Saturday, June 14, 2025
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दो कलाकार

 

Ravivani 19


Mannu Bhandari‘ए रूनी, उठ’, कहते हुए चादर खींचकर चित्रा ने सोती हुई अरुणा को झकझोर कर उठा दिया।
‘अरे! क्या है?’ आंखें मलते हुए तनिक खिझलाहट भरे स्वर में अरुणा ने पूछा। चित्रा उसका हाथ पकड़कर खींचती हुई ले गई और अपने नए बनाए हुए चित्र के सामने ले जाकर खड़ा करके बोली,’देख, मेरा चित्र पूरा हो गया।’
‘ओह, तो इसे दिखाने के लिए तूने मेरी नींद खराब कर दी।’
‘अरे, जरा इस चित्र को तो देख। न पा गई पहला इनाम तो नाम बदल देना।’
चित्र को चारों ओर घुमाते हुए अरुणा बोली,‘किधर से देखूं, यह तो बता दे? हजार बार तुझसे कहा कि जिसका चित्र बनाए, उसका नाम लिख दिया कर, जिससे गलतफहमी न हुआ करे, वरना तू बनाए हाथी और हम समझें उल्लू!’ तसवीर पर आंखें गड़ाते हुए बोली,‘किसी तरह नहीं समझ पा रही हूं कि चौरासी लाख योनियों में से आखिर यह किस जीव की तसवीर है?’

‘तो आपको यह कोई जीव नजर आ रहा है? जरा अच्छी तरह देख और समझने की कोशिश कर।’

‘अरे, यह क्या? इसमें तो सड़क, आदमी, ट्राम, बस, मोटर, मकान सब एक-दूसरे पर चढ़ रहे हैं। मानो सबकी खिचड़ी पकाकर रख दी हो। क्या घनचक्कर बनाया है?’

यह कहकर अरुणा ने चित्र रख दिया।

जरा सोचकर बता कि यह किसका प्रतीक है?’

तेरी बेवकूफी का। आई है बड़ी प्रतीक वाली।’

अरे जनाब, यह चित्र आज की दुनिया में ‘कन्फ़्यूजन’ का प्रतीक है, समझी।’

मुझे तो तेरे दिमाग के कन्फ़्यूजन का प्रतीक नजर आ रहा है, बिना मतलब ज़िन्दगी  खराब कर रही है।’ और अरुणा मुंह धोने के लिए बाहर चली गई। लौटी तो देखा तीन-चार बच्चे उसके कमरे के दरवाजे पर खड़े उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। आते ही बोली,‘आ गए, बच्चों। चलो, मैं अभी आई।’

‘क्या ये बंदर पाल रखे हैं तूने?’ फिर जरा हंसकर चित्रा बोली,‘एक दिन तेरी पाठशाला का चित्र बनाना होगा। लोगों को दिखाया करेंगे कि हमारी एक मित्र साहिबा थीं जो बस्ती के चौकीदारों, नौकरों और चपरासियों के बच्चों को पढ़ा-पढ़ाकर ही अपने को भारी पंडिताइन और समाज सेविका समझती थीं।’
चार बजते ही कॉलेज से सारी लड़कियां लौट आई, पर अरुणा नहीं लौटी। चित्रा चाय के लिए उसकी प्रतीक्षा कर रही थी।

‘पता नहीं, कहां-कहां भटक जाती है, बस इसके पीछे बैठे रहो।’
‘अरे, क्यों बड़-बड़ कर रही है? ले, मैं आ गई। चल, बना चाय। मिलकर ही पिएंगे।’

‘तेरे मनोज की चिट्ठी आई है।’

अरुणा लिफाफा फाड़कर पत्र पढ़ने लगी। जब उसका पत्र समाप्त हो गया तो चाय पीते-पीते चित्रा बोली,‘आज पिताजी का भी पत्र आया है, लिखा है जैसे ही यहां कोर्स समाप्त हो जाए, मैं विदेश जा सकती हूं। मैं तो जानती थी, पिताजी कभी मना नहीं करेंगे।’

‘हां भाई! धनी पिता की इकलौती बिटिया ठहरी। तेरी इच्छा कभी टाली जा सकती है? पर सच कहती हूं मुझे तो सारी कला इतनी निरर्थक लगती है, इतनी बेमतलब लगती है कि बता नहीं सकती। किस काम की ऐसी कला, जो आदमी को आदमी न रहने दे।’ अरुणा आवेश में बोली।

‘तो तू मुझे आदमी नहीं समझती, क्यों?’

‘तुझे दुनिया से कोई मतलब नहीं, दूसरों से कोई मतलब नहीं, बस चौबीस घंटे अपने रंग और तूलिकाओं में डूबी रहती है। दुनिया में कितनी बड़ी घटना घट जाए, पर यदि उसमें तेरे चित्र के लिए आइडिया नहीं तो तेरे लिए वह घटना कोई महत्त्व नहीं रखती। हर घड़ी, हर जगह और हर चीज में तू अपने चित्रों के लिए मॉडल खोजा करती है। कागज पर इन निर्जीव चित्रों को बनाने के बजाय दो-चार की ज़िन्दगी  क्यों नहीं बना देती! तेरे पास सामर्थ्य है, साधन हैं।’

‘वह काम तो तेरे लिए छोड़ दिया। मैं चली जाऊंगी तो जल्दी से सारी दुनिया का कल्याण करने के लिए झंडा लेकर निकल पड़ना!’ और चित्रा हंस पड़ी।
तीन दिन से मूसलधार’ वर्षा हो रही थी। रोज अखबारों में बाढ़ की खबरें आती थीं। बाढ़ पीड़ितों की दशा बिगड़ती जा रही थी|

और वर्षा थी कि थमने का नाम नहीं लेती थी। अरुणा सारा दिन चंदा इकट्ठा करने में व्यस्त रहती। एक दिन आखिर चित्रा ने कह दिया,‘तेरे इम्तिहान सिर पर आ रहे हैं, कुछ पढ़ती-लिखती है नहीं, सारा दिन बस भटकती रहती है। माता-पिता क्या सोचेंगे कि इतना पैसा बेकार ही पानी में बहाया।’

‘आज शाम को स्वयंसेवकों का एक दल जा रहा है, प्रिंसिपल से अनुमति ले ली है। मैं भी उनके साथ ही जा रही हूं।’ चित्रा की बात को बिना सुने उसने कहा।शाम को अरुणा चली गई। पंद्रह दिन बाद वह लौटी तो उसकी हालत काफी खस्ता हो रही थी। सूरत ऐसी निकल आई थी मानो छह महीने से बीमार हो।

चित्रा उस समय ‘गुरुदेव’ के पास गई हुई थी। अरुणा नहा-धोकर, खा-पीकर लेटने लगी तभी उसकी नजर चित्रा के नए चित्रों की ओर गई। तीन चित्र बना रखे थे। तीनों बाढ़ के चित्र थे। जो दृश्य वह अपनी आंखों से देखकर आ रही थी, वैसे ही दृश्य यहां भी अंकित थे। उसका मन जाने कैसा-कैसा हो गया।
शाम को चित्रा लौटी तो अरुणा को देखकर बड़ी प्रसन्न हुई।

‘क्यों चित्रा! तेरा जाने का तय गया?’

‘हां, अगले बुध को मैं घर जाऊंगी और बस एक सप्ताह बाद हिंदुस्तान की सीमा के बाहर पहुंच जाऊंगी।’ उल्लास उसके स्वर में छलका पड़ रहा था।

‘सच कह रही है, तू चली जाएगी चित्रा! छह साल से साथ रहते-रहते यह बात मैं तो भूल गई कि कभी अलग भी होना पड़ेगा। तू चली जाएगी तो मैं कैसे रहूंगी?’ उदासी भरे स्वर में अरुणा ने पूछा। लगा जैसे स्वयं से ही पूछ रही हो।
कितना स्नेह था दोनों में! सारा होस्टल उनकी मित्रता को ईर्ष्या की दृष्टि से देखता था।

आज चित्रा को जाना था। अरुणा सवेरे से ही उसका सारा सामान ठीक कर रही थी। एक-एक करके चित्रा सबसे मिल आई। बस, गुरु जी से मिलना रह गया था सो उनका आशीर्वाद लेने चल पड़ी। तीन बज गए थे पर वह लौटी नहीं। पांच बजे की गाड़ी से वह जाने वाली थी।

अरुणा ने सोचा वह खुद जाकर देख आए कि आखिर बात क्या हो गई। तभी बड़बड़ाती-सी चित्रा ने प्रवेश किया,‘बड़ी देर हो गई ना। अरे क्या करूं, बस कुछ ऐसा हो गया कि रुकना ही पड़ा।’

‘आखिर क्या हो गया ऐसा, जो रुकना ही पड़ा, सुनें तो!’ दो-तीन कंठ एक साथ बोले।

‘गर्ग स्टोर के सामने पेड़ के नीचे अकसर एक भिखारिन बैठी रहा करती थी ना, लौटी तो देखा कि वह वहीं मरी पड़ी है और उसके दोनों बच्चे उसके सूखे शरीर से चिपककर बुरी तरह से रो रहे हैं। जाने क्या था उस सारे दृश्य में कि मैं अपने को रोक नहीं सकी। एक रफ-सा स्केच बना ही डाला। बस, इसी में देर हो गई।’

साढ़े चार बजे चित्रा होस्टल के फाटक पर आ गई पर तब तक अरुणा का कहीं पता नहीं था। बहुत सारी लड़कियां उसे छोड़ने स्टेशन तक भी गर्इं, पर चित्रा की आंखें बराबर अरुणा को ढूंढ़ रही थीं। पांच भी बज गए, रेल चल पड़ी पर अरुणा न आई, सो न आई।

विदेश जाकर चित्रा तन-मन से अपने काम में जुट गई। उसकी लगन ने उसकी कला को निखार दिया। विदेश में उसके चित्रों की धूम मच गई। भिखारिन और दो अनाथ बच्चों के उस चित्र की प्रशंसा में तो अखबारों के कॉलम-के-कॉलम भर गए। शोहरत के ऊंचे कगार पर बैठे, चित्रा जैसे अपना पिछला सब कुछ भूल गई। पहले वर्ष तो अरुणा से पत्र व्यवहार बड़े नियमित रूप से चला, फिर कम होते-होते एकदम बंद हो गया।

पिछले एक साल से तो उसे यह भी मालूम नहीं कि वह कहां है? अनेक प्रतियोगिताओं में उसका ‘अनाथ’ शीर्षकवाला चित्र प्रथम पुरस्कार पा चुका था। जाने क्या था उस चित्र में, जो देखता चकित रह जाता। तीन साल बाद जब वह भारत लौटी तो बड़ा स्वागत हुआ उसका।

अखबारों में उसकी कला पर, उसके जीवन पर अनेक लेख छपे। पिता अपनी इकलौती बिटिया की इस सफलता पर बहुत प्रसन्न थे। दिल्ली में उसके चित्रों की प्रदर्शनी का विराट आयोजन किया गया। उद्घाटन करने के लिए चित्रा को ही बुलाया गया।

उस भीड़-भाड़ में अचानक उसकी भेंट अरुणा से हो गई। ‘रूनी’ कहकर चित्रा भीड़ की उपस्थिति को भूलकर अरुणा के गले से लिपट गई।
‘तुझे कब से चित्र देखने का शौक हो गया, रूनी?’

‘चित्रों को नहीं, चित्रा को देखने आई थी। तू तो एकदम भूल ही गई।’
‘अरे, ये बच्चे किसके हैं?’ दो प्यारे-से बच्चे अरुणा से सटे खड़े थे। लड़के की उम्र दस साल की होगी तो लड़की की कोई आठ।

‘मेरे बच्चे हैं, और किसके! ये तुम्हारी चित्रा मौसी हैं, नमस्ते करो, अपनी मौसी को।’ अरुणा ने आदेश दिया।

बच्चों ने बड़े आदर से नमस्ते किया। पर चित्रा आवाक होकर कभी बच्चों को और कभी अरुणा का मुंह देख रही थी। तभी अरुणा ने टोका,‘कैसी मौसी है, प्यार तो कर!’ और चित्रा ने दोनों के सिर पर हाथ फेरा प्यार का। अरुणा ने कहा,‘तुम्हारी ये मौसी बहुत अच्छी तसवीरें बनाती हैं, ये सारी तसवीरें इन्हीं की बनाई हुई हैं।’

‘आप हमें सब तसवीरें दिखाएं मौसी,’ बच्चे ने फरमाइश की। चित्रा उन्हें तसवीरें दिखाने लगी। घूमते-घूमते वे उसी भिखारिनवाली तसवीर के सामने आ पहुंचे। चित्रा ने कहा,‘यही वह तसवीर है रूनी! जिसने मुझे इतनी प्रसिद्धि दी।’

‘ये बच्चे रो क्यों रहे हैं मौसी?’ तसवीर को ध्यान से देखकर बालिका ने पूछा।
‘इनकी मां मर गई है। देखती नहीं, मरी पड़ी है। इतना भी नहीं समझती!’ बालक ने मौका पाते ही अपने बड़प्पन और ज्ञान की छाप लगाई।
‘ये सचमुच के बच्चे थे, मौसी?’ बालिका का स्वर करुण-से-करुणतर होता जा रहा था।

‘और क्या, सचमुच के बच्चों को देखकर ही तो बनाई थी यह तसवीर।’
‘मौसी, हमें ऐसी तसवीर नहीं, अच्छी-अच्छी तसवीरें दिखाओ, राजा-रानी की, परियों की।’

उस तसवीर को और अधिक देर तक देखना बच्चों के लिए अस‘ हो उठा था। तभी अरुणा के पति आ पहुंचे। साधारण बातचीत के पश्चात अरुणा ने दोनों बच्चों को उनके हवाले करते हुए कहा,‘आप जरा बच्चों को प्रदर्शनी दिखाइए, मैं चित्रा को लेकर घर चलती हूं।’

बच्चे इच्छा न रहते हुए भी पिता के साथ विदा हुए। चित्रा को दोनों बच्चे बड़े ही प्यारे लगे। वह उन्हें देखती रही। जैसे ही वे आंखों से ओझल हुए उसने पूछा,‘सच-सच बता रूनी, ये प्यारे-प्यारे बच्चे किसके हैं?’

‘कहा तो, मेरे,’ अरुणा ने हंसते हुए कहा।

‘अरे बता ना, मुझे ही बेवकूफ बनाने चली है।’

एक क्षण रुककर अरुणा ने कहा,‘बता दूं?’ और फिर उस भिखारिनवाले चित्र के दोनों बच्चों पर उंगुली रखकर बोली,‘ये ही वे दोनों बच्चे हैं।’

‘क्या…।!’ चित्रा की आंखें विस्मय से फैली रह गर्इं।

‘क्या सोच रही है चित्रा?’

‘मैं… सोच रही थी कि…’ पर शब्द शायद उसके विचारों में खो गए।

मन्नू भंडारी


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