Tuesday, January 14, 2025
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हिंदी पत्रकारिता से दूर होते साहित्यकार

Samvad 52


krishna pratap singhहिंदी की पत्रकारिता और उसके साहित्य का सम्बन्ध इतना अन्योन्याश्रित रहा है कि पिछले दिनों एक प्रतिष्ठित सम्पादक को सार्वजनिक रूप से यह स्वीकारने में संकोच नहीं हुआ कि इस पत्रकारिता के पास तोप से लड़ने का हौसला साहित्य की मार्फत ही आया। तब, जब गोरी सत्ता के एक के बाद एक क्रूरता की सारी हदें पार करती जाने के दौर में मशहूर उर्दू साहित्यकार अकबर इलाहाबादी ने लिखा-‘खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, गर तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।’ यों, अखबारों की शक्ति में ऐसा विश्वास जताने वाले अकबर इलाहाबादी अकेली शख्सियत नहीं हैं। नेपोलियन बोनापार्ट ने भी कहा ही है कि चार विरोधी अखबारों की मारक क्षमता के आगे हजारों बंदूकों की ताकत बेकार हो जाती है। इसी तरह मैथ्यू आर्नल्ड की मानें तो पत्रकारिता जल्दी में लिखा गया साहित्य ही है, क्योंकि जैसे भावों का भरोसा साहित्य हुआ करता है, तथ्यों का भरोसा पत्रकारिता हुआ करती है।

एक वक्त हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं के प्राय: सारे संपादक या तो साहित्यकार हुआ करते थे या हिन्दी भाषा के बडे़Þ ज्ञाता। हां, आजादी की लड़ाई के दौरान जनता तक अपनी आवाज पहुंचाने और खुद उसकी आवाज सुन पाने के लिए महात्मा गांधी समेत कई जननेताओं ने भी पत्रकारिता व संपादनकर्म को अपना हथियार बनाया। लेकिन वह साहित्य व पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतिभाओं की निर्बाध व स्वाभाविक आवाजाही से सर्वथा अलग मामला था।

इस आवाजाही की मिसालों पर जाएं तो जिन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (9 सितंबर 1850-6 जनवरी 1885) को आधुनिक हिन्दी साहित्य का पितामह व भारतीय नवजागरण का अग्रदूत माना जाता है, उन्होंने अपने बहुआयामी कृतित्व से हिन्दी के साहित्य के साथ पत्रकारिता को भी भरपूर समृद्ध किया-‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’, ‘कविवचनसुधा’ और ‘बाल बोधिनी’ जैसी पत्रिकाओं का सम्पादन किया।

इसी तरह महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘सरस्वती’ के संपादक बने तो उन्होंने अपनी जी तोड़ मेहनत से उसे तत्कालीन हिन्दी पत्रकारिता का सबसे सम्मानित नाम बना दिया। उनका यह काम इस मायने में भी बहुत महत्वपूर्ण था कि तब भाषा के तौर पर हिन्दी का विकास भी बाल्यावस्था में ही था।

बहरहाल, उनके साथ सहायक सम्पादक के रूप में काम कर चुके गणेशशंकर विद्यार्थी (26 अक्टूबर, 1890-25 मार्च, 1931) ने, जिनकी साहित्यिक प्रतिभा को हम इस रूप में पहचान सकते हैं कि उन्होंने जेल में रहते हुए विक्टर ह्यूगो के दो उपन्यासों-‘ला मिजरेबिल्स’ और ‘नाइंटी थ्री’ का हिन्दी में अनुवाद कर डाला था, 1913 में संस्थापक संपादक के रूप में कानपुर से ‘प्रताप’ का प्रकाशन शुरू किया, तो जेल व जुर्मानों समेत गोरी सत्ता का भरपूर कोप झेलकर भी विचलित नहीं ही हुए।

माखनलाल चतुर्वेदी (4 अप्रैल 1889-30 जनवरी, 1968) भी, जिनके नाम पर भोपाल में नेशनल यूनिवर्सिटी आॅफ तर्नलिज्म एंड कम्युनिकेशन है, एक साथ साहित्यकार और पत्रकार थे। प्रभा व कर्मवीर जैसे पत्रों का संपादन करते हुए उन्होंने नई पीढ़ी से गुलामी की जंजीरें तोड़ डालने का आह्वान किया तो ब्रिटिश साम्राज्य के भरपूर कोपभाजन बने थे।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (23 सितम्बर, 1908- 24 अप्रैल, 1974) भी, जिन्होंने स्वतन्त्रता के पूर्व विद्रोही कवि और स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रकवि के तौर पर ख्याति पाई, कवि ही नहीं, पत्रकार भी थेऔर निर्भीक पत्रकारिता के कारण कई बार उनकी नौकरी जाते-जाते बची थी। देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के साक्षात्कार को लेकर उनसे जुड़ा विवाद भी अरसे तक चर्चित रहा था।

हिन्दी की स्वच्छन्दतावादी कविता धारा का प्रतिनिधि स्वर माने जाने वाले बालकृष्ण शर्मा नवीन (1897-1960), जिन्हें उनकी लेखनी से निकले ‘कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए’ जैसे विप्लवगान के लिए जाना जाता है, जीवन भर हिन्दी कविता के साथ पत्रकारिता के संसार से जुडे रहे।

बीती शताब्दी के सातवें दशक में हिन्दी की पहली, प्रमुख और महत्वाकांक्षी समाचार पत्रिका ‘दिनमान’ का प्रकाशन आरंभ हुआ, तो उसके संस्थापक सम्पादक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ (7 मार्च, 1911-4 अप्रैल, 1987) भी साहित्य के देश के ही नागरिक थे।

उस समय इस पत्रिका के प्राय: सारे महत्वपूर्ण पदों पर हिन्दी साहित्यकारों का ही कब्जा था। अज्ञेय के बाद सम्पादक बने रघुवीर सहाय भी साहित्यकार ही थे, जबकि बाद में ‘कोसल में विचारों की कमी है’ वाली काव्यपंक्ति से प्रसिद्ध हुए कवि श्रीकांत वर्मा विशेष संवाददाता और ‘कुआनो का कवि’ कहलाने वाले सर्वेश्वरदयाल सक्सेना उपमुख्य सम्पादक हुआ करते थे।

वहां इनके अलावा प्रयाग शुक्ल, विनोद भारद्वाज और मनोहर श्याम जोशी भी थे। उसी दौर में धर्मवीर भारती (25 दिसंबर, 1926-4 सितंबर, 1997) ‘धर्मयुग’ के सम्पादक बने तो उनके खाते में इतना यश आया कि तय करना मुश्किल हो गया कि वे पहले सम्पादक हैं या ‘गुनाहों का देवता’ जैसे सदाबहार उपन्यास के लेखक, कवि और नाटककार।

राजेंद्र माथुर का नाम न लेना अनैतिक होगा, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने कलम से वैसे ही चमत्कार किए जैसे उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने अपनी शहनाई से।
हिन्दी पत्रकारिता-प्रिंट, इलेक्ट्रानिक व डिजिटल सब-में साहित्य की जगहें सिकुड़ती जा रही हैं। कई पत्रकार निजी बातचीत में साहित्यकारों को कुछ इस तरह ‘साहित्यकार है’ कहते हैं, जैसे उसका साहित्यकार होना कोई विडम्बना हो। इससे हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता दोनों का नुकसान हो रहा है, लेकिन इसे लेकर कोई मुंह नहीं खोलता।


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