Tuesday, March 19, 2024
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आखिर बेटियां कब सुरक्षित होंगी

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NAZARIYA


RAJESH MAHESHWARIदेश में बेटियों की सुरक्षा को लेकर भले ही तमाम बातें की जाएं, लेकिन कड़वी हकीकत यह है कि बेटियां सुरक्षित नहीं हैं। आये दिन मीडिया के माध्यम से महिलाओं के प्रति होने वाले अत्याचार, अपराध और यौन हमलों के समाचार सुनने-पढ़ने को मिलते हैं। ताजा मामला मुंबई की निर्भया का है। साल 2012 में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की निर्भया के साथ जैसी क्रूरता की गई थी, वही अमानवीयता मुंबई की निर्भया के साथ हुई। वास्तव में यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि घर से बाहर बेटियां असुरक्षित है, और लगातार अमानवीय क्रूरता और हिंसा का शिकार हो रही हैं। वर्ष 2012 में निर्भया कांड ने देश की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया था। पूरे देश में व्यापक आक्रोश सामने आया था। उसके बाद यौन हिंसा से जुड़े कानूनों को सख्त बनाया गया था। दोषियों को कठोरतम सजा से दंडित भी किया गया था। लेकिन लगता है कि दिल्ली की निर्भया का बलिदान व्यर्थ चला गया। मुंबई की घटना के बाद ऐसा लगता है मानो स्थितियों में कोई ज्यादा फर्क नहीं आया है।

26 जून 2018 को जारी थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की रिपोर्ट के अनुसार निर्भया कांड के बाद देश भर में फैले आक्रोश के बीच सरकार ने इस समस्या से निपटने का संकल्प लिया था। लेकिन भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा में कोई कमी नहीं आई। 2018 का सर्वे बताता है कि भारत यौन हिंसा, सांस्कृतिक-धार्मिक कारण और मानव तस्करी इन तीन वजहों के चलते महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश है। 2018 में भारत में महिलाओं और नाबालिगों के खिलाफ यौन हिंसा के मामले अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आए। जम्मू कश्मीर के कठुआ जिले में आठ साल की बच्ची और झारखंड में मानव तस्करी के खिलाफ अभियान चलाने वाली सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ दुष्कर्म की खबरें दुनिया भर में चर्चा का विषय बनीं।

दिसंबर 2017 को इंडियास्पेंड की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2016 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के प्रति घंटे औसतन 39 मामले दर्ज किए गए। साल 2007 में यह संख्या मात्र 21 थी। सरकार ने प्रतिक्रिया में बलात्कारियों के लिए सजा कड़ी करने और बच्चों के साथ दुष्कर्म करने वाले को मौत की सजा देने का ऐलान किया। लेकिन इंडियास्पेंड ने मई 2018 की अपनी एक रिपोर्ट में लिखा कि इन सजाओं के चलते दुष्कर्म के केस दर्ज किए जाने में कमी आ सकती है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े भी महिलाओं के खिलाफ आपराधिक घटनाओं में वृद्धि को स्पष्ट करते हैं। इन अपराधों में दुष्कर्म, घरेलू हिंसा, मारपीट, दहेज प्रताड़ना, एसिड हमला, अपहरण, मानव तस्करी, साइबर अपराध और कार्यस्थल पर उत्पीड़न आदि शामिल हैं। साल 2015 में दुष्कर्म के 34,651 मामले, 2016 में दुष्कर्म के 38,947 मामले दर्ज किए गए। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि 2017 में भारत में कुल 32,559 दुष्कर्म हुए, जिसमें 93.1 फीसदी आरोपी करीबी ही थे।

महिलाओं और युवतियों पर कहीं एसिड अटैक हो रहे हैं, तो कहीं लगातार हत्याएं-दुष्कर्म हो रहे हैं। इन घटनाओं से निपटने के लिए भारतीय नेतृत्व में इच्छा-शक्ति तो बढ़ी है लेकिन विडम्बना यह है कि आम नागरिक महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को लेकर स्वभाव से ही पुरुष वर्चस्व के पक्षधर और सामंती मन:स्थिति के कायल हैं। हमारे देश-समाज में स्त्रियों का यौन उत्पीड़न लगातार जारी है लेकिन यह बिडम्बना ही कही जायेगी कि सरकार, प्रशासन, न्यायालय, समाज और सामाजिक संस्थाओं के साथ मीडिया भी इस कुकृत्य में कमी लाने में सफल नहीं हो पायी है। महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा से निपटने का समग्र दृष्टिकोण अपराधियों के व्यवहार में बदलाव लाने के गंभीर प्रयासों के बगैर कभी पूरा नहीं हो सकता।

दुष्कर्म की घटनाओं में कुछ हद तक कमी धीरे-धीरे लाई जा सकती है यदि हम (समस्त) महिला सशक्तिकरण के साथ-साथ पुरुष मानवीयकरण के लक्ष्य को भी सामने रखें। घर में पिता-पत्नी और बेटी का, और बेटा-मां और बहन का सम्मान करें। बाहर किसी भी स्त्री को कोई भी पुरुष इंसान की तरह मान कर सम्मान करें। सेंटर फॉर हेल्थ एंड सोशल जस्टिस द्वारा आयोजित ‘किशोर वार्ता’ एक अन्य नया प्रयास था, जिसके तहत शरीर की समझ, यौनिकता, लड़के-लड़कियों में भेदभाव, मर्दाागी, मासिक धर्म, स्वपनदोष, लड़कियों की मोबिलिटी कंसेंट और शादी की उम्र आदि के बारे दृश्य-श्रव्य कहानियों की श्रृंखला तैयार की गई। कोई भी अपने बेसिक मोबाइल फोन के जरिए एक निशुल्क नम्बर डायल करके इन आॅडियो कहानियों को सुन सकता है। ये प्रयास प्रभावशाली होने के बावजूद कुछ गिने-चुने शहरों तक ही सीमित रहे हैं और इस विकराल समस्या का समाधान करने के लिए काफी नहीं हैं।

केंद्र सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित परियोजनाओं के लिए अपने स्तर पर वर्ष 2013 में निर्भया कोष की स्थापना की थी। हिंसा की शिकार महिलाओं की सहायता के लिए चिकित्सकीय, कानूनी और मनोवैज्ञानिक सेवाओं की एकीकृत रेंज तक उनकी पहुंच सुगम बनाने के लिए वन-स्टॉप सेंटर्स की शुरूआत की गई। अब तक, 150 से ज्यादा वन-स्टॉप सेंटर्स शुरू किए जा चुके हैं। ह्यमहिलाओं की हेल्पलाइन का सार्वजनीकरणह्ण योजना का उद्देश्य हिंसा से पीड़ित महिला को रेफरल के माध्यम से 24 घंटे तत्काल और आपात राहत पहुंचाना है। इन कदमों के नतीजे भी सामने आने लगे हैं, लेकिन वे तब तक इस समस्या का समाधान करने में समर्थ नहीं हो सकेंगी, जब तक हम व्यवहार में बदलाव लाने की शुरुआत नहीं करेंगे।


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