एक राजपुरोहित का राज-दरबार में बहुत आदर सत्कार किया जाता था। यहां तक कि जब वह दरबार में आते, तो राजा खुद खड़े होकर उनका स्वागत करता था। एक दिन पुरोहित के मन में कुछ ‘जाग’ उठा। पुरोहित जब दरबार से जाने लगे तो राजकोष के मुख्यालय के सामने गिनती किए जा रहे रत्नों में से एक मुट्ठी मोती उन्होंने अपनी जेब में डाल लिए। वित्त विभाग के प्रमुख ने पुरोहित के इस कृत्य को देखा, परंतु उनकी प्रतिष्ठा के कारण कुछ नहीं कहा। दूसरे दिन पुरोहित जी ने राज दरबार से लौटते हुए फिर वही प्रक्रिया दोहराई। फिर तो यह उनका रोज का क्रम बन गया। कोष के प्रभारी का धैर्य जवाब दे गया। एक दिन कोषागार का प्रभारी राजा के पास पहुंचा और सारी बातें राजा को बतार्इं। राजा ने कहा, ‘मेरी अनुमति के बिना कोई वित्तीय अनुशासन भंग नहीं कर सकता। पुरोहित का कृत्य धृष्टता की श्रेणी में आता है।’ दूसरे दिन पुरोहित दरबार में उपस्थित हुआ। राजा ने पुरोहित से कहा, ‘आप रोज राजकोष से मुट्ठी भर रत्न जेब में रख लेते हैं।’ पुरोहित ने कहा, ‘यह कार्य लूट के अंतर्गत आता है। किन्तु ऐसा मैंने लोभ के कारण नहीं, बल्कि जानबूझकर किया है। ये रहे वे सारे मोती।’ राजा ने आश्चर्य से पुरोहित की ओर देखा। पुरोहित ने कहा, ‘मैं यह जानना चाहता था कि मेरी प्रतिष्ठा मेरी विद्वता के कारण है, या आचरण के कारण। आज मेरी समझ में आ गया कि दरबार में मेरी प्रतिष्ठा आचरण के कारण है। यदि आचरण ठीक नहीं है, तो विद्वता किसी काम की नहीं। आचरण, विद्वता से कहीं श्रेष्ठ है।