देश भर में कोचिंग हब के रुप में प्रतिष्ठित राजस्थान के कोटा में कोचिंग में पढ़ाई कर रहे तीन छात्रों द्वारा खुदकुशी की घटना बेहद पीड़ादायक है। आत्महत्या करने वाले छात्र इंजीनियरिंग और मेडिकल परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। वस्तुत: यह जांच के बाद ही स्पष्ट होगा कि छात्रों ने किन कारणों से आत्महत्या की। लेकिन कोचिंग में तैयारी कर रहे छात्रों की तरफ से जो शिकायतें सामने आती हैं उससे स्पट है कि कोचिंग संस्थानों में लंबी क्लास और बोझिल असाइनमेंट की वजह से छात्र बेहद दबाव में हैं। छात्रों द्वारा आत्महत्या न सिर्फ कोचिंग संस्थाओं की विद्रुप व्यवस्था को उजागर करता है बल्कि परीक्षा के पैटर्न पर भी सवाल खड़ा करता है। कोचिंग का हब बन चुके कोटा में हर वर्ष देश भर से लाखों छात्र इंजीनियरिंग और मेडिकल परीक्षाओं की तैयारी के लिए आते हैं। सभी का सपना आईआईटी और मेडिकल संस्थानों में एडमिशन पाना होता है। इसके लिए छात्र कोचिंग संस्थानों को भारी रकम चुकाते हैं और संस्थानों द्वारा भी छात्रों को सौ फीसदी सफलता की गारंटी दी जाती है। लेकिन सच्चाई है कि ये संस्थान छात्रों को गुणवत्तापरक शिक्षा देने के बजाए उनके सपनों से खेलते हैं।
छात्रों का शेडयूल कितना बोझिल होता है इसी से समझा जा सकता है कि उन्हें ठीक से नींद नहीं मिल पा रही है। हर छात्र को तकरीबन हर दिन 6 घंटे कोचिंग क्लासों में बिताना पड़ता है। इसके अलावा उन्हें 10 घंटे स्वयं अध्ययन करना पड़ता है। ऐसे में अगर छात्र अवसादग्रस्त होते हैं तो यह अस्वाभाविक नहीं है। अगर कोचिंग संस्थानों की गतिविधियों पर नजर डालें तो ये शिक्षा के केंद्र कम कारोबार के केंद्र ज्यादा बन गए हैं। आज की तारीख में कोटा में पसरे संस्थानों का कारोबार डेढ़ हजार करोड़ रुपए से अधिक का है। कोटा में प्रत्यक्ष व परोक्ष रुप से तकरीबन डेढ़ करोड़ से अधिक छात्र जुड़े हुए हैं। एक छात्र की सालाना औसत कोचिंग फीस तकरीबन एक से दो लाख रुपए होती है। बाकी अन्य खर्चे जोड़ लें तो हर छात्र को तकरीबन सालाना कम से कम ढ़ाई लाख रुपए देना पड़ता है।
कोचिंग के पैसे से रियल स्टेट और छात्रावास निर्माण का कारोबार चरम पर पहुंच चुका है। जब इतने बड़े पैमाने पर छात्र कोचिंग कर रहे हैं तो उनके रहने के लिए आवास की जरूरत पड़ेगी ही। छात्रों की मानें तो उनके रहने के लिए छात्रावास कम पड़ने लगे हैं। लिहाजा हजारों छात्र घरों में पेइंग गेस्ट के रुप में रह रहे हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह कि छात्रों का सिर्फ आर्थिक और मानसिक शोषण ही नहीं हो रहा है बल्कि उनकी सेहत के साथ भी खिलवाड़ हो रहा है।
छात्रावासों में उन्हें अस्वस्थ तरीके से बना अपौष्टिक भोजन परोसा जा रहा है, जबकि इसके लिए मनमाना पैसा लिया जा रहा है। जिले के खाद्य सुरक्षा सेल द्वारा जब भी मान्यता प्राप्त भोजनालय और फूड सेंटर पर खाने की क्वालिटी को परखा जाता है उसमें कमियां पाई जाती हंै। बेहतर होगा कि जिला प्रशासन ऐसे सेंटरों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई करे। कोचिंग सेंटरों का हाल और भी बुरा है। यहां छात्रों के अनुपात में संसाधनों की भारी कमी है। कक्षाओं में इतनी अधिक भीड़ होती है कि छात्र ठीक से बैठ नहीं पाते, अध्ययन करना तो दूर की बात है।
ऐसे में समझा जा सकता है कि वे किन परिस्थितियों में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। सबसे खतरनाक पहलू यह कि कोचिंग केंद्रों में छात्रों को विषयों की गहन जानकारी देने के बजाए शार्टकट सफलता हासिल करने के मंत्र दिए जाते हंै। इस पैटर्न का फायदा जीनियस छात्र तो उठा लेते हैं लेकिन औसत छात्रों को नुकसान ही होता है।
कोचिंग सेंटरों में छात्रों को रट्टू तोता बनाया जा रहा है। संभवत: उसी का कुपरिणाम है कि आज परीक्षाओं में मुठ्ठी भर छात्रों के हाथ सफलता लग रही है और शेष छात्र असफलता के शिकार हो रहे हैं। यह असफलता उनमें हीन भावना पैदा करती है और वे इतना अवसादग्रस्त हो जाते हैं कि आत्महत्या कर बैठते हैं।
विडंबना है कि छात्रों की आत्महत्या की घटना भी कोचिंग संस्थानों और अभिभावकों को विचलित नहीं कर रही है। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि कोचिंग संस्थानों का उद्देश्य प्रतिभाओं को गढ़ना नहीं बल्कि येनकेनप्रकारेण छात्रों से धन उगाही करना है। यह विडंबना है कि कोचिंग संस्थान ऐसे बच्चों को भी अपने कोचिंग केंद्रों में दाखिला ले लेते हैं जो इंजीनियरिंग और मेडिकल क्षेत्र में जाने की मानसिक योग्यता नहीं रखते। या यों कहें कि वे ऐसे बच्चों को भी इंजीनियर और डॉक्टर बनाने का प्रलोभन देते हैं जिनमें इंजीनियर और डॉक्टर बनने की न तो अभिरुचि होती और न ही क्षमता।
इसके लिए सिर्फ कोचिंग संस्थानों को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। छात्रों के अभिभावक भी उतने ही जिम्मेदार हैं। वे अपने बच्चों की मानसिक क्षमता परखे बिना उन्हें इजीनियर व डॉक्टर बनाने पर तुले हुए हैं। उचित होगा कि कोचिंग संस्थान और अभिभावक दोनों बच्चों की मानसिक क्षमता का ध्यान रखते हुए उन्हें उस दिशा में पढ़ने के लिए पे्ररित करें जिसमें उनकी अभिरुचि है। लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो रहा है। यह हमारी शिक्षा प्रणाली की घोर विफलता ही है कि विज्ञान व गणित की पढ़ाई को शिक्षा की सर्वेश्रेष्ठता और रोजगार से जोड़ दिया गया है।
साथ ही यह भी मान लिया गया है कि जिसे विज्ञान और गणित की समझ नहीं है वह किसी लायक नहीं है। चिंता की बात यह भी कि विज्ञान व गणित की पढ़ाई करने वाले छात्र भी वैज्ञानिक बनने का सपना नहीं देखते। उनका लक्ष्य इंजीनियर व डॉक्टर बनकर विदेशों में भारी पैकेज हासिल करना होता है। संभवत: यहीं वह सोच है जो छात्रों को न सिर्फ अवसादग्रस्त बना रही है बल्कि जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रतिभाओं के आने की संभावना को भी शुन्य कर रही है।
एक सर्वेक्षण के मुताबिक शहर हो या गांव आज 23 फीसद छात्र प्राथमिक शिक्षा से ही ट्यूशन ले रहे हैं। गत वर्ष पहले प्रकाशित एक आंकड़े के मुताबिक पश्चिमी बंगाल और बिहार में 89 और 65 फीसदी छात्र ट्यूशन के भरोसे हैं। इसी तरह दिल्ली में 43, हरियाणा में 24, झारखंड में 54, मध्यप्रदेश में 38, पंजाब में 29 और उत्तर प्रदेश में 35 फीसद छात्र ट्यूशन के भरोसे हैं। यह समझना होगा कि देश में इंजीनियरिंग और मेडिकल की सीटें कम हैं। हर वर्ष आईआईटी-एनआईटी की सीटों के लिए लाखों आवेदन आते हैं। कुछ ऐसा ही हाल मेडिकल परीक्षाओं का होता है। भला ऐसे में सभी छात्रों का इंजीनियर और डॉक्टर बनने का सपना कैसे पूरा होगा। उचित होगा कि कोचिंग संस्थान और अभिभावक इस सच को समझें कि हर छात्र को इंजीनियर और डॉक्टर नहीं बनाया जा सकता। फिर भी वे ऐसा करते हैं तो छात्रों की जिंदगी से खिलवाड़ करने जैसा है।