Wednesday, December 4, 2024
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जबरदस्ती की जीएम सरसों

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bharat dograहाल में जीएम (जेनेटिकली मॉडीफाइड) सरसों पर विवाद फिर तेज हुआ है क्योंकि इसके साथ भारत में इन फसलों की शुरुआत की जा रही है। जीएम फसलों के विरोध की एक मुख्य वजह यह रही है कि ये फसलें स्वास्थ्य व पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित नहीं हैं तथा उसका असर जेनेटिक प्रदूषण के माध्यम से अन्य सामान्य फसलों व पौधों में फैल सकता है। इस विचार को इंडिपेंडेंट साइंस पैनल ने बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है। इस पैनल में शामिल विश्व के अनेक देशों के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने जीएम फसलों पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज तैयार किया जिसके निष्कर्ष में उन्होंने कहा कि-‘जीएम फसलों के बारे में जिन लाभों का दावा किया गया था वे प्राप्त नहीं हुए हैं। अब इस बारे में व्यापक सहमति है कि इन फसलों का प्रसार होने पर ट्रान्सजेनिक प्रदूषण से बचा नहीं जा सकता। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि जीएम फसलों की सुरक्षा प्रमाणित नहीं हो सकी है। इसके विपरीत पर्याप्त प्रमाण हैं जिनसे इन फसलों की सुरक्षा संबंधी गंभीर चिंताएं उत्पन्न होती हैं। यदि इनकी उपेक्षा की गई तो स्वास्थ्य व पर्यावरण की ऐसी क्षति होगी जिसे फिर ठीक नहीं किया जा सकता। जीएम फसलों को अब दृढ़ता से खारिज कर देना चाहिए।’ वैज्ञानिकों के मुताबिक इन फसलों से जुड़े खतरे का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि जब वे पर्यावरण में फैलेंगे तो उन पर हमारा नियंत्रण नहीं रह जाएगा।

जेनेटिक प्रदूषण का मूल चरित्र ही ऐसा है। वायु-प्रदूषण या जल-प्रदूषण के कारणों का पता लगाकर उन्हें नियंत्रित किया जा सकता है, पर पर्यावरण में पहुंचा जेनेटिक प्रदूषण हमारे नियंत्रण से बाहर हो जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों को केवल इस लिए परेशान किया गया या उनका अनुसंधान बाधित किया गया क्योंकि उनके अनुसंधान से जीएम फसलों के खतरे पता चलने लगे थे। इसके बावजूद निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जीएम फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं।

जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक जेनेटिक रूलेट : द गेम्बल आॅफ अवर लाइफ के 300 से अधिक पृष्ठों में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप उपलब्ध है। किताब में चूहों पर हुए अनुसंधानों में पेट, लिवर, आंतों जैसे विभिन्न महत्त्वपूर्ण अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने, जीएम उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने और इनसे मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।

जब 2009-10 में भारत में बीटी बैंगन के संदर्भ में जीएम के विवाद ने जोर पकड़ा तो विश्व के 17 विख्यात वैज्ञानिकों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस बारे में नवीनतम जानकारी उपलब्ध करवाई। पत्र में कहा गया कि जीएम प्रक्रिया से गुजरने वाले पौधे का जैव-रसायन बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाता है जिससे उसमें नए विषैले तत्त्वों का प्रवेश हो सकता है और उसके पोषक गुण कम या बदल सकते हैं। जीव-जंतुओं को जीएम खाद्य खिलाने पर आधारित अनेक अध्ययनों से गुर्दे (किडनी), यकृत (लिवर), पेट व निकट के अंगों (गट), रक्त-कोशिकाओं, रक्त- जैव-रसायन व प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी सिस्टम) पर नकारात्मक असर सामने आ चुके हैं।

जीएम फसल बीटी कपास या उसके अवशेष खाने या ऐसे खेत में चरने के बाद अनेक भेड़-बकरियों के मरने व अनेक पशुओं के बीमार होने के समाचार मिले हैं। डा. सागरी रामदास ने इस मामले पर विस्तृत अनुसंधान किया है। उनके मुताबिक ऐसे मामले विशेषकर आंध्रप्रदेश, हरियाणा व तेलंगाना में सामने आए हैं, पर अनुसंधान-तंत्र ने इस पर बहुत कम ध्यान दिया है। भेड़-बकरी चराने वालों ने स्पष्ट बताया कि सामान्य कपास के खेतों में चरने पर ऐसी स्वास्थ्य समस्याएं पहले नहीं देखी गईं, जीएम फसल के आने के बाद ही ये समस्याएं देखी गईं हैं।

हरियाणा में दुधारू पशुओं को बीटी काटन बीज व खली खिलाने के बाद उनमें दूध कम होने व प्रजनन की गंभीर समस्याएं सामने आर्इं हैं। कृषि व खाद्य क्षेत्र में जेनेटिक इंजीनियरिंग मात्र छ:-सात बहुराष्ट्रीय कंपनियों (व उनकी सहयोगी या उप-कंपनियों) के हाथ में केंद्रित है। ये कंपनियां पश्चिमी देशों, विशेषकर अमेरिका की हैं। इनका उद्देश्य जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से विश्व कृषि व खाद्य व्यवस्था पर ऐसा नियंत्रण स्थापित करना है जैसा विश्व इतिहास में आज तक नहीं हुआ है।

हाल ही में देश के महान वैज्ञानिक प्रोफेसर पुष्प भार्गव का निधन हुआ है। वे सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बॉयलाजी, हैदराबाद के संस्थापक-निदेशक व नेशनल नॉलेज कमीशन के उपाध्यक्ष रहे। सुप्रीम कोर्ट ने प्रो. पुष्प भार्गव को जेनेटिक इंजीनियरिंग एप्रूवल कमेटी (जीईएसी) के कार्य पर निगरानी रखने के लिए नियुक्त किया था। प्रो. पुष्प भार्गव ने प्रखरता के साथ जीएम फसलों का बहुत स्पष्ट और तथ्य आधारित विरोध किया।

बिजनेस लाईन (नवंबर 5, 2015) में द केस फॉर बैनिंग जीएम क्राप्स या जीएम फसलों पर प्रतिबंध लगाना क्यों जरूरी है शीर्षक से उन्होंने एक महत्वपूर्ण लेख लिखा था। इसमें उन्होंने लिखा, ‘आज संदेह से परे बहुत से प्रमाण हैं कि जीएम फसलें मनुष्यों व अन्य जीवों के स्वास्थ्य के लिए, पर्यावरण व जैव-विविधता के लिए हानिकारक हैं।’

इसी लेख में उन्होंने कहा, ‘यदि हम सही विज्ञान के प्रति प्रतिबद्ध हैं व अपने नागरिकों को स्वस्थ्य भोजन उपलब्ध करवाना चाहते हैं तो हमने जैसे जीएम बैंगन पर प्रतिबंध लगाया था वैसे ही हमें जीएम सरसों पर भी प्रतिबंध लगा देना चाहिए। हमें सभी जीएम फसलों को नहीं कह देना चाहिए, जैसा कि यूरोपियन यूनियन के 17 देशों ने कह दिया है।’ उन्होंने आगे कहा कि कृषि पर स्थाई संसदीय समिति व सुप्रीमकोर्ट द्वारा नियुक्त तकनीकी विशेषज्ञ समिति ने भी सैद्धांतिक तौर पर ऐसी ही संस्तुति की है।

जीएम खाद्यों से जो अनेक स्वास्थ्य समस्याएं जुड़ी हैं वे विशेषकर तिलहन फसलों के संबंध में और भी गंभीर हैं, क्योंकि इनसे प्राप्त खाद्य तेलों का उपयोग लगभग सभी तरह के भोजन में होता है। सरसों की तो पत्तियां खाई जाती हैं व इसका औषधीय उपयोग भी होता है। अनेक विशेषज्ञ पहले ही बता चुके हैं कि जीएम सरसों के माध्यम से उत्पादकता बढ़ाने के दावे निराधार हैं। अनेक डाक्टरों व स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने इसके स्वास्थ्य संबंधी खतरों के बारे में चेतावनी दी है। दूसरी ओर सरकारी पक्ष द्वारा अन्य जीएम फसलों को लाने की बात भी हो रही है। इस तरह जीएम लॉबी का भारत पर बहुत बड़ा हमला आरंभ हो चुका है। अब देखना है कि हम भारतीय कृषि व खाद्य व्यवस्था की इस हमले से रक्षा कर पाते हैं कि नहीं।


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