मनीष कुमार चौधरी |
कहा जाता है कि बेटे के साथ मां का और बेटी के साथ पिता का लगाव थोड़ा ज्यादा होता है। एक मां भले ही अपनी बेटी के साथ भावनाएं बांट लेती है, लेकिन पिता कहना चाहकर भी अपनी बेटी के साथ आमने-सामने मन की कुछ बातें बोल नहीं पाते। मां की तरह भले ही पिता अपने जज्बात जाहिर न कर पाएं, पर संतान के प्रति अपने कर्तव्यों और दायित्वों को उतनी ही शिद्दत और दिल से निभाते हैं, जितनी मां। पुरुष होने के नाते उनकी संवेदनशीलता अक्सर उपेक्षित हो जाती है, पर कहने के लिए उनके पास भी बहुत-कुछ होता है। ‘डॉटर्स डे’ पर बेटी के लिए एक पिता का सीख भरा संदेश…।
सुनो बेटी..
मुझे वह दिन आज भी याद है जब तुम्हारी मां ने पहली बार तुम्हें मुझे अपने हाथों में दिया था। उस समय तो अबोध ही थी तुम। फूल-सी नाजुक तुम्हारी देह और टुकुर-टुकुर ताकती आंखों ने जब मुझे देखा तो ऐसा लगा, जैसे मुझ पर जीवन की कोई बड़ी जिम्मेदारी आ गयी हो। ज्यों-ज्यों तुम बड़ी होती गईं, यह जिम्मेदारी मेरे जीवन जीने के मकसद में बदलने लगी। तुम्हारे सपनों में मैं अपने सपने ढूंढने लगा।
समय पंख लगाकर कब उड़ गया, पता ही नहीं चला। स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर जब आज तुम पहले जॉब यानी कार्यक्षेत्र के लिए घर छोड़ कर जा रही हो तो मन के किसी कोने में एक डर है कि अब तुम अकेले दुनिया का सामना करोगी। कैसे करोगी? शायद यही डर एक पिता के जीवन-अनुभवों से उपजता है। हालांकि इसके पीछे तुम्हारे प्रति कोई अविश्वास नहीं है, पर पिता के लिए इस में ‘कितने भी बड़े हो जाओ, बच्चे ही रहोगे’ वाला भाव है। समय-समय पर तुम से मैंने जी भर कर बातें कीं। जीवन का अच्छा-बुरा समझाया। परंतु ‘पापा, आप फिक्र न करो, अब मैं बड़ी हो गई हूं’, तुम्हारी इस विश्वास भरी स्वीकारोक्ति के चलते बहुत-कुछ अनकहा भी रह गया। लेकिन बेटी के मामले में एक पिता का मन कहां मानता है। सो, तुम्हें कुछ बताना चाहता हूं। ये बातें तुम्हें पग-पग पर हिम्मत और हौसला देंगी।
पहली बात, हमेशा निर्भय रहो। तुम ऐसे संसार में कदम रखने जा रही हो, जो तमाम बाधाओं-विघ्नों के बीच निरंतर गतिशील है। तुम ऐसे समय बड़ी हुई हो, जब मानवीय रिश्तों में भावनाओं की कद्र कम हो गयी है। तुम भले ही यह मानती हो कि मैं बड़ी हो गयी हूं, पर यह व्यावहारिक दुनिया अब भी तुम्हारे लिए अजनबी है। वक्त की रफ्तार तेज हो चली है, यह हमें बहुत जल्दी ही अनुभव दे देता है। परिस्थितियां कैसी भी आएं, घबराना नहीं है। उनका डट कर मुकाबला करना है। पूरी निर्भयता के साथ।
दूसरी बात, अपने काम से प्यार करो। जो कुछ भी करो, उसके प्रति ईमानदार रहो। शॉर्ट-कट से हमेशा बचना। सीढ़ी दर सीढ़ी मन लगा कर काम करोगी तो सफलता भले ही देर से मिले, मिलेगी जरूर। हो सकता है लंबे रास्ते से तुम्हें अपार धन न मिले, लेकिन जो संतोष प्राप्त होगा, वह कोई तुम से छीन नहीं पाएगा। यह संसार बड़ा जटिल है। गला-काट प्रतिस्पर्धा के बीच तुम्हारा ऐसे लोगों से भी सामना होगा जो तुम्हें नीचे गिरा कर आगे निकलने की कोशिश करेंगे। लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ना। अपना ईमान मत डिगने देना। ऐसे लोगों का सामना तुम सच के बूते ही कर पाओगी। अगर हम सामने वाले की पहचान करना सीख लें तो हम में सहनशीलता आ जाती है। ऐसे में तुरंत प्रतिक्रिया देने से तुम बचोगी और मजबूत होती चली जाओगी। तब दूसरों के पक्षपात पूर्ण दृष्टिकोण और पूर्वाग्रहों से तुम्हारे शिकार होने की आशंका बहुत कम हो जाएगी। तुम उन लोगों से प्रभावित नहीं होगी जो तुम से अपनी बुद्धि, आत्मा और धन देने की चाहत रखते हो।
तीसरी बात, होशियार बनो। लेकिन होशियार बनने के स्थान पर बुद्धिमान बनना ज्यादा अच्छा रहता है। यह सच है कि बुद्धिमान बनने में समय लगता है, पर इससे तुम निराश मत होना। याद रखना, बुद्धि सहसा ही आती है और दयाशीलता व समझ-बूझ रखने वाले लोगों को ही प्राप्त होती है। बुद्धिमानी तुम्हें आप ही होशियार भी बना देगी।
चौथी बेहद महत्वपूर्ण बात, अपने चरित्र को बनाए रखना। उस पर कभी आंच न आने देना। जीवन में जो कुछ भी तुमने पाया है, चरित्र पर धब्बा लगते ही तुम सब-कुछ खो दोगी। चरित्र डिगाने की कोशिश बहुत से लोग करेंगे, ऐसी स्थिति में अपनी मां का चेहरा याद करना कि इस स्थिति में वह खुद क्या करती-सोचती और तुम्हें क्या सीख देती। मुझे अपनी प्यारी बेटी पर पूरा विश्वास है और हो भी क्यों न, आखिर तुम बेटी किसकी हो। आज तक तुम ने अपने पिता का सिर झुकने नहीं दिया, आगे भी नहीं झुकने दोगी, ऐसा मुझे पूरा विश्वास है।
पांचवीं बात, खुद को कभी अकेला महसूस मत करना। लोग हमें कितना भी चाहें, हमारे काम को भरपूर सराहें, लेकिन कई बार भीतर से हम खुद को बेहद अकेला महसूस करते हैं। यह अकेलापन एक दानव की तरह है। जब भी यह तुम्हें सताए, इस पर पलटवार करना। यह अकेलापन तुम्हें तब भी सताएगा, जब कभी जीवन की निस्सारता का बोध होगा। ऐसा लगेगा, क्या इसी यंत्रवत दिनचर्या और जीवन को हम सफलता का दर्जा देते हैं। आखिर ऐसी जिंदगी भी क्या, जिस में हम कुछ ठहर कर सोच न सकें। जब भी तुम्हारे मन में ऐसी बात उठे, अपना नजरिया बदलना। बदले और सुलझे हुए नजरिये के साथ तुम आसानी से ऐसी बातों पर काबू पा सकोगी। निस्सारता को जीवन का अंग जरूर मानना, पर उसे अपने पर हावी कभी मत होने देना।
छठी बात, कभी किसी के लिए समस्या मत बनना, समाधान बनना। अपने व्यावसायिक तथा अन्य कौशल को दुनिया को बेहतर बनाने में लगाना। यह कभी मत सोचना कि ऐसा करने से मुझे क्या फायदा होगा। इस सोच को हमेशा कायम रखना कि मेरे कार्य से समाज और दुनिया कैसे बेहतर बनेगी। समानता और सहभागिता की यह सोच तुम्हें तो सबल बनाएगी ही, समाज का भी इससे भला होगा। यह सब करते हुए याद रखना कि आज तुम्हें स्त्री के नाते जो अधिकार मिले हैं, वह सब तुम्हारे लिए तुम से पहले की स्त्रियों ने कठिन संघर्ष से प्राप्त किये हैं। आज जितनी भी बच्चियां जन्म ले रही हैं, उन्हें तुम्हारे जैसे अधिकार नहीं मिलेंगे, यदि तुमने समानता के दायरे को बढ़ाने और बनाए रखने की कोशिश नहीं की। तुम्हें अपने निज स्वार्थों से ऊपर उठ कर उनके लिए प्रयास करना होगा, ताकि तुम्हारे पीछे आने वाले उससे लाभ उठा सकें और उनके लिए जीवन की राहें सुगम हों।
और हां, तुम से एक वादा लेना तो मैं भूल ही गया। हमेशा हंसती-मुस्कराती-खिलखिलाती रहना। तुम जानती हो कि तुम्हारी निस्वार्थ और निश्छल हंसी में ही मेरी जिंदगी बसती है।
सदा खुश रहो।
तुम्हारा पिता