Wednesday, September 18, 2024
- Advertisement -

अन्न और मन

Amritvani 14

महाभारत का युद्ध चल रहा था। भीष्म पितामह अर्जुन के  बाणों से घायल हो बाणों से ही बनी हुई एक शय्या पर पड़े हुए थे। कौरव और पांडव दल के लोग प्रतिदिन उनसे मिलना जाया करते थे। एक दिन का प्रसंग है कि पांचों भाई और द्रौपदी चारों तरफ बैठे थे और पितामह उन्हें उपदेश दे रहे थे। सभी श्रद्धापूर्वक उनके उपदेशों को सुन रहे थे कि अचानक द्रौपदी खिलखिलाकर कर हंस पड़ी। पितामह इस हरकत से बहुत आहात हो गए और उपदेश देना बंद कर दिया।  पांचों पांडवों भी द्रौपदी के इस व्य्वहार से आश्चर्यचकित थे।  सभी बिलकुल  शांत हो गए।  कुछ क्षणोपरांत पितामह बोले, पुत्री, तुम एक सभ्रांत कुल की बहु हो, क्या मैं तुम्हारी इस हंसी का कारण जान सकता हूं? द्रौपदी बोली-पितामह, आज आप हमे अन्याय के विरुद्ध लड़ने का उपदेश दे रहे हैं, लेकिन जब भरी सभा में मुझे निर्वस्त्र करने की कुचेष्टा की जा रही थी तब कहां चला गया था आपका ये उपदेश, आखिर तब आपने भी मौन क्यों धारण कर लिया था? यह सुन पितामह की आंखों से आंसू आ गए।  कातर स्वर में उन्होंने कहा-पुत्री, तुम तो जानती हो कि मैं उस समय दुर्योधन का अन्न खा रहा था।  वह अन्न प्रजा को दुखी कर एकत्र किया गया था, ऐसे अन्न को भोगने से मेरे संस्कार भी क्षीण पड़ गए थे, फलत: उस समय मेरी वाणी अवरुद्ध हो गयी थी।  और अब जबकि उस अन्न से बना लहू बह चुका है, मेरे स्वाभाविक संस्कार वापस आ गए हैं और स्वत: ही मेरे मुख से उपदेश निकल रहे हैं।  बेटी, जो जैसा अन्न खाता है उसका मन भी वैसा ही हो जाता है।

janwani address 2

What’s your Reaction?
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
spot_imgspot_img

Subscribe

Related articles

Uttarakhand News: छात्र संघ समारोह की अनुमति नहीं मिली तो कॉलेज में की तालाबंदी

जनवाणी ब्यूरो | ऋषिकेश: श्री देव सुमन उत्तराखंड विश्वविद्यालय के...
spot_imgspot_img