Wednesday, October 9, 2024
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गृहयुद्ध के कगार पर मणिपुर

SAMVAD


03 20मणिपुर में डबल इंजन वाली भाजपा सरकार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्यों के चुनाव में अक्सर मतदाताओं से अपील करते हैं कि राज्य और केंद्र में एक ही पार्टी होने से विकास को बढ़ावा मिलेगा। पर हकीकत में यह कितना सच है? मणिपुर में डबल इंजन सरकार है लेकिन राज्य वर्तमान में गृहयुद्ध की स्थिति में है, क्योंकि इसकी दो मुख्य समुदाय एक-दूसरे पर हमले करते हैं और कुछ मामलों में सशस्त्र समूहों द्वारा एक दूसरे पर हमला किया जाता है। यह स्पष्ट है कि राज्य सरकार शांति बनाए रखने में पूरी तरह विफल रही है। आलोचकों का दावा है कि राज्य सरकार खुले तौर पर पक्षपात करती है और संघर्ष के एक पक्ष का समर्थन करती है। प्रधानमंत्री मोदी ने मणिपुर के मामले में आश्चर्यजनक चुप्पी साध रखी है। भारतीय संविधान में संवैधानिक मशीनरी के टूटने की स्थिति में राज्य सरकार को बर्खास्त करने के प्रावधान हैं।

हालांकि, इस विचार पर कभी चर्चा नहीं की गई क्योंकि मणिपुर एक ‘डबल-इंजन सरकार’ है। राज्य में भाजपा की सरकार है। चुराचांदपुर जिले में मान्यता प्राप्त जनजातियों के एक समूह स्वदेशी जनजातीय नेताओं के मंच (आईटीएलएफ) ने कहा है कि मणिपुर में जारी अशांति के दौरान 253 चर्च जलाए गए। आईटीएलएफ ने इंफाल से करीब 60 किलोमीटर दूर चुराचंदपुर का दौरा करने वाली राज्यपाल अनुसुइया उइके को सौंपे ज्ञापन में यह दावा किया है। चुराचांदपुर हिंसा से सबसे बुरी तरह प्रभावित जिलों में से एक है, जो 3 मई को 10 पहाड़ी जिलों में एक एकजुटता रैली आयोजित करने के बाद शुरू हुई थी, जिसमें बहुसंख्यक मेइती को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग का विरोध किया गया था।

हिंदू मेइती और ईसाई कुकी के बीच संघर्ष में 100 से अधिक लोगों की मौत हो गई है और 50,698 विस्थापित हो गए। आईटीएलएफ ने कहा कि सोमवार को भी चुराचांदपुर गांव में हुए हमले में एक व्यक्ति की मौत हो गई थी। राज्यपाल को लिखे तीन पन्नों के आईटीएलएफ के ज्ञापन में आरोप लगाया गया है कि मेइती और मणिपुर की सांप्रदायिक सरकार द्वारा किए जा रहे जातीय सफाई अभियान के परिणामस्वरूप कुकी समुदाय ने 100 से अधिक कीमती जीवन खो दिए हैं और कई मृत लोग लापता हैं। इसके अलावा, 160 गांवों में लगभग 4,500 घर जल गए हैं, जिससे लगभग 36,000 लोग बेघर हो गए हैं।

केन्द्रीय गृह मंत्रालय के मणिपुर में शांति स्थापित करने के लिए शांति समिति गठित करने के एक दिन बाद अधिकतर कुकी सदस्यों ने पैनल में मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह और उनके समर्थकों की मौजूदगी का विरोध करते हुए पैनल का बहिष्कार करने की बात कही है। द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक कुकी सदस्यों का कहना है कि पैनल में शामिल करने के लिए उनसे सहमति नहीं ली गई है। उनका तर्क है कि केंद्र सरकार को वार्ता के लिए सहायक परिस्थितियां बनानी चाहिए। शनिवार को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मणिपुर के अलग-अलग समूहों के बीच शांति स्थापित प्रक्रिया शुरू करने के लिए एक शांति समिति की घोषणा की थी। राज्य की गवर्नर अनुसूइया उइके के नेतृत्व वाली इस समिति में कुल 51 सदस्य हैं। कुकी इनपी मणिपुर (केआईएम) के अध्यक्ष अजांग खोंगसाइ ने कहा है कि वो मणिपुर सरकार के साथ शांति वार्ता में नहीं बैठेंगे।

मणिपुर राज्य गृहयुद्ध की कगार पर खड़ा नजर आ रहा है। भारतीय सेना और असम राइफल्स को भेजा गया है और राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की जा रही है और संघ ने अनुच्छेद 355 के तहत आदेश जारी करने के निर्देश जारी किए हैं। एक निर्वाचित जिम्मेदार सरकार होने के कारण राष्ट्रपति शासन कठिन है और इस बात की संभावना नहीं है कि इंफाल में सत्ताधारी पार्टी वही है जो दिल्ली में है। वे इम्फाल में अपनी ही पार्टी की सरकार को बर्खास्त करने के लिए अनिच्छुक होंगे। मरने वालों की संख्या तेजी से तीन अंकों की ओर बढ़ रही है और दसियों हजार लोग विस्थापित हुए हैं। बड़े पैमाने पर संपत्ति का नुकसान हुआ है और समुदायों पर अत्याचार हुआ है। क्षेत्र में सक्रिय विद्रोही समूहों के साथ युद्ध विराम अब उस कागज के लायक नहीं दिखते जिस पर वे छपे थे।

27 मार्च को, मणिपुर उच्च न्यायालय के एकल- न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमवी मुरलीधरन ने राज्य सरकार को अनुसूचित जनजाति की सूची में मेइती समुदाय को शामिल करने पर विचार करने और इस आशय की सिफारिश केंद्रीय मंत्रालय को भेजने का निर्देश दिया। जबकि उच्चतम न्यायालय के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने आदेश को चुनौती देने वाली एक विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) की सुनवाई के दौरान मौखिक रूप से टिप्पणी की कि कई संविधान पीठ के निर्णयों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अनुसूचित जनजातियों की सूची को बदलने के लिए न्यायिक आदेश पारित नहीं किए जा सकते हैं। न्यायपालिका यह तय करने की स्थिति में नहीं है कि किन जनजातियों को संविधान के तहत विशेष सुरक्षा की आवश्यकता है।

उसके पास उस तरह का प्रशासनिक तंत्र या नीतिगत विशेषज्ञता नहीं है जिसकी इस तरह के नीति निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए जरूरत है। फिर भी, मणिपुर उच्च न्यायालय के इस विवादास्पद आदेश ने मणिपुर में मौजूदा अनुसूचित जनजातियों के बीच काफी बेचैनी पैदा की। आदेश की आलोचना करने वालों के खिलाफ कारण बताओ नोटिस जारी करने से यह कार्रवाई जटिल हो गई थी। इन सबने शायद आंदोलनकारी जनजातियों को आश्वस्त किया कि जब तक वे सड़कों पर नहीं उतरेंगे, उनके हितों की रक्षा नहीं होगी और धीरे-धीरे एकजुटता मार्च हिंसा में बदल गया और भारत अब अपनी सीमाओं के भीतर एक सशस्त्र सामुदायिक संघर्ष की ओर बढ़ता दिख रहा है।

केंद्रीय गृह मामलों के मंत्री अमित शाह ने हाल ही में मणिपुर का दौरा किया और उन्होंने भी बाहर आकर अराजकता के लिए उच्च न्यायालय को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि मणिपुर उच्च न्यायालय के जल्दबाजी में लिए गए फैसले से यह हिंसा हुई, 70 मौतें हुर्इं। आखिर जस्टिस एमवी मुरलीधरन ने कानून के विपरीत विकृत आदेश क्यों और कैसे पारित किया? यह अक्षमता दिखाता है और संविधान बहुत स्पष्ट है, एक न्यायाधीश को अक्षमता के आधार पर बर्खास्त नहीं किया जा सकता है। एक बुरे जज को बर्खास्त, अनुशासित या फटकारा नहीं जा सकता। यह महत्वपूर्ण है कि सभी संविधानविद जो भारत में न्यायिक स्वतंत्रता के बचे हुए हिस्से को संरक्षित करना चाहते हैं, कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश एमवी मुरलीधरन के इस्तीफे की मांग क्यों नहीं करते हैं, ताकि इस तथ्य पर मुहर लगाई जा सके कि खराब आदेश पारित करने के दुष्परिणाम होते हैं।

तीन विवादास्पद आदिवासी विरोधी अधिनियमों के तहत आरक्षित वन बनाने और उनकी स्वदेशी भूमि लेने के नाम पर आदिवासी वनवासियों की बेदखली का उद्देश्य केवल एक समुदाय को दूसरे पर अत्याचार करने की कीमत पर खुश करना था।


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