Thursday, March 28, 2024
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अफसरशाही के हवाले बाल संरक्षण

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Ajay Khemariyaसंसद के बजट सत्र में सरकार ने किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और सरंक्षण) संशोधन विधेयक, 2021 प्रस्तुत किया है। इस विधेयक में मौजूदा किशोर अधिनियम 2015 में कुछ बुनियादी बदलाब सुनिश्चित किए जा रहे हैं। महिला बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा है कि प्रस्तावित बदलाव किशोर अधिनियम को सशक्त एवं समावेशी बनाने में सहायक होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने भी शिल्पा मित्तल बनाम राष्ट्रीय राजधानी राज्य 2020 दांडिक अपील संख्या 34 में सरकार को इस कानून के कतिपय दुविधाजनक प्रावधानों में परिवर्तन का निर्देश दिया था। नया संशोधन प्रस्ताव जेजे एक्ट की व्यावहारिक समस्याओं के शमन की गारंटी अवश्य प्रतिध्वनित करता है, लेकिन अनुभवजन्य तथ्य यही प्रमाणित करते हैं कि कानून का लेवियाथन स्वरूप क्रियान्वयन के स्तर पर राज्य और सिविल सोसायटी की प्रतिबद्धता को कटघरे में खड़ा करता रहा है।
नए प्रस्ताव सिद्धांतय उजले भविष्य की इबारत भले ही कहते हों लेकिन देश भर के बाल अधिकार विशेषज्ञ इन अधिकांश प्रस्तावों के जरिये अफसरशाही की परंपरागत कुसंस्कृति हावी होने का अंदेशा व्यक्त कर रहे हैं। नए विधेयक में जिला मजिस्ट्रेट (डीएम) को जेजे एक्ट की धुरी बना दिया गया है। न्यायालय और राज्य शासन की भूमिका को एक तरह से विलोपित ही करके नया कानून जिला मजिस्ट्रेट को सर्वेसर्वा बनाने वाला है। एडॉप्शन, बाल गृह, बाल कल्याण समिति, जेजेबी और अपील जैसे मामलों में अब जिला मजिस्ट्रेट ही सर्वशक्तिमान इकाई होगी। यह इस संशोधन का डरावना पक्ष है।

सर्वविदित तथ्य है कि डीएम मूलत: एक कलेक्टर के रूप में ही काम करते हैं और जिन मामलों में वे जिला मजिस्ट्रेट होते हैं, वहां भी उनकी कार्य संस्कृति एक सुप्रीम ब्यूरोक्रेट्स की ही होती है। मसलन-राजस्व मामलों में वे जिस तरह से मजिस्ट्रेट की भूमिका का निर्वहन 70 वर्षों से करते आ रहे हैं, वह देश भर के लिए एक बुरा और औपनिवेशिक अनुभव ही है। ऐसे में सिद्धान्तय डीएम का प्रावधान भले ही न्यायालय की तुलना में त्वरित निस्तारण की प्रतिध्वनि देता हो, लेकिन व्यवहार में यह बाल संरक्षण प्रतिबद्धता को अफसरशाही का मोहताज बनाने वाला है। नए प्रस्ताव में अब गोद लेने की पूरी प्रक्रिया में डीएम या एडीएम निर्णायक होंगे।

अभी यह कार्य एडीजे स्तर के न्यायाधीश करते हैं। सरकार का दावा है कि न्यायालय में अनावश्यक विलंब होता है, इसलिए डीएम को यह अधिकार दिए जा रहे हैं कि अब दत्तक ग्रहण के आदेश पारित कर सकेंगे। इस प्रस्ताव के बाद जिला बाल सरंक्षण इकाई जिसके कार्यकारी मुखिया पहले से ही डीएम हैं। जेजे एक्ट की धारा 63 के तहत दत्तक ग्रहण प्रमाणपत्र जारी करेंगे। मूल अधिनियम की धारा 16 में अब डीएम को यह अधिकार दिया जा रहा है कि वह किसी भी मामले में सीडब्ल्यूसी, जेजेबी की विचाराधीन फाइल को अपने यहां बुला सकेंगे। इसके प्रभावी होते ही इस बात की पूरी संभावना है कि डीएम की व्यवस्था पर कलेक्टर का रुतबा हावी हो जाएगा।

जिन राज्यों में संस्थागत गड़बड़ी या बालशोषण के मामले सामने आते हैं, वहां डीएम ने अपनी विहित भूमिका का निर्वहन क्यों नही किया है, जबकि वे अपने जिले की बाल सरंक्षण इकाइयों के प्रमुख हैं। व्यावहारिक पक्ष यह है कि कलेक्टर की रुतबेदार भूमिका से डीएम कभी बाहर आ ही नही पाते हैं और आईसीपीएस (एकीकृत बाल सरंक्षण) जैसी योजना, जिसे जेजे एक्ट के क्रियान्वयन के लिए डिजाइन किया गया है, महिला बाल विकास विभाग के मैदानी अमले के रहमोकरम पर चल रही है। दूसरा पहलू आईसीपीएस में मिशन मोड कार्य संस्कृति का नितांत अभाव होना है। महिला बाल विकास के प्रमुख सचिव या कमिश्नर दूसरी फ्लैगशिप स्कीमों, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, पोषण आहार, पोषण मिशन को अपनी प्राथमिकता पर रखते हैं। नतीजतन जिला स्तर पर भी आईसीपीएस जेजे एक्ट की भावना के अनुरूप क्रियान्वित नहीं हो पाई है।

ऐसे में नए प्रस्ताव एक तरह से जेजे एक्ट में डीएम के नाम से कलेक्टर राज की बहाली का मार्ग प्रशस्त करने वाले हैं, जबकि यह कानून सिविल सोसायटी की भागीदारी पर अवलंबित है। सवाल यह है कि डीएम पहले से ही औसतन 50 जिला स्तरीय कमेटियों के मुखिया कलेक्टर के रूप मे होते है और वे किन कतिपय दबावों में काम करते हैं, यह भी जगजाहिर है। इन परिस्थितियों में अतिशय अधिकारों के साथ जिलों में डीएम की न्यायसम्मत भूमिका आईएएस अफसर निभा पाएंगे? डीएम इन मामलों में एडीएम को भी अधिकृत कर सकेंगे और डीएम के निर्णयों की अपील कमिश्नर के यहां प्रस्तावित है।

पहले तो यह साफ ही है कि व्यावहारिक रूप से डीएम या एडीएम केवल महिला बाल विकास महकमें की नस्तियों को ही निस्तारित करेंगे और इन निर्णयों की अपील कमिश्नर कार्यालय में राजस्व मामलों की तरह ब्यूरोक्रेसी के पक्ष में नहीं होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। यानी गतिरोध या आधिकारिता के सभी सवाल अब ब्यूरोक्रेसी की चौखट पर तय होंगे। इसलिए संशोधन प्रस्तावों को कानून में परिवर्तित करने से पहले भारतीय ब्यूरोक्रेसी की सामंती कार्य संस्कृति पर भी उदारता के साथ विचार किए जाने की आवश्यकता है। जेजे एक्ट में सबसे अहम कड़ी बाल कल्याण समितियां हैं, जिन्हें एक तरह से डीएम यानी कलेक्टर के खौफ में कार्य करने की संस्कृति भी इन प्रस्तावों से निर्मित होने जा रही है। दत्तक ग्रहण या बालकों के पुनर्वास से लेकर पॉक्सो में पीड़िताओं के मामलों में प्रभावशाली लोग मनमाने निर्णय डीएम के माध्यम से नहीं करा पाएंगे, इसकी भी कोई गारंटी अब तक अनुभवों से नहीं है।

हालांकि बाल कल्याण समितियों में नियुक्तियों से जुड़ी अहर्ताएं इस विधेयक में प्रमाणिकता से परिभाषित की गई हैं, जिसके चलते सुशिक्षित एवं अनुभवी लोग ही अब इन समितियों में आ सकेंगे। अभी तक राजनीतिक और प्रशासकीय अनुकम्पा से बड़ी संख्या में अपात्र लोग जगह पा जाते थे। विधेयक में संगीन और गंभीर अपराधों में होने वाले ट्रायल और सजा के मामले को भी स्पष्टता से परिभाषित किया गया है, जिसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में सवाल उठाया था। सरंक्षण और आवश्यकता वाले बालकों की शब्दकोशीय परिभाषा को समावेशी बनाते हुए प्रस्ताव में बाल तस्करी, ड्रग पीड़ित बच्चों को भी शामिल किया जाना स्वागत योग्य है। इनके अलावा बालक की पहचान स्थाई रूप से अप्रकट करने संबंधी धारा 74 में प्रस्तावित संशोधन भी सराहनीय है, जिसके तहत पुलिस सत्यापन या चरित्र प्रमाणपत्र में विधि विरुद्ध किसी भी बालक की जानकारी निषिद्ध की जा रही है।
(लेखक बाल कल्याण समिति ग्वालियर के अध्यक्ष हैं)


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