एक समय एक रोमन सम्राट के अत्याचारों से वहां की जनता में त्राहि-त्राहि मची हुई थी। उसके अत्याचारों का विरोध करने का साहस किसी ने किया तो उसे मौत की सजा सुना दी जाती थी। लेकिन वहां के एक समाज सुधारक संत थे बाजिल। वह एक कुटिया में रहते थे और सादा जीवन जीते थे।
वही थे जो सम्राट के अत्याचारों का खुलकर विरोध करते थे, लेकिन सम्राट उनके खिलाफ कोई कड़ा कदम उठाने का साहस नहीं कर पाता था। एक दिन सम्राट ने अपना दूत बाजिल के पास भेजकर कहलवाया कि वह हमारा विरोध करना बंद कर दें।
इसके बदले उन्हें राज्य की तरफ से इतनी संपत्ति दी जाएगी कि वे जिंदगी भर आराम से गुजर-बसर कर सकते हैं। दूत ने उन्हें सम्राट का संदेश सुनाकर कहा- महाराज, समझदारी इसी में है कि आप सम्राट का विरोध करना छोड़ दें। आपने विरोध करना नहीं छोड़ा तो सम्राट क्रोध में आपको राज्य से बाहर कर देंगे।
ऐसा करना सम्राट के लिए मुश्किल नहीं है। उनका एक आदेश काफी है। संत ने कहा-तुम ठीक कहते हो। मैं मालामाल हो जाऊंगा। और मेरे अकेले विरोध से सम्राट सुधरेंगे भी नहीं। लेकिन मैंने सम्राट के अत्याचार का विरोध करना छोड़ दिया तो मेरी आत्मा मर जाएगी।
एक संन्यासी और देश का एक नागरिक होने के कारण मेरा कर्त्तव्य है कि मैं सम्राट को सही रास्ते पर लाने का प्रयास तब तक करता रहूं, जब तक मेरी सांसें चल रही हैं। मुझे उम्मीद है कि एक दिन सम्राट अवश्य सुधरेंगे।
मैं उनका प्रस्ताव मानने को तैयार नहीं हूं। जो राजा संतों और विद्वानों की चेतावनी अनसुना करता है, उसका सर्वनाश निश्चित है। इस संदेश का सम्राट पर ऐसा असर हुआ कि उसने खुद जाकर बाजिल से माफी मांगी।