एक राजा अपने सैनिकों के साथ भ्रमण करने जंगल में गया था। घूमते-घूमते काफी देर हो चुकी थी। राजा को बहुत जोर से प्यास लगी। एक सैनिक पानी की तलाश में गया। करीब ही एक कुआं था, जहां एक अंधा व्यक्ति लोगों को पानी पिला रहा था। सैनिक उसके पास पहुंचा और बोला, ‘अरे अंधे! एक लोटा जल मुझे भी दे।’ अंधे व्यक्ति ने कहा, ‘मैं तुझ जैसे मूर्ख नौकर को पानी नहीं देता। जा भाग यहां से।’ और उसने सिपाही को भगा दिया। सिपाही क्या करता, गुस्से में वह वापस आ गया। सैनिक ने यह बात अपने सेनापति को बताई। सैनिक की बात सुनकर सेनापति खुद पानी लेने गए और बोले, ‘अंधे भाई! मुझे एक लोटा जल शीघ्रता से दे दो।’ अंधे व्यक्ति ने कहा, ‘लगता है तुम पहले वाले सैनिक का सरदार हो। मन में कपट है, लेकिन ऊपर से मीठा बोलता है। मैं तुझे भी पानी नहीं दूंगा।’ उस व्यक्ति ने सेनापति को भी पानी नहीं दिया। सेनापति ने राजा से आकर शिकायत की। अब महाराज स्वयं उस अंधे व्यक्ति के पास गए और अभिवादन करके बोले, ‘बाबाजी! प्यासा हूं, गला सूख रहा है, थोड़ा जल देने की कृपा करें, जिससे प्यास मिटे।’ अंधे व्यक्ति ने कहा, ‘महाराज! आप बैठिए, अभी आपको जल पिलाता हूं।’ पानी पीने के बाद राजा ने पूछा, ‘महात्मन! आप चक्षुहीन होते हुए भी यह कैसे जान गए कि पहले आया व्यक्ति सिपाही है, दूसरी बार में सेनापति आया और मैं राजा हूं।’ उसने जवाब दिया, ‘महाराज! व्यक्ति की वाणी ही उसके व्यक्तित्व का ज्ञान कराती है। व्यक्ति का व्यवहार ही उसके ओहदे का भान करा देता है।’