आज दर्शकों के पास समय का अभाव है। जिस कारण वह सिनेमाघरों तक जाने के बजाय स्मार्टफोन पर जब भी वक्त मिलता है तो वह अपना मनोरंजन कर लेते हैं। वैसे भी ओटीटी के आने के बाद सिनेमाघर तक दर्शकों को जाने की जरुरत नहीं पड़ती है, क्योंकि नई-नई फिल्में ओटीटी पर उपलब्ध होती है। जिस कारण सिनेमाघरों में दर्शक नजर नहीं आते है।
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