श्रीप्रकाश श्रीवास्तव
संस्कार का अर्थ है शुद्धीकरण की प्रक्रिया यानी संस्कार द्वारा व्यक्ति को शुद्ध करना। हिंदू धर्म में कुल 16 संस्कार हैं जो जीवनपर्यंत चलते हैं और उन्हें बड़े आदरभाव से लिया जाता है। भले ही पितापुत्र, मांबेटी, भाईबहन अशिष्ट व अभद्र हों लेकिन दूसरों को नीचा दिखाने के लिए असंस्कारी कहने में जरा भी संकोच नहीं करते, उलटे ऐसा कह कर बड़े गर्व से अपना सिर ऊपर उठा लेते हैं।
शुद्धीकरण जितना हमारे देश में होता है उतना दुनिया के किसी देश में नहीं होता। इस के बाद भी हम दुनिया से पिछडे़ हुए हैं। साफसफाई से ले कर चरित्र व नैतिकता के मामले तक, हम आकंठ कालिख पुते हैं। हमारे यहां नाबालिग बच्ची से बलात्कार होते हैं। कमाऊ बेटा बाप को भूखों मारता है। दहेज के लिए महिलाओं को प्रताड़ित किया जाता है। मठों और आश्रमों में शिष्याओं का शारीरिक शोषण होता है व हत्या तक कर दी जाती है। नारायण दत्त तिवारी जैसे अति बुजुर्ग इंसान महिलाओं के साथ नग्न अवस्था में विचरते देखे जाते हैं। खुद को संत कहने वाले आसाराम और उस के बेटे नारायण साईं जैसे लोग महिलाओं का यौनशोषण करते हैं। समाज में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो सिद्ध करते हैं कि ह्यसंस्कारह्ण शब्द सिर्फ नाम का है।
पश्चिम वाले बुरे क्यों
पश्चिम के तौरतरीकों को हम हेय दृष्टि से देखते हैं और खुद को उन से श्रेष्ठ समझते हैं, जबकि शादी के नाम पर हम लड़की वालों से रुपया मांगते हैं। कितने शर्म की बात है कि हमारे देश में लड़का बेचा जाता है। दूसरे शब्दों में, लड़की को जितनी बेहतर सुखसुविधा चाहिए उतनी ही कीमत दे कर लड़का खरीदा जाता है। जिस पर वधू को जलाने का कुकृत्य भी होता है। क्या विवाह संस्कार संपन्न कराने वाले पुरोहित के काम में खोट होता है? वे कैसा शुद्धीकरण कराते हैं कि पति, पत्नी से दहेज न लाने के एवज में मारतापीटता व जलाता है, क्या यही शुद्धीकरण है?
आज कोई भी लड़का अपने मांबाप की सेवा नहीं करना चाहता। पश्चिम तो इसे संस्कारों के रूप में नहीं देखता पर हम देखते हैं। आएदिन बुजुर्गों की उपेक्षा, तिरस्कार के मामले हम अपने आसपास देखते व सुनते हैं। महिलाओं के सम्मान के लिए बड़ीबड़ी बातें की जाती हैं, उन के हक के लिए योजनाएं बनाई जाती हैं पर होता क्या है? जवान महिलाओं को तो छोड़िए, अधेड़ औरतों को भी अश्लील नजरों से देखा जाता है। भीड़भाड़ हो या औफिस की नजदीकियां, संस्कारी पुरुष कोई मौका नहीं चूकते। कोशिश रहती है कि महिला का बदन छू लें, तब न वह मां नजर आती है और न ही बहन। सिर्फ संस्कारों में सिखाया जाता है कि हर औरत मां और बहन है। पश्चिम में तो ऐसा नहीं सिखाया जाता। वहां छेड़खानी का स्तर क्या है? पर अपने यहां 60 साल का पुरुष यदि 30 साल की महिला पर फिदा है और उस से शादी करना चाहता है तो इसे भी लोग संस्कारों से जोड़ कर देखेंगे व अधेड़ को लताड़ेंगे।
क्या यही हैं संस्कार
एक नाटक के दृश्य में एक महिला का रेप होता है। महिला भय से भागती है, रेपस्टि उस का पीछा करता है। पुरुषदर्शक पूरी तन्मयता से यह दृश्य देखते हैं। उन्हें लड़की से नहीं, रेपिस्टस से सहानुभूति है। दर्शक चाहते हैं जितना जल्दी हो रेपिस्ट उस का रेप करे ताकि महिला के बापरदा अंगों का तबीयत से रसास्वाद लिया जा सके। ‘पकड़पकड़, भागने न पाए’ एक शोर उभरा। एक अमेरिकी युवती, जो नाट्यशास्त्र में शोध के लिए उस शहर में आती है, उक्त दृश्य से उपजे दर्शकों की प्रतिक्रिया देख कर सन्न रह जाती है। हताशा व निराशा के भाव उस की आंखों में साफ झलक रहे थे। ‘क्या यहां के लोग ऐसे हैं? हमारे देश में यदि ऐसा होता तो लोग बलात्कारी को मार डालने की सोचते,’ हमारे संस्कार कैसे हैं। संस्कारों के नाम पर सैक्स को जितना दबाया गया, वह उतना ही विकृत रूप ले कर हमारे समाज में आ गया।
परोपकार की भावना
मानवीय आपदा हो या मानवाधिकार, सब से पहले पश्चिम ही सामने आता है। कोढ़ियों की सेवा हो या दुखियों की मदद, ईसाई मिशनरियां ही उन्हें हाथोंहाथ लेती हैं। दूसरी तरफ हम छूना तो दूर, घृणा से मुख मोड़ लेते हैं। यही हमारे संस्कार हैं जिन का होहल्ला मचा कर हम ‘आर्यपुरुष’ बनते हैं। पाखंड हमारे खून में है। जन्म से ले कर मृत्यु तक के 16 संस्कारों का सिर्फ नगाड़ा बजाते हैं, जो ढोंग के अलावा कुछ नहीं। देखा जाए तो सब से ज्यादा अशुद्ध हम भारतीय हैं। जिस नारी के गर्भ से निकलते हैं, जगतगुरु शंकराचार्य उसे नरक का द्वार कहते हैं।
बालक को पालपोस कर बड़ा करने वाली जननी के साथ ऐसा बरताव? गंगाजल को माथे से लगा कर मां के रूप में पूजते हैं, वहीं दूसरी तरफ गंगा में मलमूत्र विसर्जित करते हैं। वृद्ध मांबाप को बिना अन्नजल मारते हैं, पितृपक्ष में चील- कौओं को अन्नजल देते हैं। यही संस्कार हैं हमारे। इन्हीं की दुहाई देते हैं हम।
पशु हम से श्रेष्ठ हैं, उन में रेप जैसी घटना नहीं होती। एक हमारा समाज है, जहां तमाम संस्कारों के बाद भी पुरुष जातियों में शुद्ध रक्त संचारित नहीं हो पाता। फिर ऐसे संस्कारों से क्या फायदा? क्यों हम संस्कारों के नाम पर नौटंकी करते हैं तथा पंडेपुजारियों की जेबें भरते हैं। जो संस्कार हमारे भीतर इंसानियत की एक चिंगारी न पैदा कर सकें उन्हें दफन कर देना ही ठीक रहेगा। ऐसा कर के सही माने में हमारी आंखों से पाखंड का परदा हटेगा और सच्ची शुद्धता होगी।