- देश की आजादी के बाद लहराया गया पहला झंडा इसी परिवार ने बनाया
- केवल तीन जगह बनता है तिरंगा मुंबई, अकबरपुर और मेरठ गांधी आश्रम में
जनवाणी संवाददाता |
मेरठ: तिरंगा भारत के राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है। तिरंगा हमारी जान है। प्रत्येक स्वतंत्र राष्ट्र का अपना एक ध्वज होता है, लेकिन क्या आपको पता है कि हमारा तिरंगा कैसे बना? तिरंगा, जो वर्तमान रूप में है, अस्तित्व में आने से पहले कितनी बार बदला गया था। आन-बान-शान का प्रतीक तिरंगा हर देशवासी के दिल में बसता है। आजादी से लेकर आजतक देश का हर नागरिक तिरंगे को हमेशा अपने देश के सम्मान का प्रतीक मानता है और माने भी क्यों नहीं। इसी तिरंगे की खातिर देश के अनगिनत वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। वहीं, तिरंगे को लेकर मेरठ का भी गहरा नाता है, आजादी के बाद लालकिले पर फहराया जाने वाला पहला तिरंगा मेरठ से ही गया था, लेकिन इस झंडे को तैयार करने वाला परिवार इस समय मुफलिसी की जिंदगी जीने को मजबूर है।
हिंदुस्तान की पहचान तिरंगा जिसे देश के लोग अपनी आन-बान और शान समझते हैं और हर 15 अगस्त तथा 26 जनवरी को इस तिरंगे को सलामी देते हुए इसे झुकने नहीं देने वाले वीर सपूतों को याद भी करते हैं। आज हम आपको तिरंगे से खुशी पाने वाले एक ऐसे परिवार के बारे में बताने जा रहे हैं। जिसने इसकी वजह से गरीबी से आजादी पाई। यह परिवार पिछले कई सालों से तिरंगे की सेवा कर रहा है। शहर के सुभाषनगर में रहने वाले रमेश चंद का परिवार गांधी आश्रम में तिरंगा तैयार करने का ठेका लेता है। रमेश ने बताया कि उनके पिता नत्थे सिंह व ताऊ लेखराज सिंह आजादी के बाद से ही तिरंगा बनाने का काम कर रहे हैं।
जब 1947 में देश आजाद हुआ और लालकिले पर जो तिरंगा फहराया गया। वह उनके पिता ने ही तैयार किया था। उस समय तिरंगे के बीच में अशोक चक्र की जगह चरखा बना होता था। रमेश ने बताया कि अब तिरंगे तैयार करने का ठेका कम हो गया है, उनका पूरा परिवार इस काम में लगा है, लेकिन अब आमदनी न के बराबर है। महंगाई लगातार बढ़ रही है, लेकिन उनके द्वारा तैयार किए जाने वाले तिरंगे के लिए मिलने वाली मजदूरी उतनी ही है, जितनी पहले थी। वह एक दिन में छोटे 50 व बड़े 10 झंडे बना लेते हैं।
इनमें से हर साइज के मुताबिक जो मजदूरी मिलती है। वह 12, 14, 16 व 18 रुपये प्रति पीस है। वहीं, अगर बड़ा झंडा जिसे दो गज का कहा जाता है। उसके केवल 10 पीस ही एक दिन में तैयार हो पाते हैं। रमेश की दो बेटियां हैं, पत्नी कोे रसौली है। जिसके लिए आयुश्मान कार्ड से इलाज कराने पहुंचे तो डाक्टरों ने महंगे टेस्ट लिख दिये, जो उनके द्वारा कराऐ जाने से बाहर है। रमेश ने बताया कि उनका अपना मकान नहीं है, प्रधानमंत्री आवाास योजना का फार्म भरा था, लेकिन नंबर नहीं आया। ई-श्रम कार्ड भी बनवाया है, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ इसी तरह श्रम विभाग से भी कार्ड बनवाया, लेकिन कोई मदद नहीं मिली।
अब गांधी आश्रम में भी पहले की अपेक्षा कम आॅर्डर है। जिस कारण मजदूरी कम होती है। बच्चों को पालने में बड़ी परेशानी हो रही है, क्या हमें सरकार से कोई मदद मिलनी चाहिए या नहीं। यह बात सही है कि इस परिवार को सरकार से मदद मिलनी चाहिए, क्योंकि यह इकलौता परिवार है, जो देश की आजादी के दौरान फहराए जाने वाले तिरंगे को तैयार करने वाला परिवार है।