Friday, April 19, 2024
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मंजिल की जुस्तजू में कारवां

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Samvad 51


KRISHNA PRATAP SINGHकिसी शायर ने क्या खूब कहा है: मंजिल मिले, मिले, न मिले, कोई गम नहीं, मंजिल की जुस्तजू में मेरा कारवां तो है। हिन्दी के जनप्रतिबद्ध साहित्यकारों में अग्रगण्य बाबा नागार्जुन इसी बात को कुछ यों कहा करते थे कि मनुष्य के जीवन में जितना महत्व उसके यात्री होने का है, मंजिल पर पहुंचने का नहीं है। वह मंजिल भी भला कैसी मंजिल, जो मिलने से पहले यात्रा का भरपूर सुख न दे। कांग्रेस की महत्वाकांक्षी ‘भारत जोड़ो’ यात्रा को इस कसौटी पर कसें तो उन महानुभावों को माकूल जवाब दे सकते हैं जो पांच महीनों में बारह राज्यों व दो केन्द्रशासित प्रदेशों में 3570 किलोमीटर की दूरी तय करके सम्पन्न होने वाली इस यात्रा के शुरू होने से पहले से ही जान लेने में लगे हैं कि उससे कांग्रेस अथवा देश को कुछ हासिल भी होगा या नहीं। इसको लेकर तो उन्हें गहरे संदेह हैं ही, उनमें से कई को इसे कांग्रेस की सत्ताकांक्षा से जोड़ने और राजनीतिक कारणों से की जा रही बताये बगैर भी संतोष नहीं हो रहा। प्रकारांतर से कहें तो वे डरे हुए हैं कि कहीं इस यात्रा से जुडे कांग्रेस के मनोरथ सफल तो नहीं हो जायेंगे? यों, उनके डर को अलग कर दें तो उनका कोई भी सवाल कहीं से भी अस्वाभाविक नहीं है। इसलिए कि कतई नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस को सत्ता की आकांक्षा नहीं है या वह मोदी सरकार की बेदखली की विफल कोशिशों में यों ही मुब्तिला रहती आई है। सत्ता की प्रतिद्वंद्विता करने वाली पार्टी के रूप में उसका खासा पुराना इतिहास है और राहुल लाख कहते हों कि सत्ता के चाक्चिक्य के बीच जन्म लेने के बावजूद उन्हें उसकी भूख नहीं सताती, यह नहीं माना जा सकता कि वे सत्ताकांक्षा से सर्वथा निर्लिप्त राजनेता हैं।

लेकिन कांग्रेस के कई सत्ताकालों के इतिहास के विपरीत उसकी इस यात्रा का सर्वाधिक महत्व इस बात में है कि आजादी के बाद यह पहली बार है जब विपक्ष में रहते हुए उसने देशवासियों से सीधे संवाद की कोई पहल शुरू की है। निस्संदेह, इस पहल की सार्थकता इस बात में ज्यादा है कि जब सत्ताधीशों की मनमानियों ने देश के सामाजिक ताने-बाने को बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर डाला है, वह देश को जोड़ने बात आगे कर रही है। इसे यों भी कह सकते हैं कि उसकी सत्ता में आने की आकांक्षा वर्तमान सत्ताधीशों की अपनी सत्ता की उम्र लम्बी करते जाने की आंकांक्षा से इस अर्थ में अलग है कि वह सत्ता में आने के लिए देश को जोड़ने की राह पर है, जबकि सत्ताधीश देश को नाना प्रकार के उद्वेलनों के हवाले किए दे रहे हैं।

सच पूछिये तो ऐसे में यह सवाल ही बेमानी होकर रह जाता है कि कांग्रेस की यह यात्रा अपना खोया हुआ जनाधार हासिल करने की उसकी अभिलाषा पूरी कर पाएगी या नहीं। क्योंकि लगातार कठिन होते जा रहे हमारे समय का इससे कहीं ज्यादा बड़े इस सवाल से सामना है कि देश को जोड़ने की ऐसी किसी भी यात्रा की विफलता की कामना क्यों की जानी चाहिए? और कुछ लोग उसको हर हाल में विफल मानकर ही संतुष्ट होना चाहते हों तो क्या, जैसा कि योगेन्द्र यादव समेत सिविल सोसायटी की कोई दो सौ शख्सियतों ने भी कहा है, उसे मंजिल की जुस्तजू में बनाए रखना सामूहिक कर्तव्य नहीं बन जाता? बन जाता है तो इस सवाल को कांग्रेस के खाते में डालकर कि यह यात्रा उसकी सत्ता में वापसी करा पाएगी या नहीं, इस बात से आश्वस्त क्यों नहीं हुआ जा सकता कि इतनी बड़ी यात्रा से कांग्रेस की तंद्रा तो टूटनी ही टूटनी है, जो फिलहाल, मुख्य विपक्षी दल के तौर पर उसकी भूमिका के सम्यक निर्वाह के लिए बहुत जरूरी है। आज, जब सत्ताधीश कांग्रेसमुक्त ही नहीं विपक्षमुक्त भारत के मंसूबे तक भी जा पहुंचे हैं और उनकी अलोकतांत्रिक व फासीवादी दबंगई के बीच देशवासी प्राय: सारे विपक्ष के लस्त-पस्त होने को लेकर चिंतित होने को अभिशप्त हैं, विपक्ष की सबसे बडी पार्टी को आलस्य छोड़कर देश के भविष्य के लिए संघर्ष करते देखकर उनको खुश क्यों नहीं होना चाहिए?

वह नफरत और बंटवारे को खत्म करने चले तो क्या सिर्फ इसलिए उसका हाथ बंटाने से मना किया जाना चाहिए कि इसके पीछे उसकी सत्ताकांक्षा है? उसके नेता राहुल गांधी सत्ता के लिए ही सही, कहें कि वे नफरत व बंटवारे की राजनीति में अपनी दादी व पिता को खो चुके हैं लेकिन अब अपने प्यारे देश को नहीं खोएंगे, इसके लिए मिलकर प्यार से नफरत को जीत लेंगे और आशा से डर को हरा देंगे, तो क्या देशवासियों को इतना विवेक भी प्रदर्शित नहीं करना चाहिए, जिससे वे उनकी और नफरत व बंटवारे के पैरोकारों की सत्ताकांक्षाओं में फर्क कर सके?

याद कीजिए, राहुल ने उन्हें पप्पू करार देने की तमाम गर्हित कोशिशों के बीच भी, जुलाई, 2018 में लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान अपने भाषण के बाद सदन में बैठे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गले से लगा लिया था। यह कहते हुए कि ‘भले ही आपके भीतर मेरे लिए नफरत है, गुस्सा है। मगर मेरे अंदर आपके प्रति इतना-सा भी गुस्सा, इतना-सा भी क्रोध, इतनी-सी भी नफरत नहीं है।’ इसके साल भर बाद तमिलनाडु में एक छात्रा के सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि संसद में मोदी उनकी पार्टी, मां और दिवंगत पिता के बारे में बोलते हुए काफी गुस्से में दिख रहे थे। इससे उन्हें लगा कि मोदी दुनिया की सुंदरता को नहीं देख पा रहे और मेरी ओर से उनके प्रति स्नेह दिखाया जाना चाहिए।

अब उनकी पार्टी पूरे देश को नफरत के खिलाफ एकजुट करने और जोड़ने निकली है तो यह विश्वास करने के कारण हैं कि वह इस तथ्य से अवगत है कि सांप्रदायिकता व धर्मांधता के फसाद और हिजाब, हलाल मीट, नमाज, जिहाद व मदरसों की शिक्षा आदि के विवाद देश की जड़ें पहले से ज्यादा खोखली कर चुके हैं। परस्पर संदेह और अविश्वास की गहरी खाई अब सामान्य जनजीवन में भी नजर आने लगी है। इतना ही नहीं, खान-पान, पहनावे और पूजा पद्धति से लेकर विचारधारा तक असहिष्णुता खासी बढ़ गई है। साथ ही धर्म, जाति, क्षेत्र या लिंग के भेद के कारण कमजोरों पर हिंसा भी। महंगाई, बेरोजगारी व आर्थिक संकट के त्रास अलग से हैं।

कौन कह सकता है कि देश को इन समस्याओं के दल-दल से निकालने के प्रयत्न तुरंत नहीं शुरू किये जाने चाहिए या उनमें और देर करने की जरूरत है? हैरत होती है कि फिर भी कांग्रेस की यात्रा को लेकर सत्ताधीशों की भृकुटि टेढ़ी की टेढ़ी ही है।


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