जनवरी की एक सर्द सुबह थी। अमेरिका के वाशिंगटन डीसी का मेट्रो स्टेशन। एक आदमी वहां करीब घंटा भर तक वायलिन बजाता रहा। इस दौरान लगभग 2000 लोग वहां से गुजरे। अधेड़ आदमी का ध्यान उसकी तरफ गया। उसकी चाल धीमी हुई। वह कुछ पल उसके पास रुका और फिर जल्दी से निकल गया। एक महिला ने उसकी टोपी में सिक्का फेंका और बिना रुके चलती बनी। एक युवक दीवार के सहारे टिककर उसे सुनता रहा। उसने अपनी घड़ी पर नजर डाली और चलता बना। एक तीन वर्षीय बालक वहां रुक गया, पर जल्दी में दिख रही उसकी मां उसे खींचते हुए वहां से ले गई। वह लगातार बजा रहा था। अब तक केवल छ: लोग ही रुके थे और उन्होंने भी कुछ देर ही उसे सुना। लगभग 20 लोगो ने सिक्का उछाला, पर रुके बगैर अपनी सामान्य चाल में चलते रहे। उस आदमी को कुल मिलकर 32 डॉलर मिले। एक घंटे बाद उसने अपना वादन बंद किया। फिर से शांति छा गई। इस बदलाव पर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया। किसी ने वादक की तारीफ नहीं की। वह विश्व के महान वायलिन वादकों में से एक जोशुआ बेल था। जोशुआ 16 करोड़ रुपये की अपनी वायलिन से इतिहास की सबसे कठिन धुन बजा रहे थे। महज कुछ दिन पहले ही उन्होंने बोस्टन शहर में मंचीय प्रस्तुति दी थी, जहां प्रवेश टिकटों का औसत मुल्य 100 डॉलर था। जोशुआ ‘वाशिंगटन पोस्ट’ द्वारा ग्रहणबोध और समझ को लेकर किए गए एक सामाजिक प्रयोग का हिस्सा बने थे। इस प्रयोग का उद्देश्य यह पता लगाना था कि किसी सार्वजानिक जगह पर किसी व्यस्त समय में हम खास चीजों और बातों पर कितना ध्यान देते हैं? क्या हम सुंदरता या अच्छाई की सराहना करते हैं? क्या हम आम अवसरों पर प्रतिभा की पहचान कर पाते हैं?
प्रस्तुति : सुभाष बुड़ावन वाला