पूनम दिनकर
प्रकृति-प्रदत्त मौसम का अपने-अपने स्थान पर महत्व है, किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि सर्दी जीवनधारियों के लिए विशेष आवश्यक है। बाह्य दृष्टि से देखने पर यह प्रतीत होता है कि लोग ठंड के खिलाफ हैं, परंतु ऐसा होता नहीं है। वे सर्दी को प्राणघातक समझकर उससे बचने की कोशिश करते हैं। चारों ओर की खिड़कियों को बंद करके हाथ, मुंह, कान वगैरह ढक लेते हैं। पैरों में मोजे और जूते डाल लेते हैं।
लोग समझते हैं कि सर्दी लगी नहीं कि सिरदर्द, न्यूमोनिया, सर्दी-जुकाम आदि हो जाएगा किंतु सर्दी के लिए ऐसी भ्रामक धारणाएं बेबुनियाद हैं, जिन्हें मन से निकाल देना चाहिए। प्रकृति जीवन स्रोत है, इसलिए यह नितांत आवश्यक है कि हम उसके स्नेह-स्पंदनों से जुड़ने का प्रयास करें।
प्रकृति चाहती है कि मानव शरीर सर्दी-गर्मी तथा बरसात को सहने का आदी बने। ठंडी हवा से मनुष्य का शरीर तरोताजा बनता है। जाड़े की सुबह चलने वाली मंद वायु मानव शरीर के लिए संजीवनी-बूटी के समान लाभदायी है। शरीर को उससे दूर रखना मानो उसे बेजान बनाना है। जाड़े की इस हवा से शरीर का रंग निखरता है। कमजोर फेफड़े सबल बनते हैं। काम में जी लगता है और शरीर में शक्ति का संचय होता है। इस ऋतु में सूर्य एक विचित्र आभा से भर उठता है और मन में नव प्रेरणाएं जागृत होती हैं।
शरीर शास्त्रियों के मतानुसार जब-जब शरीर में गर्मी बढ़ती है, तब-तब देखा जाता है कि शरीर का पोषण बंद हो जाता है और जीवनी-शक्ति घटने लगती है। गर्मी की वृद्धि शरीर के अंदर बढ़े हुए विष की सूचक होती है। इस विष-वृद्धि का कारण अप्राकृतिक जीवन है। जीवन के साथ खान-पान व आहार-विहार का संबंध है। आज का मानव खान-पान व आहार-विहार की स्वाभाविकता को छोड़ता जा रहा है और उसी अस्वाभाविकता के कारण शरीर में गर्मी की वृद्धि होती है। अस्वाभाविकता के कारण ही गर्मी को सहन करने की शक्ति शरीर में नहीं रह जाती। ऐसी स्थिति में या तो अनेक रोगों का सामना करना पड़ता है या फिर मृत्यु की तैयारी करनी होती है।
भोजन का संबंध जीवन की रक्षा से है न कि स्वाद से। स्वाद के कुचक्र में पडकर अनेक ऐसी वस्तुओं का प्रयोग करना होता है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से शरीर को हानि पहुंचाती हैं और मन की शांति को भी खो देती हैं। मिर्च-मसाले, तले पदार्थ, चाय, कॉफी आदि भोज्य वस्तुएं इसी श्रेणी में आती हैं। ये सभी चीजें शरीर में अनावश्यक गर्मी की वृद्धि करती हैं जिसका परिणाम या तो आमाशय को भोगना पड़ता है या हृदय और मस्तिष्क को। ये सब मिलकर ही मनुष्य को एक गतिवान मशीन बनाते हैं। मशीन के एक भी पुर्जे में खराबी आ जाने से मशीन शिथिल होकर काम करना बंद कर देती है।
इन विकारों को कम करके यंत्र को ठीक करने के लिए उसकी बढ़ी हुई ऊष्मा को कम करने की आवश्यकता होती है और सर्दी ही ऐसा उपयुक्त तत्व है जो मानव के जीवन और शरीर रूपी यंत्रों को संतुलित और कार्य करने योग्य बनाता है। सर्दी इस विष-वृद्धि को शरीर से बाहर निकालती है, अत: शीतोपचार द्वारा शरीर की बेचैनी का दूर होना स्वाभाविक होता है।
सर्दी में लोग अपने मुंह को बुरी तरह ढक लेते हैं। इससे शरीर में पर्याप्त हवा नहीं लगती। यह उचित नहीं है। शरीर को पूरी तरह खुला रखा जाए और सर्दी सहन करने की आदत डाली जाए। सर्दी की धूप का रसायनिक महत्व है। उसमें अनेक विटामिन होते हैं। धूप स्नान, बच्चे, वृद्ध और युवकों के लिए समान रूप से उपयोगी है। अत: सुबह की तेज ठंड को छोडकर शेष समय में हमें चाहिये कि पतले और हल्के वस्त्र पहनें।
बीमारी की हालत में पथ्य और संयम की परवाह किए बिना बीमार व्यक्ति औषधियों का सेवन करना आरंभ कर देता है। औषधियां रोग को तो दूर नहीं करती लेकिन रोग के प्रभाव से शारीरिक यंत्रों को मूर्छित कर देती है जिससे रोग का ज्ञान नहीं होता पर शरीर भीतर ही भीतर खोखला होता जाता है। जीवनी-शक्ति क्रमश: घटती जाती है, तब कभी भी एक साथ विस्फोट हो जाने की संभावना रहती है। इसलिए औषधि उपचार को छोडकर प्राकृतिक उपचारों द्वारा न सिर्फ रोग दूर होते हैं बल्कि शरीर में रोग का प्रवेश ही न हो, इसके लिए भी उसे उपयुक्त बना देते हैं।
स्वास्थ्य की दृष्टि से सर्दी सबसे उत्तम मौसम है। जाड़े में व्यायाम करने में जितना आनन्द आता है, उतना शायद कभी नहीं आता। सर्दी से शरीर की रग-रग को मजबूती मिलती है, बल और जीवन मिलता है। जठराग्नि प्रबल होती है और पुराने रोग थोड़ी-सी देखभाल से ही आसानी से चले जाते हैं। जैसे-जैसे मनुष्य इस सिद्धांत पर अमल करता जाएगा, वैसे-वैसे उसका जीवन स्वाभाविक और प्रकृति अनुकूल बनता चला जाएगा। इसलिए सर्दी का भय मन से निकाल डालना ही हितकर है।
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