जनवाणी ब्यूरो |
नई दिल्ली: कांग्रेस अध्यक्ष और राजस्थान के मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर मचे घमासान ने अचानक कई भीतरी लड़ाइयों और महात्वाकांक्षाओं को सतह पर ला दिया है। ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। अशोक गहलोत पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं, राजस्थान के तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं और उनकी सांगठनिक क्षमता को लेकर आलाकमान को कोई शक नहीं रहा है।
पार्टी ने उन्हें लगातार अहम जिम्मेदारियां भी दी हैं और इंदिरा गांधी के करीबी होने का उन्हें फायदा मिलता रहा है। बावजूद इसके राजस्थान की कुर्सी की जंग और गहलोत समर्थकों की हरकतों ने पहली बार आलाकमान के सामने उनकी सांगठनिक क्षमता को लेकर संदेह पैदा कर दिया है। यह सवाल प्रमुखता से उठ रहा है कि जो अपने प्रदेश में ही विधायकों और नेताओं को जोड़कर नहीं रख सकता वह राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी कैसे चलाएगा।
सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक अब कांग्रेस आलाकमान किसी ऐसे गैर विवादास्पद नेता के नाम पर विचार कर रहा है और अपने प्लान बी के तहत उसे अध्यक्ष पद का चुनाव लड़वा सकता है जिसकी सांगठनिक क्षमता के साथ अनुभव और व्यक्तित्व की शालीनता पर भी सवाल न उठे, साथ ही आने वाले चुनाव में भाजपा के खिलाफ बन रहे महागठबंधन को भी उस नाम के साथ जुड़ने में ज्यादा न सोचना पड़े।
अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने की इच्छा बेशक शशि थरूर ने भी जताई हो या फिर दिग्विजय सिंह की भी कहीं न कहीं इसकी तमन्ना हो, हो सकता है कमलनाथ भी ऐसा चाहते हों, लेकिन पार्टी को इन नामों से अलग एक ऐसे नाम की तलाश है जो न तो ज्यादा बड़बोला हो, जिसमें सबको साथ लेकर चलने की क्षमता हो और जो गांधी परिवार का भरोसेमंद भी हो। 10 जनपथ के करीबी एक मजबूत सूत्र ने ये संकेत दिया है कि पार्टी इस पद के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे के नाम पर भी गंभीरता से विचार कर रही है।
खड़गे सोनिया और राहुल गांधी परिवार के नजदीक हैं, सोनिया उनसे हर छोटे बड़े फैसले लेने से पहले सलाह लेती हैं, उन्हें अपने प्रतिनिधि के तौर पर ज्यादातर जगहों पर भेजती हैं और लोकसभा और राज्यसभा में पार्टी की रणनीतियों पर उनकी राय की काफी अहमियत होती है। बेशक खड़गे राज्यसभा में विपक्ष के नेता के पद पर हैं लेकिन लोकसभा में भी उनकी ही राय चलती है। खड़गे कर्नाटक के दलित नेता हैं। गुलबर्गा से चुनाव जीतकर लोकसभा में आए थे। 80 साल के खड़गे मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में रेल मंत्री और श्रम मंत्री भी रह चुके हैं।
तीन बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री बनते बनते रह गए थे, लेकिन दक्षिणी राज्यों में उनकी जबरदस्त पकड़ है, इज्जत और जनाधार है। कन्नड़ के अलावा हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और कई और भाषाओं के जानकार हैं। उत्तर भारत में भी वो लगातार आते जाते रहे हैं और खास बात ये है कि उन्हें हिन्दी प्रदेशों के क्षेत्रीय दलों के नेता इज्जत से देखते हैं और भाजपा विरोधी विपक्षी महागठबंधन के नेताओं से उनके रिश्ते अच्छे हैं।
एक और सबसे अहम बात जो खड़गे के पक्ष में जाती है वह ये कि राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष रहते हुए उन्होंने अपने सभी 31 सांसदों को जोड़कर रखा है। बीच में ये खबर आई थी कि इनमें से तीन कांग्रेसी सांसदों पर अमित शाह की नजर है और ये तीनों शाह से मिलने भी गए थे। लेकिन वक्त पर डैमेज कंट्रोल करने में खड़गे कामयाब हो गए।
खड़गे से जुड़े सूत्रों का कहना है कि भाजपा लगातार इस कोशिश में है कि वो किसी तरह कांग्रेस के कम से कम सात सांसदों को तोड़ ले ताकि कांग्रेस से विपक्ष के नेता का पद चला जाए और बाद में मोदी सरकार विपक्ष का पद ही खत्म कर दे। लेकिन खड़गे की वजह से भाजपा अभी तक अपनी कोशिशों में कामयाब नहीं हो पाई है।
हालांकि अध्यक्ष पद के लिए खड़गे के नाम को लेकर पार्टी के भीतर एक मुश्किल यह आ रही है कि ऐसे मुश्किल समय में खड़गे को पार्टी की तमाम संसदीय समितियों और जिम्मेदारियों से कैसे हटाया जाए, क्योंकि वहां उनकी क्षमताओं की वजह से पार्टी किसी तरह टिकी हुई है।
लेकिन राजस्थान के विवाद और अशोक गहलोत समर्थकों की ओर से की जा रही अनुशासनहीनता ने आलाकमान को दोबारा सोचने को मजबूर कर दिया है। दूसरी तरफ एक खबर और आ रही है कि गहलोत पार्टी अध्यक्ष बनना ही नहीं चाहते थे, लेकिन आलाकमान के पास उनका नाम जानबूझकर सचिन पायलट गुट के कुछ विधायकों ने भेजा।
जब ये तय हो गया कि गांधी परिवार ने अध्यक्ष बनने से मना कर दिया है तभी पायलट गुट ने यह रणनीति अपनाई कि अगर गहलोत अध्यक्ष बन जाते हैं तो सचिन के मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ हो जाएगा। हालांकि अब मामला उल्टा होता दिख रहा है। अध्यक्ष पद के लिए नामांकन के लिए अभी चार दिनों का वक्त बचा है और इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि पार्टी अंत समय में कोई नया नाम तय कर दे और हो सकता है कि ये नाम मल्लिकार्जुन खड़गे का हो।