एक गांव में एक धनिक परिवार रहता था। भगवान की दया से उनके घर में किसी चीज की कमी नही थी, किंतु उनके घर में क्लेश बहुत था। परिवार के मुखिया हसमुख के मुख में कभी हंसी नहीं दिखती थी। वह अक्सर यही सोचता था कि धनी होने के बाद भी मैं बहुत गरीब आदमी हूं। मेरे पास सुख-चैन नहीं है, तो कुछ भी नहीं। उसे यह भी एहसास हो रहा था कि पैसा होने से ही सुख-चैन नहीं मिलता। उसे नहीं सूझ रहा था कि कैसे सुखी रहा जाए। वह सोचता था कि काश कोई सुखी रहने का मंत्र दे दे। हसमुख का एक मित्र त्रिलोकनाथ था, जो काशी में रहता था। एक दिन उसका पत्र आया। पत्र में लिखा था कि वह काशी से उसके घर आ रहा है और पूछा कि काशी से उनके लिए क्या लाए? हसमुख भाई ने लिखा की वो काशी से सुख-चैन लाए। त्रिलोकनाथ समझ नहीं पाए कि अब वो क्या करे?
उन्होंने अपने गुरु से पूछा की वो कैसे ले के जाए। गुरुजी ने एक कागज में पेन से कुछ लिख कर दिया और कहा की यह आप मत पढ़ना क्यूंकि यह आप के दोस्त के लिए है। त्रिलोकनाथ खुश होते-होते हसमुख भाई के घर जाने लगे। इसके बाद उसने अपने मित्र त्रिलोकनाथ को वह कागज थमा दिया। कागज में लिखे वाक्य पढ़कर हसमुख भाई अत्यंत प्रसन्न हो गया और बोला, दोस्त, आखिर तुमने मेरी मित्रता निभाई और मेरे लिए सबसे अनमोल वस्तुएं सुख व शांति खोज ही लाए। कागज पर लिखा था, अगर मन में विवेक की चांदनी छिटकती हो, संतोष व धैर्य की धारा बहती हो, तो उसमें सुख चैन का निवास होता है। यह पढ़कर त्रिलोकनाथ बोला, वाकई यह उपहार तुम्हारे लिए ही नहीं, मेरे लिए भी अनमोल है। यह तो सुख चैन पाने का मंत्र है।