दुष्यंत कुमार की एक बेहद प्रासंगिक कविता की पंक्तियां हैं-वो सलीबों के करीब आए तो हमको/कायदे-कानून समझाने लगे हैं…यह खबर फैल रही है कि प्रधानमंत्री की मुख्यमंत्रियों के साथ हुई बैठक को लाइव कर के दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शासकीय नियमों और प्रोटोकॉल का उल्लंघन किया है। प्रधानमंत्री ने आपत्ति की और केजरीवाल ने विनम्रता से माफी मांग ली। माफी मांगने का अंदाज, एक राजनेता और मुख्यमंत्री का कम और एक नौकरशाह का अधिक था। इसका कारण है अरविंद केजरीवाल का कभी नौकरशाह रहना। उन्होंने कहा कि आइंदा से वह ध्यान रखेंगे। अब आइंदा से वे क्या करेंगे जब आइंदा कुछ हो, तो उस पर आइंदा ही बात होगी। फिलहाल तो इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया है। इस प्रोटोकॉल प्रकरण ने अनेक नए सवालों को जन्म दे दिया है, जो गवर्नेंस से संबंधित हैं। सरकार के कामकाज में पारदर्शिता से संबंधित हैं और ऐसे आफत के काल में जब सरकार का जनता में विश्वास का सूचकांक बेहद कम हो गया है तो उस विश्वास बहाली के लिये सरकार क्या कर रही है और उसे क्या करना चाहिए, यह सारे सवाल देशभर में लोगों के मन में उमड़ रहे हैं।
एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता और उसका हित सर्वोपरि होता है। यह पगड़ी, क्षत्र, चंवर, बल्लम, तुरही, नियम, कायदे सब के सब महत्वपूर्ण हों या न हों, पर जनता का हित इन सबकी मयार्दाओं से ऊपर होता है। शासन में कुछ चीजों को गोपनीय रखने के भी नियम हैं और कुछ चीजों को गोपनीय रखा भी जाता है, तो उसका भी परम उद्देश्य यही है कि वे जनहित में ही पोशीदा रखी गयी है।
सत्ता यानी सामर्थ्यवान लोग, अक्सर प्रोटोकॉल की बातें तभी करते हैं, जब संकट में अपनी भूमिका के खोखलेपन को उजागर होते देखते हैं। घर में जब एक बच्चा या युवा अपने से बड़ों से तर्कपूर्ण बात करने लगता है तो यही सुनने को मिलता है कि बहुत अधिक जुबान चलने लगी है तुम्हारी और बड़े छोटे का कोई लिहाज ही नहीं रहा। सारा तर्क, सारे सवाल प्रोटोकॉल के इस फर्जी तिलस्म में खो कर रह जाते हैं।
सरकारी मीटिंग में भी जिन लोगों को भाग लेने का अवसर मिला है या मिलता है, वे इसे बेहतर तरीके से समझ सकते हैं कि बहुत मुखर और नियम कानून बता कर समस्या का हल बताने वाले अधीनस्थ, बॉस को कम ही सुहाते हैं। बॉस की नीतियों पर सवाल उठाना तो कभी-कभी ईशनिंदा ही मान ली जाती है। वहां भी यही सुनने को मिलता है कि ज्यादा ज्ञान न बघारिये, जो कहा जाए वह करिए। मैं तो एक ऐसी सेवा में रहा हूं, जहां यही सुनने की आदत थी कि आदेश का पालन होगा और सब बेहतर है सर। यह एक टिपिकल ब्यूरोक्रेटिक माइंडसेट है। यह कहानी इन सात सालों की नहीं है बल्कि यह लंबे समय से चली आ रही है।
प्रधानमंत्री जी की मीटिंग में अरविंद केजरीवाल ने कहा क्या, यह बात अब गौण हो गयी है और सारा विमर्श इस पर केंद्रित हो गया है कि उन्होंने यह सब कहा क्यों? यह एक निजी मुलाकात नहीं थी और न ही ऐसी मीटिंग थी जिसमें देश की सीमाओं और अंतरराष्ट्रीय राजनय के बेहद संवेदनशील मामलों पर चर्चा हो रही थी। यह मीटिंग हो रही थी, कोरोना के दूसरी लहर से जो मौत का मंजर चारों तरफ फैला हुआ है, से निपटने के लिए। प्रधानमंत्री को उन उपायों का उल्लेख करना था जो उनकी सरकार इस समस्या से निपटने के लिए कर रही है और उन्हें अपने राज्यों के मुख्यमंत्री से फीडबैक भी लेना था कि जो कुछ केंद्र सरकार कर रही है, क्या वह जमीन तक उनके राज्यों में पहुंच रहा है।
केजरीवाल ने यही तो कहा कि उनके यहां आॅक्सीजन का कोटा बढ़ा दिया जाए और फिर उन्होंने प्रधानमंत्री का आभार भी व्यक्त किया कि उन्होंने कोटा बढ़ा दिया है। बस एक सवाल जरूर उन्होंने प्रधानमंत्री से पूछा कि वे यह बता दें कि यदि आॅक्सीजन की किल्लत हो तो केंद्र के किस अधिकारी को इसके बारे में बताया जाए। जाहिर है यह बात तो सीधे प्रधानमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री से तो बार-बार पूछी नहीं जा सकती है कि अब आॅक्सीजन की किल्लत है और उसे दूर कौन करेगा। अगर यह सवाल ही प्रोटोकॉल का उल्लंघन है तो फिर यह प्रोटोकॉल और अनुशासन सत्ता को असहज करने वाले वाजिब सवालों से बचने की आड़ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
एक ऐसे भय के माहौल में आज लोग जी रहे हैं कि फोन की हर घंटी आशंकित करती है। अगर फोन उठने में देर हो जाती है या कॉल बिना उठे रह जाती है तो सिवाय अशुभ सोचने के और कुछ सूझता भी नहीं है। आम तौर पर होने वाली छींके और गले की खराश भी डरा जाती है। यह अजीब दौर है और इस दौर में प्रोटोकॉल की बातें जब की जाती हैं तो वह प्रोटोकॉल की आड़ में अपने निकम्मेपन को छुपाने की एक कवायद ही होती है। केजरीवाल ने अपने पूरे भाषण में बार-बार प्रधानमंत्री की सराहना ही की है, उन्हें बधाई ही दी है, उनका शुक्रिया ही अदा किया है, कोई गुस्ताखबयानी नहीं, पर यह जरूर पूछ लिया कि आॅक्सीजन के संकट काल में वे किसे तकलीफ दें और यही बात उन्हें अखर गई? अब अगर सवाल ही तीरे नीमकश की तरह चुभ कर खलिश पैदा करता रहे तो ऐसी सोच का क्या किया जाए!
प्रधानमंत्री ने तो अंतरराष्ट्रीय राजनय के प्रोटोकॉल तक का खुला उल्लंघन किया है और उसका खामियाजा आज देश को भुगतना पड़ रहा है। कई घटनाएं और बातें ऐसी होती हैं, जिनका नफा नुकसान बाद में नजर आता है। जैसे हमारे प्रधानमंत्री द्वारा समस्त कूटनीतिक मर्यादाओं को दरकिनार करते हुए, अमेरिका में हाउडी मोदी के कार्यक्रम में अब की बार ट्रंप सरकार का नारा लगाना। टीवी मीडिया के कुछ चैनलों ने इस गलत परंपरा और अंतरराष्ट्रीय प्रोटोकॉल के विपरीत इस विदेश नीति की आलोचना करने के बजाय, इसे औचित्यपूर्ण सिद्ध करते हुते, भक्ति के कसीदे गढ़े। जिन कुछ समझदार पत्रकार और लोगों ने सवाल उठाने और आलोचना करने की जहमत उठाई, उन्हें देशद्रोही करार दे दिया गया। कहा गया कि देश की तरक्की इन्हें चुभती है। मोदी की पॉपुलारिटी से जलते हैं। भारत का डंका बज रहा है तो इन्हें तकलीफ होती है।
सरकार को प्रधानमंत्री जी की मीटिंग का ब्योरा सार्वजनिक करना चाहिये। कोई जरूरी नहीं कि पीएम ही यह काम करें, पर सरकार के स्वास्थ्य मंत्री को और यदि वे भी कहीं अन्यत्र व्यस्त हैं तो स्वास्थ्य सचिव को एक खुली प्रेस कांफ्रेंस कर के, सवाल जवाब के सत्र सहित, यह ब्योरा सार्वजनिक करना चाहिए कि कोरोना आपदा प्रबंधन में सरकार ने क्या-क्या कदम उठाए हैं और आगे सरकार की क्या योजना है। ऐसे ब्योरे से जनता में सरकार के प्रति भरोसा ही बढ़ेगा और अफरातफरी का जो माहौल बन गया है वह थोड़ा कम होगा। मीटिंग का ब्योरा देना किसी प्रोटोकॉल का उल्लंघन नहीं है। (लेखक रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं)