Sunday, May 19, 2024
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बदहाल हथकरघा उद्योग

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ASHOK SHARANस्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधी जी ने चरखा और गुंडी, अर्थात कत्तिन और बुनकर को आजादी के आंदोलन से जोड़ दिया और उसे आजादी की लडाई का एक शस्त्र ही बना डाला। यूरोप में औद्योगिक क्रांति के बाद और ब्रिटेन में मैनचेस्टर की कपड़ा मिलों के अस्तित्व में आने के बाद भारत में भी विदेशी वस्त्र का आयात बहुतायत में होने लगा। फलस्वरूप कत्तिन-बुनकरों की हालत बद-से-बदतर होने लगी। अंग्रेजी हुकूमत ने एक बहुत बड़ी आबादी को कंगाली के रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश ने ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ का प्रारूप तैयार किया जहां बड़े उद्योग भी होंगे और छोटे, मझोले उद्योग भी। इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में खादी और ग्रामोद्योगों के माध्यम से बड़ा काम होने लगा। बुनकरों को रोजगार प्राप्त हुए। उनके विकास के लिए अलग से योजनाएं बनाई गयीं, परंतु 70 के दशक के अंत तक हैंडलूम और खादी सेक्टर के बुनकरों की हालत खस्ता होने लगी। इसका मुख्य कारण ‘पावर लूम’ और मिलों में कपड़ा बहुतायत में उत्पादन होने लगा। बुनकरों के पास जो हाथ की कलाकारी थी, कसीदाकारी का जो हुनर था उसकी नकल पावरलूम में होने लगी। हैंडलूम में जो साड़ी 4-5 दिन में तैयार होती थी, वह पावरलूम में एक दिन में बनने लगी और बहुत सस्ते दामों पर बाजार में उपलब्ध होने लगी।

नतीजे में बुनकरों की आय कम होती गई और उन्हें गांव छोड़कर रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन करना पड़ा। रिक्शा चलाना, फैक्टरी में मजदूरी और अन्य छोटे-मोटे रोजगारों से गुजारा करना पड़ा। शहर में अपना गुजारा और गांव में परिवार के लिए पैसे भेजना, उनकी बड़ी दयनीय स्थिति हो गई। बुनकर समाज जो आत्मसम्मान का जीवन जी रहा था, देश-विदेश में जिसके उत्पादों की ख्याति थी, जो ठीक-ठाक पैसे भी कमा रहा था, उसको मजदूर बना दिया गया। सरकारों ने भी इस क्षेत्र के लिए कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। कारपोरेट सेक्टर को लाखों-करोड़ों रुपए की सब्सिडी दी जाने लगी और खादी-हैंडलूम सेक्टर में, जहां से बुनकरों को रोजगार मिलता था, सब्सिडी कम होने लगी। उदारीकरण के युग में उनको भी मार्केट के भरोसे छोड़ दिया गया।

देश में कपड़े का उत्पादन चार पद्धतियों से हो रहा है- खादी, हैंडलूम, पावरलूम और मिल। इसमें से केवल खादी और हैंडलूम सेक्टर में ही बुनकरों को रोजगार मिलता है। पॉवरलूम में बिजली का प्रयोग होता है और मिल में काम मशीनों पर होता है जिसमें बुनकरों के रोजगार की संभावना क्षीण है। अभी भी भारत में कृषि के बाद हैंडलूम सेक्टर दूसरा सबसे बड़ा ग्रामीण रोजगार देने वाला क्षेत्र है। भारत में कुल वस्त्र उत्पादन का 15 प्रतिशत हैंडलूम सेक्टर में होता है। विश्वभर में हाथ से बुने कपड़े में भारत प्रथम स्थान पर है और यह प्रतिशत के हिसाब से 95 प्रतिशत है। वर्ष 2020 में 223.19 मिलियन डालर का हैंडलूम एक्सपोर्ट हुआ है। सरकार की बुनकरों के लिए कई लाभकारी योजनाओं के बाद भी हैंडलूम बुनकरों की स्थिति दयनीय बनी हुयी है। इन सभी योजनाओं के पुनरावलोकन के बाद, इन सभी को ‘एकल खिडकी’ के दायरे में लाने की आवश्यकता है।

बुनकरों की दुर्दशा का एक प्रमुख कारण यह भी है कि सरकार ने उनके लिए विभिन्न योजनाएं बनार्इं, पर कभी भी बुनकरों के लिए समग्र दृष्टि से सोच-विचार नहीं किया। हथकरघा उद्योग के विकास के लिए बुनकरों को जो सहायता प्रदान की जा रही है वह भी अलग-अलग माध्यम, एजेंसी द्वारा दी जा रही है। जैसे खादी से जो बुनकर जुड़े हैं उनके विकास के लिये ‘खादी और ग्रामोद्योग आयोग’ विभिन्न योजनाएं बनाकर सहायता देता है जो भारत सरकार के ‘सूक्ष्म, लघु, मध्यम उद्यम मंत्रालय’ के अंतर्गत आता है।

इसी प्रकार हैंडलूम क्षेत्र से जो बुनकर जुड़े हुए हैं उनके लिए वस्त्र मंत्रालय के माध्यम से सहायता दी जाती है। वस्त्र मंत्रालय के साथ पावरलूम, मिल सेक्टर भी जुड़ा है। वस्त्र मंत्रालय जो कपड़ा नीति निर्धारित करता है उसका लाभ खादी और हथकरघा उद्योग को न के बराबर होता है। इसमें बुनकर गौण हो जाते हैं, हालांकि वस्त्र मंत्रालय में विकास आयुक्त, हैंडलूम के नाम से अलग विभाग है। इसके अतिरिक्त अन्य एजेंसी भी है जो हैंडलूम सेक्टर को मदद करती है, जैसे- अल्पसंख्यक आयोग के माध्यम से भी बुनकरों को सहायता दी जाती है। सरकार ने समय-समय पर बुनकरों के कर्ज भी माफ किए हैं, परंतु उसका लाभ सभी बुनकरों को नहीं मिला।

सरकार ने हथकरघा उद्योग और बुनकरों के लिए पर्याप्त योजनाएं बनाई हैं। इन योजनाओं को लागू करने के बाद भी हथकरघा उद्योग और बुनकरों की दुर्दशा जारी है और वे पलायन करने के लिए मजबूर है। यदि हम वर्ष 1980 की वर्ष 2018 से तुलना करें तो हथकरघा उद्योग मंदी की ओर है। बुनकर अपना बुनाई का व्यवसाय छोड़कर अन्य व्यवसाय में चले गये। 80 और 90 के दशक में बुनकर बहुत ही दयनीय स्थिति में पहुंच गए थे। इस दौरान 1985 में हैंडलूमस् की संख्या जहां 5.29 लाख थी वह 1998 में घटकर 2.2 लाख रह गई। उत्तर-पूर्व के आदिवासियों की परंपरागत सुंदर बुनाई की भी यही स्थिति हुई जो कम मजदूरी और मार्केट न होने की वजह से अवसान की ओर अग्रसर हैं। वर्ष 2019-20 में ‘चौथी अखिल भारतीय हथकरघा जनगणना’ के अनुसार देश में 26,73,891 बुनकर और 8,48,621 उससे संबंधित कारीगर थे।

बुनकरों के लिए आज ‘एकल खिडकी’ यानि ‘सिंगल विंडो सिस्टम’ की आवश्यकता है, चाहे वह भारत सरकार के किसी भी मंत्रालय के अधीन हो। उनके विकास के लिए किस प्रकार सहायता दी जा सकती है, कैसे उनका उत्पाद मार्केट में आसानी से बिके इसके लिए एक समग्र नीति बनाने की आवश्यकता है। ऐसा नहीं कि खादी ग्रामोद्योग आयोग अलग से एक नीति बनाकर सहायता दे रहा है, अल्पसंख्यक आयोग अलग से कोई नीति बना के सहायता कर रहा है और वस्त्र मंत्रालय कोई अलग नीति बनाकर उनके विकास की योजना बना रहा है। 12वीं पंचवर्षीय योजना में एकल खिडकी के माध्यम से लोन आदि देने का प्रावधान किया था, परंतु बुनकरों की सभी समस्याओं और सभी सुविधाओं के लिए यह पद्धति होना चाहिए।

12वीं पंचवर्षीय योजना में और भी बहुत योजनाएं सुझाई गई थीं, पर वे लागू नहीं हो पार्इं। नीति आयोग को भी इस विषय पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है कि किस प्रकार एकल खिड़की के माध्यम से बुनकरों की सभी समस्यायों का समाधान करे। इससे बुनकर लाभान्वित होंगे और बेरोजगारी को रोकने में सहायता मिलेगी।


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