योगी आदित्यनाथ भले ही मंच से अपराधियों को पाताल लोक से ढूंढ लाने का दंभ भरते हों, लेकिन तीन दिसंबर 2022 को प्रकाशित नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो 2022 की रिपोर्ट न सिर्फ उनके दावे की पोल खोलती है बल्कि सूबे की कानून-व्यवस्था को रसातल में पहुंच जाने की गवाही भी दे रही है। आईपीसी और एसएलएल के कुल दर्ज अपराध 2021में 608082 थे। वहीं 2022 में यह संख्या बढ़कर 753675 पहुंच गई जो अपराध में 24 प्रतिशत की असाधारण वृद्धि को प्रदर्शित करती है। देश के अपराध का वार्षिक डेटा प्रस्तुत करने वाली एनसीआरबी 2022 की रिपोर्ट में उत्तर प्रदेश की सर्वाधिक डरावनी तस्वीर महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अधिकांश अपराधों में ‘उत्तर प्रदेश नंबर वन’ की स्थिति से निर्मित हुई है। महिलाओं के अपहरण, दुष्कर्म एवं दुष्कर्म के बाद हत्या, गैंग रेप, दहेज के लिए हत्या,घरेलू हिंसा, छेड़छाड़ एवं पैक्सो एक्ट के तहत दर्ज बच्चियों से छेड़छाड़ के मामलों में उत्तर प्रदेश शीर्ष स्थान पर कायम है। इस वर्ष सूबे मे बेटियों- बहनों के अपहरण के मामले देश सर्वाधिक 14887 दर्ज हुए, वहीं दहेज के लिए हत्या में भी यूपी में देश के सर्वाधिक 2138 मामले रिकॉर्ड हुए, दुष्कर्म के स्तर पर राजस्थान (5399) के बाद उत्तर प्रदेश 3690 रेप केस के साथ दूसरे स्थान पर है। लेकिन दुष्कर्म के बाद हत्या के मामले में उत्तर प्रदेश नंबर वन(92) पर कायम है। घर की चारदीवारी के भीतर अपनों के हाथों ही मारपीट शारीरिक हिंसा के मामले में भी 20371 केस के साथ उत्तर प्रदेश शीर्ष पर है। पोक्सो एक्ट के तहत बच्चियों से छेड़छाड़ के पूरे देश में कुल मामले 52341दर्ज हुए वहीं उत्तर प्रदेश में अकेले 7160 मसले रिकॉर्ड हुए। इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि उत्तर प्रदेश में प्रतिदिन 40 बहनों का अपहरण हो रहा है,10 बहनें हररोज दुष्कर्म का शिकार हो रही है, दहेज की आग पांच बहनों की जिन्दगी दैनिक गति से खाक कर रही है, घर की चार दीवारी के भीतर भी प्रतिदिन 55महिलाए घरेलू हिंसा की यातना झेल रही है, यहां तक की हर रोज 20 बच्चियां भी छेड़छाड़ का शिकार हो रही है।
संगठित अपराध के विरुद्ध अपने बुलडोजर अभियान का ढिंढोरा पीटने वाली उत्तर प्रदेश सरकार दुष्कर्म, छेड़छाड़, शारीरिक हिंसा की शिकार पीड़ित बहनों के साथ खड़े होने के बजाय हमलावर आरोपियों के बचाव में खड़ी हो जाती है। कुलदीप सेंगर, चिन्मयानंद, बृजभूषण शरण सिंह और दुद्धी सोनभद्र के विधायक रामदुलारे गोंड़ के विरुद्ध सख्त कार्यवाही कर सरकार महिलाओं के प्रति विकृत सोच रखनेवाले सिरफिरों में कानून का डर पैदा कर सकती थी लेकिन एक राजनीतिक दल और सरकार के रूप में भारतीय जनता पार्टी ने इन आरोपियों को भरसक बचाने की कोशिश की। हाथरस की दलित बेटी के दुष्कर्म एवं उसकी हत्या का मसला हो अथवा प्रशासनिक अमले द्वारा उन्नाव में नेहा दीक्षित, पर्मिला दीक्षित को उनकी झोपड़ी में ही जिंदा जलाने की त्रासद घटना हो हर जगह सरकार महिला सुरक्षा का पैगाम देने में बुरी तरह विफल रही। अब नहीं होगा नारी पर वार अबकी बार मोदी सरकार का नारा देने वाली भाजपा के तथाकथित गुजरात मॉडल में भी आधी आबादी की स्थिति दयनीय है। भारत की मानव विकास रिपोर्ट 2011-12 के अनुसार गुजरात में 50 प्रतिशत से अधिक महिलाएं एनीमिया/खून की कमी से पीड़ित है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत के राष्ट्रीय लिंगानुपात 1000 पर 940 के सापेक्ष गुजरात में 1000 पर 919 है जो राज्य में भ्रूण हत्या को प्रदर्शित करता है।
नवजागरण की उन्नीसवीं सदी में राजा राममोहन राय ,ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, बीएम मालावारी,डी के कर्वेआदि सुधारको ने स्त्री-पुरुष समानता को वैधानिक एवं संस्थागत शक्ल देने का भगीरथ प्रयास किया। सती प्रथा अधिनियम 1829, विधवा पुनर्विवाह अधिनियम1856,एज आफ कंसेंट एक्ट 1891,शारदा एक्ट 1928 तथा आजादी के बाद संविधान ने महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार दिया है। किंतु महिला आजादी का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज 1951 का हिंदू कोड बिल है। जिससे महिलाओं को बहुविवाह से मुक्ति, तलाक के अधिकार, संपत्ति के अधिकार आदि हासिल हुए। लेकिन आज भी लिंगगत विषमता है।वैश्विक स्तर पर विधायिका में महिलाओं की भागीदारी 24 प्रतिशत है। वहीं भारत में 17वीं लोकसभा में निर्वाचित कुल 78 महिला सांसदों की संख्या भी 14 प्रतिशत पहुंचती है। उत्तर प्रदेश में भी कुल 47 महिला विधायक हैं जो महज 12 फीसदी है। मनोरंजन उद्योग, चिकित्सा क्षेत्र एवं मीडिया में भी महिलाओं की आमदनी पुरुषों के बरक्स दोयम दर्जे की है।
नारी सृष्टि है, वह घर की चारदीवारी मे अपना वजूद मिटाकर परिवार के सभी सदस्यों को भावनात्मक सहारा देती है। लेकिन वह अपनी ही चौखट के भीतर हिंसात्मक व्यवहार झेलती है। शोषण में जीते हुए स्त्री जब समाज की बनाई गुलामी की जटिल रस्सी से मुक्त होने का प्रयास करती है अथवा नारी सशक्तिकरण के विमर्श होता है तो उसे सनातन संस्कृति, संयुक्त परिवार एवं पुरुषों के खिलाफ घोषित किया जाता है। हमें अपनी पितृसत्तात्मक सोच, सनातन परंपराओं एवं संयुक्त परिवार, विवाह आदि संस्थाओं के चरित्र में बदलाव करते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों को समाहित करना होगा तभी लैंगिक समानता स्थापित होगी। इतना तो तय है कि न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि भारत अपने विकास लक्ष्यों को तब तक शत-प्रतिशत हासिल नहीं कर सकता जब तक इस देश की आधी आबादी के साथ सभी क्षेत्रों में पूर्ण और समान प्रतिभागियों के रूप में व्यवहार नहीं किया जाएगा।