Thursday, March 28, 2024
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लड़ाई नहीं अंगड़ाई का समय

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अरुण तिवारी |

लेन-देन के संतुलन को लेकर भारत जोड़ो यात्रियों को भी रणनीतिक होने की जरूरत है। कोई यात्रा से क्यों जुड़े? यात्री, क्या दे रहे हैं? फेविकोल जोड़ कैसे होगा? यात्री तो विपक्षी राजनीतिक दल के हैं अथवा नागरिक संगठनों के नुमाइंदे हैं। वे कह रहे हैं कि सत्ता पक्ष और अधिक तानाशाह न हो जाए; इसके लिए जरूरी है कि प्रतिपक्ष और मतदाता भी मजबूत हों। प्रतिनिधि और मतदाता एक-दूसरे को पुष्ट करने की भूमिका के लिए जुटें। देश की आत्मा पर संकट है। संकट में एकता ही विकल्प है; इसलिए जुड़ें। कह सकते हैं कि यात्री एक उम्मीद दे रहे हैं।

जयराम रमेश आजकल कांग्रेस के संवाद एवम् मीडिया विभाग के प्रमुख हैं। विपक्षी दलों के एलायंस यानी गठबंधन को लेकर उन्होने असंतोष जताया; कहा कि कांग्रेस से गठबंधन करने वालों ने कांग्रेस से लिया ही लिया है; कांग्रेस को मिला कुछ नहीं। कांग्रेस को मिला नहीं या कांग्रेस ले नहीं पाई? कांग्रेस सोचे।

निस्संदेह, कांग्रेस के बिना विपक्षी एकता फ्रंट का बनना असंभव है। किन्तु कांग्रेस प्रवक्ताओं द्वारा दूसरी विपक्षी पार्टियों को डांट बताकर भी विपक्षी एकता फ्रंट बनाना असंभव है। यहां यह बात नहीं लागू होती कि कुआं प्यासे के पास नहीं आएगा, प्यासे को कुएं के पास जाना पडेगा। गठबंधन, वर्तमान चुनावी परिदृश्य की विवशता है। ऐसे में यदि जुड़ना और जोड़ना है तो वैचारिक मतभेद और राज्य स्तर पर तमाम राजनीतिक प्रतिद्वन्दिता के बावजूद अन्य राजनैतिक दलों के नेताओं से ही नहीं, प्रवक्ताओं व कार्यकतार्ओं से भी सतत् व्यैक्तिक संवाद तथा सम्मानजनक व्यवहार में लेन-देन का संतुलन तो सीखना ही होगा। अपने से कमजोर को स्नेह से चिपटा लेना, बराबर वाले को गले लगा लेना और बडे़ के चरणों में झुककर अंगूठा छू लेना; दूसरे से पा लेने का यही विज्ञान है और हृदय की विशालता भी यही थी।आजादी वाली कांग्रेस याद कीजिए। मूल कांग्रेस ऐसी ही विशालहृदया थी; वामपंथी, दक्षिणपंथी, समाजवादी…भिन्न नई-पुरानी विचारधाराओं को अपने में समाहित कर लेने वाली एक बहुरंगी बागीची। यही कांग्रेस की भी शक्ति थी और भारत की भी। इसी पर लौटने से भारत भी जुड़ेगा, कांग्रेस भी और विपक्ष भी।

कांग्रेस को गौर करना होना कि कांग्रेस छोड़कर जाने के जारी सिलसिले का एक कारण कहीं लेन-देन में असंतुलन तो नहीं? कांग्रेस का वोट प्रतिशत घटता जा रहा है। कहीं इसका एक कारण यह तो नहीं कि कांग्रेस ने यह मान लिया है कि उसके पास अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं व वोटरों को देने के लिए फिलहाल कुछ खास नहीं है; न उम्मीद, न मदद, न सपना, न विचार और न ही कुछ और? क्या वाकई ? क्या वाकई कुछ नहीं है? कांग्रेस तोड़ो मुहिम की बाड़बंदी सुनिश्चित करनी है तो भी, भारत जोड़ना है तो भी और चुनाव जीतना है तो भी यह सोचना ही होगा। भारत जोड़ो यात्रा, निश्चित ही कई नए को कांग्रेस से जोड़ेगी। किन्तु यदि कांग्रेस को आगे के चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करना है तो चुनावी जीत के नए औजारों को नियोजित और नियंत्रित करना सीखना होगा। पहले से जुडे़ कांग्रेसी न टूटे, इसके लिए भी प्रयास कम जरूरी नहीं। इसके लिए कांग्रेस संगठनकतार्ओं को खुद की आंतरिक कमजोरियों से उबरना ही होगा; वरना् वे कांग्रेस-मुक्त भारत के लिए सिर्फ मोदी-अमित शाह की कारगुजारियों को जिम्मेदार ठहराकर अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते। आइए, जुड़ाव के चुम्बकों पर गौर करें।

वैचारिक जोड़ की जरूरत

ठीक है, नेता-कार्यकर्ताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं होती ही हैं। आखिरकार यह महत्वाकांक्षा ही तो है कि जो एक सबसे अंतिम कार्यकर्ता को शीर्ष तक पहुुंचने का बल, नीयत और जुनून देती है; वरना आजकल सिर्फ मेहनत और उसमें समर्पण भाव होने के कारण कौन किसी आम कार्यकर्ता को शिखर पर लाकर बिठा रहा है। कह सकते हैं कि इस कारण भी कई टूटते अथवा तोड़े जा सकते हैं। किंतु इसका एक मतलब, कांग्रेस के नेता-कार्यकर्ताओं में वैचारिक और नैतिक जुड़ाव के फेविकोल का फिलहाल कमजोर होना भी है। कांग्रेस को सोचना होगा कि यदि नेता अपने कार्यकर्ता व वोटर की निजी परेशानी में कुछ मदद ही नहीं कर पाएगा, तो नेता उस पार्टी में क्यों नहीं चला जाएगा, जो सत्ता में है; खासकर, जब कोई वैचारिक-नैतिक जुड़ाव हो ही नहीं? कांग्रेस, बसपा या सपा में कितने पदाधिकारी अथवा सांसद-विधायक हैं, जिन्होने उनके रास्ते चलना तो दूर, गांधी, अम्बेडकर अथवा लोहिया को ठीक से पढ़ा भी है? पैसा लेकर पद और टिकट बांटने का चलन हो तो वैचारिक-नैतिक जुड़ाव की उम्मीद ही क्यों करें? ऐसे में रिश्ता सिर्फ निजी स्वार्थ का बचता है।

निजी मदद का भरोसा

ऐसे में जरूरी है कि बूथ लेवल के कार्यकर्ता व वोटर को उसकी परेशानी में मदद देने की व्यवस्था बनाई जाए। निजी बिजली-पानी कनेक्शन बिलों में छूट, अस्पताल में मुफ्त दवा-जांच तथा सिविल डिफेन्स में तनख्वाह के साथ भर्ती का आम आदमी पार्टी मॉडल यही तो कर रहा है। कांग्रेस को विचार करना चाहिए कि यदि वह केंद्र अथवा ज्यादातर राज्यों में सरकार में नहीं है, तो क्या करें? क्या इंतजार करें? नहीं, जब आप केंद्र अथवा राज्य सरकार में न हों तो कार्यकर्ता तथा वोटर को देने योग्य बनने की सबसे बड़ी संभावना तीसरी सरकार यानी पंचायती व नगर सरकारों में हमेशा मौजूद रहती है। हालांकि, भारतीय लोकतंत्र के हित में तो यही है कि तीसरी सरकारों को दलमुक्त ही रहने दिया जाए; किंतु क्या यह सिर्फ कांग्रेस के तटस्थ रहने से होगा? अत: स्थानीय चुनावों को संजीदगी से लेने से बूथ लेवल कार्यकर्ता व वोटर…दोनों की मदद संभव है। आखिरकार, सब योजनाएं और बड़े फंड तो तीसरी सरकारों के माध्यम से ही जनता तक पहुंचाए जाते हैं।

नैतिक जुड़ाव

अपने साथी नेता व कार्यकर्ताओं से नैतिक जुड़ाव के लिए पार्टी के भीतर वैचारिक-नैतिक माहौल बनाने की जरूरत होती है। यह माहौल पार्टी के भीतर चुनाव से लेकर कार्यकर्ता को मेहनत करने पर अवसर देने में ईमानदारी से ही पैदा होगा; पैराशूट उम्मीदवारों से नहीं। एक अच्छे नेता की याददाश्त का अच्छा होना जरूरी है। जरूरी है कि वह अपने संपर्क में आ चुके को नाम व मिलने के पूर्व संदर्भ के साथ याद रखे। संकट में साथ खड़ा हो। यदि कुछ न कर सके; तो कम से कम हमदर्दी तो जताये। प्रमोद तिवारी से पूछना चाहिए कि एक ही दल में रहकर एक ही क्षेत्र और एक ही चुनाव निशान से नौ बार लगातार विधायक बनने के उनके गिनीज वर्ल्ड बुक आॅफ रिकॉर्ड के पीछे का राज क्या है।

भारत जोड़ो : सिर्फ सपना नहीं, ठोस प्रस्ताव की जरूरत

लेन-देन के संतुलन को लेकर भारत जोड़ो यात्रियों को भी रणनीतिक होने की जरूरत है। कोई यात्रा से क्यों जुड़े? यात्री, क्या दे रहे हैं? फेविकोल जोड़ कैसे होगा? यात्री तो विपक्षी राजनीतिक दल के हैं अथवा नागरिक संगठनों के नुमाइंदे हैं। वे कह रहे हैं कि सत्ता पक्ष और अधिक तानाशाह न हो जाए; इसके लिए जरूरी है कि प्रतिपक्ष और मतदाता भी मजबूत हों। प्रतिनिधि और मतदाता एक-दूसरे को पुष्ट करने की भूमिका के लिए जुटें। देश की आत्मा पर संकट है। संकट में एकता ही विकल्प है, इसलिए जुड़ें। कह सकते हैं कि यात्री एक उम्मीद दे रहे हैं। किस बात की उम्मीद? वे सादगीपूर्ण यात्रा कर रहे हैं। नागरिक संगठनों का भारत जोड़ो यात्रा में साथ होते हुए भी कांग्रेस की रोटी न खाकर, अपनी रोटी और ठहराव का अपना इंतजाम किया है। तय भारत यात्रियों ने यात्रा के दौरान नशामुक्त होने का संकल्प लिया है। यात्री, यात्रा स्थल तक पहुंचने के इंतजाम खुद अपने संसाधनों से करेंगे। यात्री होटल में नहीं रुकेंगे। अपने रुकने और खाने का बोझा किसी अन्य पर नहीं डालेंगे। अपना इंतजाम खुद करेंगे। कंटेनर में रुकेंगे। सांझी रसोई साथ चलेगी। यात्रा के प्रतीक चिन्ह, प्रतीक गीत में कांग्रेस का कोई निशान नहीं होगा। कांग्रेस का ध्वज नहीं, बल्कि भारत का राष्ट्र ध्वज ही यात्रा का ध्वज होगा। वे बोलने से ज्यादा, सुन रहे हैं। ये सब उम्मीद जगाता है। उम्मीद जग सकती है कि ये सत्ता में आए तो भारत के जनमानस पर अपनी दलगत् विचारधारा थोपने के लिए दिमाग में सेंधमारी नहीं करेंगे; जनमानस की सुनेंगे।

यह सही है कि सरकार व भाजपा कार्यकर्ता जन विरोधी मसलों पर जितना अतिवाद पर उतरेंगे; यात्रा का जितना विरोध करेंगे; लोगों में यात्रा और कांग्रेस के प्रति उम्मीद और जगेगी। यात्रा के यात्रियों के बयान व व्यवहार दुश्मनों के साथ भी सद्भावपूर्ण रहे तो उम्मीद और प्रबल होगी। किन्तु फेविकोल जोड़ बनाने और इसे चुनावी जीत में बदलने के लिए क्या इतना पर्याप्त है?

चुनावी सत्य

भारत जोड़ो यात्रा का चुनावी फायदा होगा या नहीं? यह इस पर निर्भर करेगा कि सरकारों व विरोधी संगठनों द्वारा जो कुछ भी अनैतिक व जनविरोधी किया गया है; कांग्रेस, यात्रा से प्राप्त भिन्न-भिन्न ऊर्जाओं को उसके खिलाफ मौजूद आवेग को कितने बड़े वेग में बदल पाती है? क्या हासिल ऊर्जा, वोटरों में यह भरोसा जगा पाएगी कि राज्य चुनावों में कांग्रेस आई तो विकास तो करेगी ही, कम से कम संप्रदायों में झगड़े तो नहीं ही कराएगी? वोटरों के मन में चुनाव से पहले ही एक धुंधला सही, किंतु क्या हासिल ऊर्जा यह विचार अंकुरित कर पाएगी कि इस बार यूपीए गठबंधन सरकार में आ सकता है?

एक सुअवसर

यह यात्रा और इससे प्रसारित व प्राप्त ऊर्जा, कांग्रेस के लिए एक सुअवसर है कि वह अपने भीतर-बाहर जो कुछ बदलना चाहती है, बदल डाले। जैसी अंगड़ाई लेना चाहती है, ले सकती है। जैसी नई कांग्रेस बनाना चाहे, बना सकती है। वह नए पिंड में पुरानी आत्मा वाली कांग्रेस बनना चाहती है अथवा पुराने पिंड में नई आत्मा वाली कांग्रेस; यह कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता तय करने का अवसर भी यही है।


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