- मरीज हैं मगर ओपीडी में डाक्टर नहीं, दवा पर्चे पर हैं काउंटर पर नहीं
- स्ट्रेचर है उस पर मरीज को लेकर जाने वाले वार्ड ब्वॉय नहीं
जनवाणी संवाददाता |
मेरठ: प्रमुख सचिव स्वास्थ्य व जिला के प्रभारी मंत्री का दौरा भी प्यारेलाल जिला अस्पताल को लगी बद इंतजामी की बीमारी को दूर नहीं कर सका। बद इंतजामी की यदि बात की जाए तो उसकी पोल तो पहले ही जिला के प्रभारी मंत्री के अस्पताल के औचक निरीक्षण के दौरान खुल चुकी है।
प्रभारी मंत्री के सामने अस्पताल की बद इंतजामियों की जो पोल भुक्त भोगियों ने खोली उसके बाद उम्मीद की जा रही थी कि हालात सुधर जाएंगे, लेकिन ऐसा हो ना सका। बल्कि यूं कहें कि हालात जस के तस बने हुए हैं। प्रमुख सचिव स्वास्थ्य और प्रभारी मंत्री की फटकार भी जिला अस्पताल को चलाने वाले सिस्टम के अफसरों का इलाज नहीं कर सकी।
जिला अस्पताल में मरीज तो हैं, पर ओपीडी में डाक्टर नहीं
जिला अस्पताल में इन दिनों ओपीडी में भारी भीड़ चल रही है। बड़ी संख्या में बुखार के मरीज पहुंच रहे हैं। मरीजों व उनके साथ आने वाले तिमारदारों के कारण ओपीडी में कई बार तो हालात इतने खराब होते हैं कि तीमारदारों को मरीज को फर्श पर ही लिटा देना पड़ता है।
ओपीडी में आने वाले भुक्त भोगियों का कहना है कि कई बार पर्चा काउंटर से ओपीडी के जिस रूम नंबर में जाने को कहा जाता है, उसमें डाक्टर ही नहीं होते। डाक्टर की सीट खाली होती है और साइड में पडेÞ स्टूल पर बैठने वाला शख्स ही मरीजो को अटैंड करता है। ऐसा आए दिन होता हे।
अस्पताल के काउंटर पर नहीं मिलती दवाएं
जिला अस्पताल आने वाले मरीजों व उनके तीमारदारों की सबसे ज्यादा शिकायत दवाओं को लेकर है। वो बताते हैं कि ओपीडी में बैठने वाले मरीजों के लिए जो दवाएं पर्चे पर लिखती हैं उनमें से सभी दवाएं कभी भी अस्पताल के पर्चा काउंटर पर नहीं मिलती हैं।
कई बार ऐसा होता है कि डाक्टर पर्चे पर पांच प्रकार की दवाएं लिखते हैं, लेकिन काउंटर पर उनमें से दो या तीन दवाएं ही मिलती हैं। बाकी दवाएं फिर आकर ले जाने या फिर जरूरी हो तो सामने मेडिकल स्टोर से खरीद लो कह दिया जाता है। मरीजों का कहना है कि यदि महंगी दवा खरीदने के पैसे होते तो इलाज सरकारी अस्पताल में क्यों कराते।
मरीजों की बेकद्री
अस्पताल में ग्राउंड जीरों पर जाने से पता चला कि सबसे ज्यादा बेक्रदी मरीजों खासकर उन मरीजों की है जो जिन बेचारों के साथ उनके परिवार का कोई सदस्य या तीमारदार नहीं होता। ऐसे मरीज ज्यादातर वो होते हैं जो किसी हादसे में घायल हो गए होते हैं।
पुलिस या सामाजिक संगठनों द्वारा अस्पताल की इमरजेंसी में मरहम पट्टी के लिए भेज दिए जाते हैं। ऐसे मरीजों की मरहम पट्टी के बाद कोई ऐसा भी नजर नहीं आता कि उन्हें दो घूंट पानी पिला दे। ऐसे मरीज अक्सर अस्पताल में देखने को मिल जाते हैं।
स्ट्रेचर हैं, वार्ड ब्वॉय नहीं
अस्पताल में सबसे बुरी दशा उन मरीजों की है जो चल फिर नहीं सकते। हालांकि ऐसे मरीजों के लिए स्ट्रेचर और व्हीलचेयर हैं, लेकिन यदि किसी मरीज के साथ तीमारदार नहीं है तो वो घंटों स्ट्रेचर पर ही पड़ा रहेगा। इसके अलावा वार्ड ब्वॉय न मिलने की वजह से अक्सर मरीजों की स्ट्रेचर उनके तिमारदार ही खींचते देखे जा सकते हैं।
कई बार ऐसा होता है कि तीमारदार खुद इतने बीमार और कमजोर नजर आते हैं कि लगता है कि मरीज की बगल में स्ट्रेटर खींचने वाले तीमारदार को भी लिटाने की नौबत आ सकती है। जिला अस्पताल को लेकर ऐसी बद इंतजामियों की एक लंबी सूची है।
केवल ओपीडी या वार्ड ही नहीं जहां तक नजर जाती है वहां बद इंतजामी का आलम नजर आता है। पिछले दिनों प्रमुख सचिव स्वास्थ्य व प्रभारी मंत्री के दौरे के बाद इस हालात सुधारने की जो उम्मीद की जा रही थी वो उम्मीद अभी पूरी होती नजर नहीं आ रही है।