तपबल रचइ प्रपंच बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता।।
तपबल संभु करहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा।।
तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी।।
जनवाणी संवाददाता |
लखनऊ: गोमती नगर में स्थित अंतरराष्ट्रीय बौद्ध संस्थान में गत 5 दिनों से चल रहे गीता ज्ञान यज्ञ में स्वामी अभयानंद सरस्वती (वरिष्ठ महामंडलेश्वर श्री पंचायती अखाड़ा, महानिर्वाणी) ने कथा के पांचवे दिन तप के विषय में गहन और गूढ़ रहस्यों को बड़े ही सरल भाषा में श्रोताओं को बताया।
लोक जगत में अत्यंत प्रचलित श्रीरामचरितमानस हो, श्रीमद्भगवद्गीता हो, उपनिषद हो या अन्य कोई भी शास्त्र हो सब में तप के महत्व का वर्णन है। तीन धरातल पर पाप होता है शरीर, मन और वाणी, इन तीनों प्रकार के पापों से बचने के लिए तीन प्रकार के तप किए जाते हैं_ शरीर का तप, वाणी का तप और मन का तप।
तप शब्द के दो भाव हैं संयम और चिंतन। गीता जी में वर्णित है देवता ब्राम्हण गुरू और तत्ववेत्ता इन चारों के समक्ष स्वयं को, यानी अपने अहम को झुकाकर, शरीर के बाहर और शरीर के भीतर दोनों की पवित्रता, सरलता, ब्रम्हचर्य और अहिंसा का पालन करके हम शरीर का तप कर सकते हैं। उसी प्रकार किसी को उद्वेगित करने वाली भाषा का प्रयोग न कर,सत्य बोल कर, प्रिय और हितकारी बात बोलकर, स्वाध्याय अर्थात आत्मचिंतन और पूजा से वाणी का तप संभव है।


