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देश की राजनीति में विपक्षी एकता की चर्चा कोई नया मुद्दा नहीं है। गाहे-बगाहे और थोड़े-थोड़े अंतराल पर इसकी चर्चा भी सुनाई देती रहती है। वास्तव में विपक्ष के किसी नेता को जब अपना राजनीतिक कद और किरदार बढ़ने या ऊंचा होने का गुमान होता है तो वो विपक्षी एकता का राग ऊंचे स्वर में गाने लगता है। वर्तमान में विपक्षी एकता का सदाबहार राग का गान बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कर रहे हैं। वो अलग बात है कि जिन्हें वो ये राग सुनाना चाहते हैं, वो आधे अधूरे मन से ही उनका राग सुन रहे हैं। इसका संकेत तब मिला जब 12 जून को पटना में होने वाली विपक्षी दलों की बैठक को टालना पड़ा।
लोकसभा चुनाव में भाजपा को देश से हटाने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ओर से बुलाई गई विपक्षी दलों की महाबैठक अब 23 जून को पटना में होगी। इस महाबैठक में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी भी शामिल होंगे। इस बैठक पर देश और राजनीतिक विशलेषकों की नजरें टिकी हुई हैं।
नीतीश कुमार भारतीय जनता पार्टी के विरोध में विपक्ष के जिस मोर्चे को आकार देने के अभियान में जुटे हुए है। उसमें तृणमूल, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, तेलुगु देशम, वाईएसआर कांग्रेस और बीआरएस जैसी पार्टियों को शामिल करने का भी इरादा है।
लेकिन कांग्रेस को इनके साथ गठबंधन करने में आपत्ति भी है और संकोच भी। पंजाब और दिल्ली में कांग्रेस के अनेक नेता आम आदमी पार्टी से हाथ मिलाने के विरुद्ध हैं। वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी, सपा प्रमुख अखिलेश यादव, केसी राव जैसे नेता कांग्रेस को अपने राज्य में पैर जमाने का अवसर नहीं देना चाहते। नीतीश कुमार का फॉर्मूला ‘वन अगेंस्ट वन’ का है।
यानी अगर बीजेपी का एक उम्मीदवार है तो उसके खिलाफ विपक्षी गठबंधन का एक ही उम्मीदवार उतारा जाएगा। जैसा कि सुनने में आया था नीतीश कुमार और अखिलेश यादव ने 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 250 सीटों पर लडने का सुझाव दिया था, जिससे सभी सीटों पर भाजपा के विरुद्ध एक संयुक्त प्रत्याशी उतारकर विपक्षी मतों का विभाजन रोका जा सके।
लेकिन विपक्ष की मंशा भांपते ही कांग्रेस के रणनीतिकारों ने 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच 350 सीटों पर सीधी टक्कर का हवाला देते हुए इससे कम सीटों पर रजामंद होने से मना कर दिया। और यहीं से एकता के प्रयासों में दरार पड़नी शुरू हो गई।
कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस सोचने लगी है कि विपक्षी गठबंधन की जरूरत अब उससे ज्यादा क्षेत्रीय दलों को है। बिहार और महाराष्ट्र सहित कुछ और राज्य हैं जहां कांग्रेस के किनारा कर लेने से उन दलों की स्थिति कमजोर हो जाएगी। जहां तक बात उत्तर प्रदेश की है तो वहां उसके पास खोने को कुछ नहीं बचा जबकि उसके साथ होने से सपा को कम मतों से हारी सीटों पर ताकत मिल सकती है।
वास्तव में, नीतीश कुमार विपक्षी मोर्चे के संयोजक बनकर दबे पांव प्रधानमंत्री की दौड़ में बने रहना चाहते हैं। उन्हें उन परिस्थितियों की पुनरावृत्ति होने की उम्मीद है जिनमें एचडी देवगौड़ा और इंदर कुमार गुजराल की लॉटरी खुल गई थी। लेकिन कांग्रेस इस बार किसी भी प्रकार का खतरा मोल लिए बिना गठबंधन के अस्तित्व में आने के साथ ही प्रधानमंत्री पद का निर्णय भी कर लेना चाहती है।
इस प्रकार विपक्ष की 12 जून को होने वाली बैठक का टलना कांग्रेस की नई रणनीति का हिस्सा है जिसके अंतर्गत वह क्षेत्रीय दलों की शर्तों की बजाय अपनी शर्तों पर विपक्षी एकता को शक्ल देना चाह रही है। उसे ये भी समझ में आने लगा है कि ममता, केसी राव और अरविंद केजरीवाल के साथ गठजोड़ चुनाव बाद की परिस्थितियों में उसके लिए नुकसानदेह होगा।
कांग्रेस के अंदरखाने से ये खबर आ रही है कि राहुल गांधी चाह रहे हैं कि इसी साल होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव तक विपक्षी गठबंधन को लंबित रखा जाए। और यदि उनमें भी उसे हिमाचल और कर्नाटक जैसी सफलता मिल गई तब उसका हाथ सौदेबाजी में काफी ऊंचा हो जाएगा।
विपक्षी मोर्चे के बनने के पहले वह इस बात की प्रति आश्वस्त होना चाहेगी कि क्षेत्रीय दल उसके लिए नुकसानदेह न हों। सही मायनों में कांग्रेस विपक्षी एकता का श्रेय और नेतृत्व आसानी से किसी और नेता को देने तैयार नहीं है। राहुल की अमेरिका यात्रा से भी पार्टी में उत्साह है। उसे लगने लगा है कि गांधी ही विपक्षी नेताओं में अकेले हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर पहिचान रखते हैं।
इसलिए विपक्षी मोर्चे की कमान भी उसी के हाथ में होना चाहिए। देखना ये है कि नीतीश, ममता, अखिलेश, केसी राव और अरविंद केजरीवाल क्या कांग्रेस के झंडे के नीचे खड़ा होना पसंद करेंगे और राहुल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार स्वीकार करने की शर्त उनको मंजूर होगी? कर्नाटक चुनाव से पहले कांग्रेस आत्मसमर्पण की मुद्रा में थी।
इससे पहले विपक्षी एकता के लिए हुई बैठक में उसका रुख बेहद रक्षात्मक था। हालांकि कर्नाटक के नतीजे के बाद पार्टी एकता के लिए शर्तें रख रही है। पार्टी ने स्पष्ट संकेत दिया है कि उसका आप, बीआरएस, केरल में वाम दलों से समझौता नहीं हो सकता।
इसी शर्त के मद्देनजर नीतीश, ममता, पवार ने समझौते के लिए 474 सीटों का फार्मूला पेश किया है। 23 जून को विपक्षी दलों की होने वाली बैठक अहम है। ममता, नीतीश और पवार चाहते हैं कि कांग्रेस इसी बैठक में 474 सीटों में से महज 244 सीटों पर लड़ने के लिए राजी हो जाए। अगर कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं हुई, तो विपक्षी एकता की संभावना धूमिल हो जाएगी।
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