अप्रैल और मई के महीनों में बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम आने शुरू हुए थे, सीबीएसई और सीआइएससीई के साथ-साथ कई प्रदेशों के माध्यमिक शिक्षा बोर्डों के परीक्षाफल धोषित हो चुके हैं। बचे हुए बोर्डों के परीक्षा परिणाम भी इन पंक्तियों के छपने तक आ चुके होंगे। जैसे ही परीक्षाओं के परिणाम घोषित होते हैं, अखबार के पहले पेज उत्साह से भरे हंसते-खिलखिलाते बच्चों की छवियों से खिल उठते हैं। परीक्षा परिणाम घोषित होने के बाद हर साल फिजा में एक इंद्रधनुषी उत्सवधर्मी माहौल खिंच जाता है। इस गहमा-गहमी में हम भूल जाते हैं कि कुछ वह बच्चे जो अंकों की दौड़ में काफी पीछे रह गए हैं या फेल हो गए हैं, अभी उन पर क्या बीत रही होगी? इस बार सीबीएसई की यह पहल जरूर सराहनीय है कि उसने न तो मेरिट लिस्ट जारी की और न ही परिणामों में प्रथम-द्वितीय-तृतीय का विभाजन किया।
बच्चों में जो ढेर सारे अंक बटोर लेने की अंधी दौड़ शुरू हो चुकी है, इस अस्वस्थ्य प्रवृत्ति से बचाने की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण प्रयास है। मगर इसकी आलोचना भी हो रही है, कुछ लोगों का विचार है कि इससे बच्चों में उच्च अंक प्राप्त करने की प्रतियोगी मानसिकता पर नकारात्मक असर पड़ेगा।
वास्तव में प्रत्येक वर्ष दसवीं और बारहवीं के परीक्षा-परिणाम की घोषणा होती है, तो एक आम जिज्ञासा होती है कि कितने प्रतिशत बच्चे उत्तीर्ण हुए। सर्वोच्च अंक किसने हासिल किया। टॉप टेन में कौन-कौन स्थान बनाने में सफल हुआ। सालों साल से चलती यह परम्परा एक रूढ़ि बन चुकी है।
परिणाम आने के बाद नुक्कड़ और चौराहों की बैठकबाजी के यह खास विषय होते हैं। इसके बिनाअखबार, गाँव, मुहल्ला और स्कूलों के बीच जो उत्साहभरा माहौल बनता है, वह अधूरा लगता है। जबकि इन खास क्षणों में कम अंक लाने वाले या असफल विद्यार्थी अपने को नाकारा और अनुपयोगी महसूस करते हैं।
यह अनुभूति उनको तनावग्रस्त बनती है और वह अवसाद की घातक असर वाली सीमा में जा पहुंचते हैं। सीबीएसई ने मेरिट लिस्ट भले ही नहीं जारी की, लेकिन नेट पर बच्चों ने अपने मार्क्स देख लिए।
अकेले दिल्ली एनसीआर में ही आपेक्षित अंक न हासिल कर पाने वाले चार बच्चों ने आत्महत्या कर ली थी। परीक्षा परिणाम आने के बाद देश के अन्य हिस्सों से भी ऐसी हृदयविदारक खबरें मिलीं थीं। उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद का परीक्षा परिणाम 25 अप्रैल को आया था।
कभी यह देश का सबसे बड़ा बोर्ड ही नहीं था, बल्कि नम्बर देने के मामले में भी अत्यंत सख्त बोर्ड था। किंतु करीब एक दशक से इसमें भी वह बात नहीं रही है। इसबार तो यहां प्रतिभा का जबरदस्त विस्फोट दिखाई पड़ा। हाई स्कूल की परीक्षा में 179 मेधवियों की सूची जिलेवार निकली थी।
इस जश्न भरे माहौल में घर-परिवार और समाज से उपेक्षित करीब एक दर्जन परीक्षा में असफल हुए बच्चों ने मौत को गले लगा लिया। यह भी देखने में आया कि तेलंगाना में 10 मई को मैट्रिक का रिजल्ट घोषित हुआ और 11 मई के अखबार में हैदराबाद के विभिन्न इलाकों में पांच छात्रों की खुदकुशी की हाहाकारी खबर आ गई।
यह मौतें अखबार के एक कोने में सिमट के रह गर्इं, शिक्षातंत्र को झकझोरने में कामयाब नहीं हुईं। बच्चे के फेल होने के पीछे दसियों कारण हो सकते हैं, लेकिन उन कारणों को खोजकर बच्चे के लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था क्यों नहीं की गई? इस सवाल से स्कूल बच नहीं सकते हैं।
अंकों के ऊंचे प्रतिशत की प्राप्ति की कामयाबी के शोर में यह घटनाएं पीड़ित परिवारों के दुखी होने से इतर सार्वजनिक चिंता का सबब नहीं बन पाती हैं।
फिलहाल अंकों के पीछे भागने और ढेर सारे नंबर देने की प्रवृति इधर दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।
सोचने की बात है, किशोर पीढ़ी को इस मुहिम में धकेल के क्या हम बचपन में नाजायज हस्तक्षेप तो नहीं कर रहे? आज की तारीख में 60-65 प्रतिशत अंक पाने वाला बच्चा अपना परसेंटेज बताने में झिझकता है। 60 से 70 प्रतिशत वाले बच्चे एडमिशन की कट आॅफ मेरिट और प्रतियोगी परीक्षाओं में असफलता की आशंका से आत्महत्या करते देखे जा रहे हैं।
आखिर ऐसी स्थिति क्यों बन रही है कि किन्हीं वजहों से अगर कोई विद्यार्थी साठ-पैंसठ प्रतिशत अंक ही हासिल कर पाता है, तो खुद को पिछड़ा हुआ मान लेता है और इससे उपजी हताशा अपने जीवन को ही समाप्त कर देता है। चिंतन का विषय है कि यह धारणा किन परिस्थितियों की उपज है, जो ऊंचे अंकों को ही सफलता का मानक बना रही है।
1970 से 1990 तक 55+प्रतिशत लब्धांक ‘गुड सेकंड क्लास’ कहा जाता था, यह बड़ी उपलब्धि हुआ करती थी। 60 से 70 प्रतिशत अंक पाने वाले अति मेधावी समझे जाते थे। टॉप टेन में जगह बनाने वाले छात्र बमुश्किल 85 प्रतिशत तक अंक प्राप्त कर पाते थे। पिछली सदी के अंतिम दशक तक कम अंक पाने वाला छात्र मानसिक रूप से बहुत बेचैन नहीं होता था।
वह उच्च लब्धांक वाले बच्चों के साथ सहजता से उठता-बैठता और हंसी-ठट्ठा करता था। तब गलाकाट प्रतिस्पर्धा का दौर नहीं शुरू हुआ था। व्यक्तिगत लक्ष्य प्राप्ति की आकांक्षा के बीच शैक्षिक संवेदना और मूल्य निर्जीव नहीं हुए थे।
पहले सीबीएसई और सीआईएससीई बोर्ड अधिक नंबर देता था।
यहां के बच्चे अपनी हाई मेरिट की वजह से अच्छे कालेजों में एडमिशन में बाजी मार ले जाते थे। परिणामत: इसकी परीक्षा प्रणाली के अनुसार देश के चालीस अन्य बोर्डों ने मूल्यांकन के पैरामीटर ढीले करने शुरू कर दिए। आज यह उसी का प्रतिफल है कि बच्चे अंक बटोरने के मकड़जाल में फंसते जा रहे हैं। इसबीच कोचिंग संस्कृति का खूब विकास हो चुका है।
यह संस्थान अलग से बच्चों को ढेर सारे नंबर दिलाकर जिंदगी में आगे रहने का सपना दिखाते रहते हैं। एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या कक्षा कक्ष में अच्छा प्रदर्शन ही श्रेष्ठता का द्योतक है? बच्चे के कुछ अन्य व्यवहारिक पहलू होते हैं, जो व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होते हैं, जैसे-नेतृत्व क्षमता, कलात्मक अभिरुचियां, मैत्री, संवाद कौशल, प्रकृति और परिवेश के प्रति सजगता, निर्णय लेने का विवेक, खेलकूद, सहयोग आदि।
विद्यालय के स्तर पर ‘सतत एवं व्यापक मूल्यांकन’ में इसके लिए अंक भी निर्धारित हैं। मगर यह नम्बर भी कक्षा-कक्ष में बेहतर प्रदर्शन करने वालों को ही मिल जाते हैं। यानी स्कूल से ही नम्बरों का संतुलन बिगड़ना शुरू हो जाता जाता है। अंकों की दौड़ पर लगाम लगाने के लिए ही सीयूईटी की परीक्षाएं आयोजित होना शुरू हुई हैं, यह बच्चों को वार्षिक परीक्षा के रिपोर्ट कार्ड से इतर अच्छे कालेजों में प्रवेश के लिए एक और प्रयास का अवसर प्रदान करती है।
नंबरों पर टिकी सफलता-असफलता की सीमा से बाहर निकलकर बच्चे वह करने को सोचें, जो कर सकते हैं। अभिभावकों को जानना चाहिए कि हर बच्चा अद्वितीय है, अद्भुत और अतुल्य है। उसे उसके हिसाब से चलने दें। वह मनमाफिक क्षेत्र में जरूर कुछ कर गुजरेगा।