Thursday, November 7, 2024
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यादों में पुराने चिरागों की रोशनी

Ravivani 33

जवाहर चौधरी

मुझे अपने बचपन की याद है पिता के साथ जाकर हम पटाखे खरीद लाए। पिताजी ने खुशी-खुशी में ढेर सारे पटाखे दिलवा दिए। दाल चावल वाली छोटी बोरी में पटाखे भरकर हम घर पहुंचे। मां आपको पता चला कि बीस रुपए के पटाखे ले आए हैं तो इस अपव्यय पर बहुत नाराज हुईं। अचरज आपको भी हो रहा होगा। लेकिन उन दिनों सोने का भाव करीब सौ रुपए का बारह ग्राम था और चवन्नी अठन्नी रुपया चांदी के सिक्के होते थे। आज आॅनलाइन पेमेंट के जमाने में यादों के कलदार सिक्के खनकते हैं तो मन पीछे दौड़ता है।

50 वर्षों में दुनिया पूरी तरह से बदल गई है। पीछे पलट कर देखते हैं तो लगता है कि जो छोड़ आए हैं वो दुनिया दूसरी है। यह विज्ञान का चमत्कार है, तकनीकी विकास है। इसने हमारा जीवन, हमारी सोच, हमारी समझ को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है। जीवन शैली और रहन-सहन को ही देखें तो हमें पता चलता है कि हम कितने जटिल हो गए हैं। तीज त्यौहार पहले भी होते थे लेकिन लगता है वो दिल से मनाए जाते थे। आज भी त्यौहार हैं, लोग धूमधाम से मनाते हैं, बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि पहले से ज्यादा चमक दमक दिखाई देती है। त्योहारों को बाजार में जिस तरह से अवसर मान कर हथिया लिया है वह चौंकाने वाला है। आमजन ने तमाम असहमतियों और विकृतियों को नजरअंदाज करने का हुनर पैदा कर लिया है। देश बाजार के जरिये दीपोत्सव मना रहा है, जरूरतें हम पर आरोपित की जा रही है, जेब में न हो तो एटक सुविधा है, जीरो बेलेंस पर लोन भी है। चाहे अनचाहे हम बाजार को सहयोग कर रहे हैं। बाजारों में रौनक है, बाजार चहक महक रहे हैं, जो ग्राहक है सर माथे है, जो नहीं हैं वो कहीं नहीं हैं। ये नए जमाने की दीवाली है।

ऐसे में पुराने समय की दीवाली याद आ जाना स्वाभाविक है। वे त्योहारों की प्रतीक्षा के दिन थे। स्कूलों में दशहरे से दिवाली तक की लम्बी छुट्टी होती तो उसी दिन से माहौल बदल जाता। त्यौहार पूरे पच्चीस दोनों का! मजे करो। आज घरों में एक-एक दो-दो बच्चे होते हैं, पुराने समय में आंगन बच्चों से गुलजार रहता था। मोहल्लेदारी का जुड़ाव था सो अलग। घर घर उमंग और उत्साह कि चहक होती। दशहरे के दूसरे दिन बड़ों का आशीर्वाद लेने जाते थे और आधा आना एक आना बच्चों को मिलता था। शाम तक एक बड़ी रकम हाथ में होती थी यानी लगभग एक रुपया। जिसे अक्सर घर के लोग अपने पास जमा करवा लेते थे।

दशहरा दिवाली का समय यानी नए कपड़े नए जूते लेने का समय । इसकी खुशी सबसे ज्यादा होती, बच्चों में सपनों के सच होने जैसा। हर घर में साफ सफाई और रंगाई पुताई का काम खुद परिजन ही करते । छोटे घरों में भी गोबर से लिपाई होती, चूने और गेरू रंग से सजावट भी। इस काम में छोटे-बड़े सब लगे रहते थे। घर में रखे हुए छोटे बड़े तांबे पीतल के बर्तन निकाले जाते थे और उन्हें खूब रगड़कर सोने की तरह चमकाया जाता। सबके यहां पशु होते थे। गाय तो प्राय: हर घर में, जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन होती थी वहां बैल भी। पशुओं को नहलाना, रंगना, सजाना त्यौहार का ही हिस्सा होता। उस समय के शहरों में पशु पालना प्रतिबंधित नहीं था। गाय, बकरी, कुत्ते, मुर्गियां, कबूतर, बत्तख वगैरह को भी नागरिकता प्राप्त थी। सवारी के लिए तांगों का प्रयोग होता था इसलिए घोड़े भी काफी संख्या में दिखाई देते थे। दशहरे पर शस्त्रों के अलावा वाहन भी पूजे जाते। सायकिल मुख्य वाहन था सो उसे भी रंगीन गजरे नसीब जो जाते। तांगों की सजावट विशेष रूप से होती थी। रंग बिरंगी झंडियों, गोटे पट्टे वाले रंगीन दुपट्टे और कलंगियों से सजे तांगे नगर में मानों त्यौहार कि मुनादी करते दौड़ते रहते।

सबसे ज्यादा आकर्षक सड़क के किनारे लगने वाली मौसमी दुकानें होती थीं। इस तरह की दुकान आज भी लगती हैं। हर घर मिट्टी के दिए पहुंचते थे। सच तो यह है कि मिट्टी के दियों से ही दिवाली बनाई जाती थी। बिजली कि झालरों को कोई जानता नहीं था। बच्चों बड़ों के लिए एक और आकर्षण था, दिवाली के अवसर पर कुम्हारों द्वारा बनाए जाने वाले विशेष खिलौने। घोड़े पर सवार मूंछ वाला योद्धा, तीन दीपक वाली ग्वालिनें और छोटे-छोटे चूल्हे चक्की, हंडे घड़े जैसे मिट्टी के बर्तन। लोग बच्चों के साथ खरीदी के लिए जाते थे और टोकरी भरकर खिलौने लेकर आते थे। जैसी व्यस्तता और भीड़ आज मोबाइल फोन की दुकान पर दिखाई देती है वैसी कुम्हारों के यहां होती थी। कुम्हार दिवाली का एक अहम हिस्सा होते थे। एक और बात होती थी जो हर घर में दिखाई देती थी, आंगन में छोटा सा दो ढ़ाई फुट का घर बनाया जाता था जिसमें प्राय: दो मंजिलें होती थी। इसे घरकुल या महल कहते थे। यह महल घर की बड़ी स्त्रियाँ बनाती थीं । यह मात्र खेलने का महल नहीं था, उत्सव के दौरान सपनों का रूपांतरण था। इन सपनों में बड़े बच्चे सब शामिल थे। रंगों फूलों और मिट्टी के खिलौने से इस महल को सजाया जाता था । घरकुल में महीनों तक बच्चे रमे रहते और तमाम बातें सीखते।

दीवाली पटाखों का भी त्यौहार है। पहले आम लोगों के पास आवाज वाले पटाखे होते थे। गजकुंडी और लहसुन पटाखा ही चलन में थे। बाद में पटाखों का बाजार बढ़ा और कई तरह के पटाखे मिलने लगे। अब तो सुरक्षा की वजह से पटाखे की दुकान है किसी मैदान में लगाई जाती है। पहले शहर में ही पटाखे की दुकान हुआ करती थी। मुझे अपने बचपन की याद है पिता के साथ जाकर हम पटाखे खरीद लाए। पिताजी ने खुशी-खुशी में ढेर सारे पटाखे दिलवा दिए। दाल चावल वाली छोटी बोरी में पटाखे भरकर हम घर पहुंचे। मां आपको पता चला कि बीस रुपए के पटाखे ले आए हैं तो इस अपव्यय पर बहुत नाराज हुईं। अचरज आपको भी हो रहा होगा। लेकिन उन दिनों सोने का भाव करीब सौ रुपए का बारह ग्राम था और चवन्नी अठन्नी रुपया चांदी के सिक्के होते थे। आज आॅनलाइन पेमेंट के जमाने में यादों के कलदार सिक्के खनकते हैं तो मन पीछे दौड़ता है।

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