Friday, March 29, 2024
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रोजगार के मोर्चे पर नाकाम केंद्र

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15 23आज चाहे देश में कोई भी इसे गंभीरता से न लेता हो, चाहे यह अपना (कटाक्ष करने के लिए भी) यथार्थ खो चुका हो लेकिन 2014 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी और भाजपा की कामयाबी में दो करोड़ रोजगार देने के प्रतिवर्ष के नारे (अब जुमला हो गया है) का बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। एक ऐसा माहौल बना था देश में कि सब नौजवानों सहित उनके परिवारों में आशा की एक किरण जगी थी। अगर हम याद करें तो मोदी के चुनाव अभियान में युवा और उनका रोजगार केंद्र में था। दूसरा मुख्य नारा था विदेशी धन और किसानों की स्थिति।

दरअसल भाजपा ने सही चिन्हित कर लिया था कि भारत नौजवानों का देश है। पुराने मतदाताओं को लुभाने से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है नए मतदाताओं को आकर्षित करना। तो मोदी जी बन गए नौजवानो के नेता और उनकी आशाओ को जोड़ लिया अपने अभियान के साथ। लेकिन पिछले नौ वर्षो में नौजवान न केवल भाजपा के एजेंडे से हाशिये पर गए है बल्कि भाजपा अपने चुनावी वादे से न केवल पलटी है बल्कि नौजवानों के भविष्य के खिलाफ एक जंग छेड़ रखी है। अब जब हमारा देश चुनावी वर्ष में प्रवेश कर गया है और इससे पहले कि भाजपा अपनी चुनावी मशीनरी के जरिये देश को फिर से सम्मोहित करते हुए असल मुद्दों से दूर लेकर जाने की प्रक्रिया शुरू कर दें।

देश में बेरोजगारी नई ऊंचाई पर पहुंच गई है। भारत में दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी है और भारत में युवाओं के बीच बेरोजगारी दर बहुत अधिक है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के अनुसार देश में बेरोजगारी की दर 7.45 प्रतिशत तक पहुंच गई है। सीएमआईई के अनुसार वर्ष 2017-22 के बीच कुल श्रम भागीदारी दर 46 प्रतिशत से गिरकर 39.8 प्रतिशत हो गई है।

हर वर्ष लाखों लोग काम की आयु में प्रवेश कर रहें हैं। लेकिन उनके लिए रोजगार नहीं है। इसके चलते बहुत से लोगों ने काम ढूंढना ही बंद कर दिया है। सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों के लिए कोचिंग और तैयारी में करोड़ों युवा लगे हुए हैं और केंद्र सरकार इस गंभीर समस्या के समाधान के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है। अकेले सरकारी विभागों में ही 10 लाख से ज्यादा पद खाली पड़े हैें जनवरी 2023 में हमारे देश में रोजगार में लगे हुए लोगों की संख्या केवल 40.9 करोड़ रह गई थी जबकि महामारी के पहले के समय (जनवरी 2020) में काम में लगे हुए लोगों की संख्या 41.1 प्रतिशत थी।

बेरोजगारी का एक बड़ा कारण है धीमी आर्थिक विकास दर और रोजगार विहीन विकास। अगर स्थिति को और ज्यादा साफ समझना हो दो हमें असल मजदूरी (रियल वेज) का आकलन करना चाहिए। मोदी सरकार के पिछले नौ वर्षों में रियल वेज में वृद्धि दर बहुत ही कम है। वर्ष 2014-15 की कीमतों पर मापी गई मजदूरी कृषि, गैर-कृषि और निर्माण क्षेत्र के मजदूरों के लिए लगभग स्थिर बनी हुई है। 2014-15 और 2021-22 के बीच, वास्तविक मजदूरी (मुद्रास्फीति को जोड़े बिना) खेत मजदूरों के लिए 225 से 240 रुपये, गैर कृषि के मजदूरों के लिए 234 से 245 रुपये और निर्माण क्षेत्र के मजदूरों के लिए 275-280 रुपये रही।

कुल मिलकर प्रतिवर्ष खेत मजदूरों, गैर कृषि मजदूरों और निर्माण मजदूरों के असल मजदूरी में क्रमश केवल 0.9 प्रतिशत ,0.2 प्रतिशत और 0.3 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। केवल मजदूरों की मजदूरी में ही बढ़ोतरी नहीं रूक गई है बल्कि कृषि आय में कमी आई है, क्योंकि खेती की लागत में वृद्धि हुई है और उत्पादन की कीमतों में आनुपातिक रूप से वृद्धि नहीं हुई है, (और कई मामलों में तो इसमें वास्तव में गिरावट ही आई है)। 10 सितंबर, 2021 को राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा प्रकाशित ‘ग्रामीण भारत में कृषि परिवारों और भूमि और पशुधन की स्थिति का आकलन, 2019’ पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 77वें दौर के अनुसार, खेती से होने वाली प्रति व्यक्ति औसत आय एक दिन में केवल रुपये 27 रुपए या मासिक औसत 816.50 रुपए है।

2013 के सर्वेक्षण के परिणामों की तुलना में कृषि आय वास्तविक रूप से कम हुई है। भाजपा सरकार का दावा है कि 2013 में पिछले सर्वेक्षण के बाद के वर्षों में, औसत किसान परिवार की आय 2019 में 6,442 रुपये से बढ़कर 10,218 रुपये हो गई है। 2013 में एक किसान खेती से 3,081 रुपये कमाता था, जो आधार वर्ष 2012 के मूल्य पर 2,770 रुपये के बराबर था। वर्ष 2019 में फसलों की खेती से किसानों की मासिक आय रुपए 3,798 थी, जो वर्ष 2012 को आधार वर्ष मानने पर 2,645 रुपए होगी।

दूसरे शब्दों में, 2013 और 2019 के बीच फसल उत्पादन से आय में वास्तव में लगभग 5 प्रतिशत की गिरावट आई है। ये आंकड़े महामारी और लॉकडाउन से पहले के एक सर्वेक्षण पर आधारित हैं। लॉकडाउन को मनमाने तरीके से लागू करने के कारण फसल कटाई और विपणन संकट के कारण किसानों के सभी वर्गों को आय का नुकसान हुआ है। नोटबंदी के समय से किसानों और खेत मजदूरों को आय में भारी नुकसान हो रहा है और यह समस्या महामारी के कारण और बढ़ गई है।

बेरोजगारी और कम आय का सीधा प्रभाव भोजन की उपलब्धता पर पड़ता है। प्राप्त अनाज उपलब्ध होने के बावजूद भी लोग भूखे रहने के लिए मजबूर हैं। और कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। इसका परिणाम है कि वैश्विक भूख सूचकांक में भारत की रैंकिंग वर्ष 2021 में 121 देशों में से 101 से गिरकर वर्ष 2022 में 107 हो गई है। इसे ठीक करने के लिए कोई उपाय करने के बजाय, वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार ने भूख-सूचकांक को ही बदनाम करने की कोशिश की है। लेकिन जब वे सत्ता से बाहर थे, तब उन्हें यह सूचकांक स्वीकार्य था।

एफएओ के अनुमान के अनुसार, भारत में 22 करोड़ से अधिक लोगों को लगातार भूख का सामना करना पड़ रहा है और 2020 में 62 करोड़ लोगों को मध्यम से गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना करना पड़ा। वैश्विक संदर्भ में, अकेले भारत में लगातार भूख से पीड़ित लगभग एक तिहाई लोग और खाद्य असुरक्षा से जूझ रहे एक चौथाई लोग रहते हैं।

अपने नागरिकों को भाजपा सरकार न रोजगार मुहैया करवा पा रही है और न ही सबके लिए भोजन की व्यवस्था ही कर पा रही लेकिन देश के कॉरपोरेट को मुनाफा कमाने में लगातार मदद कर रही है। पिछले 9 वर्षों में 11 लाख करोड़ रुपए से अधिक के ऋण बट्टे खाते में डाल दिए गए हैं। इन कॉपोर्रेटों को भारी कर रियायतें भी दी गई हैं, जिससे शुद्ध कर संग्रह में लाखों करोड़ रुपये की गिरावट आई है। भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने पिछले नौ वर्षों के दौरान कॉरपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ के एजेंडे को आगे बढ़ाया है।

देश के संवैधानिक ताने-बाने और लोगों के जीवन पर बड़ा हमला हुआ है। भारतीय जनता सांप्रदायिकता और कॉरपोरेट लूट के संयुक्त हमले का सामना कर रही है। परजीवी पूंजीवाद सांप्रदायिक शासन का समर्थन करता है और वे दोनों मेहनतकश जनता के शोषण को सुविधाजनक बनाने के लिए एक-दूसरे का समर्थन कर रहे हैं।


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