Thursday, December 12, 2024
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पहाड़ों में बढ़ता आर्थिक असंतुलन

 

Samvad 30


Islam Hussainसरकारों द्वारा किसानी, बागवानी और परम्परागत धंधों को मदद करने के बजाए पर्यटन के विस्तार से पहाड़ में आर्थिक असंतुलन बढ़ रहा और पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। जिससे पहाड़ के लोगों में भारी आक्रोश देखने को मिल रहा है। सरकार पहाड़ में स्थानीय खेती-किसानी, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य के मुद्दों पर केंद्रित करने की जगह लोगों का ध्यान भटका रही है।
हिमालय के मैदानी इलाकों में इस बार मार्च से गर्मी बढ़ रही थी अप्रैल आते-आते मई और जून के बराबर गर्मी पड़ने लगी है। मैदानी लोग गर्मी से राहत पाने के लिए पहाड़ों की तरफ भागने लगे हैं। लेकिन गर्मी तो पहाड़ में भी लगातार बढ़ी है, पर्यावरण और पारिस्थितिकी बदल रही है, पहाड़ में रहने सहने के हालात मुश्किल होते जा रहे हैं, तब पहाड़ के लोग क्या करें ? ऊपर से सैलानियों के हुजूम का दबाव। इस दोहरी तिहरी मार में पहाड़ के लोगों के हालात से रूबरू होने का मौका हाल में हुए सम्मेलन में देखने को मिला।

पिछले दिनों मशहूर पर्यटन स्थल मुक्तेश्वर के पास सूपी में आयोजित नैनीताल जिले की रामगढ़ फल पट्टी के एक दर्जन गांवों के करीब 400 कृषकों और बागवानों और महिलाओं का यह सम्मेलन योजनाकारों, सरकार प्रशासन और राजनैतिक दलों को एक सीधा और साफ संदेश दे गया है। इस सम्मेलन में कृषकों और बागवानों ने बदलते मौसम और पारिस्थितिकी से लेकर पर्यटन प्रदूषण तक के मुद्दों पर चर्चा करके यह सोचने को मजबूर कर दिया कि सेमिनारों और गोष्ठियों में जिन मुद्दों और समस्याओं पर अंतहीन और बेमतलब बहस होती है।

उनका निदान गांव के लोगों के पास है। और वो भरसक अपने प्रयास भी कर रहे हैं। वो सफल हो जाते अगर बिगाड़ पैदा करने वाले अपनी हरकतों से बाज आ जाएं। यह ठीक ऐसा ही हो रहा है जैसा लॉकडाउन के दौरान देखने को मिला। कुदरत में अपने को सहेजने और संवारने की ताकत है, बशर्ते उसको बर्बाद करने वाले ना हों।

नैनीताल जिले में रामगढ़ मशहूर फल पट्टी करीब 200 वर्गीय किलोमीटर की है, जिसमें रामगढ़,भीमताल धारी, बेतालघाट और ओखलकांडा विकास खंडों के 100 से अधिक गांव आते हैं। यह क्षेत्र जहां फलों मौसमी सब्जियों मसालों और परम्परागत लघु खाद्यान्न के लिए जाना जाता है, वहीं यह इलाका पारिस्थितिकी और पर्यावरण अनुकूलन का बेहतरीन नमूना भी है।

यही वह इलाका है, जहां हिमालयी क्षेत्र के बाद सबसे ज्यादा ठंड पड़ी थी। जिसके कारण हिमाचली सेब से अस्तित्व से पहले यहां का रायल डेलीसस सेब देश का बेहतरीन सेब माना जाता था। और कुफरी के आलू से पहले यहां का आलू हल्द्वानी के आलू के नाम से जाना जाता था। यहां के जंगलों और ऊंचे पहाड़ों से सैकड़ों निकलने वाले पानी के स्रोत और गधेरे इस इलाके और मैदानी इलाकों को सींचते हैं।

लेकिन पिछले तीस चालीस साल से यह इलाका विकास की कब्रगाह बनता जा रहा है। उत्तराखंड बनने के बाद यहां की हालत और भी बद से बदतर होती गई है। जंगल तबाह होते गए, पानी के स्रोत और झरने सूखते गए, बागवानी खत्म होती गई। इसका नतीजा यह रहा कि ना अब यहां अच्छा सेब होता है और ना यहां के लोगों के लिए जीने लायक फसल होती है। पर्यटन और सैर सपाटे पर आधारित विकास का जो नया मॉडल यहां आया है|

वह विजातीय ही नहीं इलाके के कुदरती निजाम को तहस-नहस करने वाला है। इस विकास से स्थानीय निवासियों में हर तरह का दुर्गुण आ गया है। खेती और बागवानी की जमीनें जो बाजार के सापेक्ष कम उत्पादन और आमदनी देने लगीं थीं, वो होटल रिजोर्ट और गेस्टहाउस में बदलने लगीं। और उसके साथ और बुराइयां भी घर करने लगीं। इस मकड़ जाल में बाहरी और स्थानीय दोनों बराबर शामिल हो गए हैं। लेकिन इसका नकारात्मक प्रभाव आगे आने वाली नई पीढ़ी पर और परिवेश पर तो पड़ ही रहा है|

स्थानीय पर्यावरण पर बहुत घातक प्रभाव पड़ रहा है। यहां बनने वाले रिजोर्ट और होटलों ने स्थानीय पानी के स्रोतों, गधेरों और रास्तों पर कब्जा करना आरंभ कर दिया है, अपने कचरे और मलवे से पानी के निकास और कलमठ बंद कर दिए हैं।

प्लास्टिक कचरे से नदी नाले बर्बाद हो रहे हैं। ऊंचाई वाले स्थानों पर बने होटल और रिजार्ट के मलवे कचरे और गंदगी से निचले स्थानों की आबादी का जीवन दूभर हो रहा है। कई जगह भवन निर्माण के मलवे से पानी का बहाव रुका है जिसने निचले इलाकों में बहुत नुकसान पहुंचाया है।

क्षेत्रीय ग्रामीण सरकार से इस अनियोजित और अनियमित पर्यटन को रोकने और नियमन की मांग कर रहे हैं। स्थानीय होटलों और रिजार्ट के मालिकों से भी अपेक्षा कर रहे हैं कि वह पर्यटन गतिविधियों को शालीनता से चलाएं, प्लास्टिक व अजैविक कचरे का उचित निस्तारण करें। स्थानीय परिस्थितिकी गाड़ गधेरों रास्तों और के पानी स्रोतों से छेड़छाड़ न करें। लेकिन ऐसा नहीं हो? रहा है जिससे स्थानीय समुदाय में रोष पनप रहा है।

अपने सीमित संसाधनों से स्थानीय समुदाय भी क्षेत्र की समस्याओं को दूर करने का प्रयास कर रहा है। क्षेत्र में अनेक स्वैच्छिक संगठन अपने स्तर से प्रयास करते रहते हैं, किसानों बागवानों और महिलाओं के एक अनौपचारिक संगठन जनमैत्री ने भी क्षेत्र में पानी के 600 जल संग्रहण टैंक बनाकर तथा वृक्षारोपण आदि करके क्षेत्र की आर्थिकी और पारिस्थितिकी को संरक्षित करने का सराहनीय प्रयास किया है।

लेकिन फिर समस्या का स्तर बड़ा होने से यह प्रयास सीमित प्रभाव वाले हैं। क्षेत्र की समस्याएं बढ़ती जा रहीं हैं विसंगतियों की खाई चौड़ी होती जा रही है यह सब स्थानीय समुदाय के लिए चिंता का विषय है।

पर्वतीय क्षेत्रों में जो कंक्रीट के जंगल लगातार बढ़ रहे हैं वन और भूमाफिया के बढ़ते कारोबार के कारण जमीन, खेती किसानी और बागवानी बचानी मुश्किल हो रही है, उसका उपाय और उपचार क्या हो। और पर्यटकों द्वारा जो पर्यावरण के प्रति असंवेदनशीलता व गैरजिम्मेदार व्यवहार दिखाई दे रहा है|

वो कैसे रुके? यह बड़ी चिंता का विषय है। ग्रामीण तो जो काम वो पीढ़ी दर पीढ़ी करते चले आ रहे हैं उसको और व्यवस्थित तरीके से करेंगे लेकिन जो बाहर से आकर बिगाड़ पैदा कर रहे हैं उनसे कैसे निजात मिले?

बिना सरकारी और संस्थागत मदद और आधारभूत ढांचे में निवेश के क्षेत्र की हालत नहीं सुधरेगी। क्षेत्रीय किसान और बागवान बहुत धैर्य से सरकार के सहयोग की अपेक्षा कर रहे हैं, यदि सरकार ने इस बारे में विचार नहीं किया तो क्षेत्र के लोगों का धैर्य खत्म हो जाएगा।

गांधीवादी तरीके से अपनी बात कहने वाले यह ग्रामीण गांधी जी की तरह के डायरेक्ट एक्शन करने लगें तो क्या होगा यह विचारणीय है। यह सवाल क्षेत्र के हर संवेदनशील व्यक्ति के सामने है जो जरा भी जन सरोकारों से जुड़ा है।


janwani address 171

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