Thursday, April 25, 2024
- Advertisement -
Homeसंवादसमाचार चैनलों से दूर होते आम नागरिक

समाचार चैनलों से दूर होते आम नागरिक

- Advertisement -

Nazariya 1


RAJENDRA PRASADरायटर्स इंस्टीट्यूट की हालिया रिपोर्ट इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाती है कि दुनिया के देशों में लोगों का समाचार चैनलों द्वारा दिखाए जा रहे समाचारों की लोकप्रियता, दर्शनीयता और विश्वसनीयता कम होती जा रही है और इस कारण से लोगों को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर दिखाए जाने वाले समाचारों के प्रति रुझान लगातार कम होता जा रहा है। यहां तक होने लगा है कि लोग एक समय जिस तरह से समाचारों को बेसब्री से इंतजार किया करते थे, आज कई देशों में तो आधे से अधिक लोग समाचार देखना ही पसंद नहीं करते। लगभग यही स्थिति हमारे देश में होती जा रही है। लोगों का समाचारों के प्रति रुझान लगातार कम होता जा रहा है। या यों कहें कि टीवी चैनलों पर लोगों का भरोसा कम होता जा रहा है। इसके कारण भी हैं। जिस तरह से समाचारों को सनसनी बनाकर प्रस्तुत किया जाता है और जिस तरह से घटनाओं को लेकर बहस होती है उसका स्तर इतना गिर गया है कि लोग देखना ही पसंद नहीं करने लगे है। टीवी समाचार चैनलों पर जिस तरह से राई को पहाड़ और बहस के दौरान प्रवक्ताओं द्वारा एक-दूसरे पर छींटाकशी की जाती है, एक दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास होते हैं, जिस तरह से वितंडा पर आ जाते हैं, उससे लोगों का इन बहसों और समाचारों से मोह भंग होता जा रहा है। यही कारण है समाचार चैनलों को अब अपने प्रोग्राम में कुछ अन्य तरह के कार्यक्रम जैसे क्राइम समाचार, ज्योतिष, स्वास्थ्य या अन्य को जोड़ना पड़ रहा है। यह कोई हमारे देश की चिंता या यथार्थ नहीं हैं अपितु दुनिया के अधिकांश देशों में यही हो रहा है।

रायटर्स इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार ब्राजील में 54 प्रतिशत तो अमेरिका में 42 प्रतिशत लोगोें ने चैनलों पर न्यूज देखना ही छोड़ दिया है। इंग्लैंड में 46 प्रतिशत लोगों ने तो आस्ट्रेलिया में 41 प्रतिशत, फांस में 36 प्रतिशत, स्पेन में 35 प्रतिशत, जर्मनी में 29 प्रतिशत और जापान में 14 प्रतिशत लोगों ने समाचार देखना ही बंद कर दिया है। दरअसल इसके पीछे जो कारण है वह टीआरपी के चक्कर में समाचारों की मनमानी तरीके और बेहद सनसनी बनाकर प्रस्तुत करना। लोगों को समाचारों से उब भी इसलिए हो गई है कि जो समाचार सीधे सपाट तरीके से दिखाया जा सकता है उसे जलेबी की तरह फैला दिया जाता है और अंत में समाचारों का रायता इस तरह से फैल जाता है कि उसे समेटना मुश्किल हो जाता है। समाचारों पर केंद्रित बहस कार्यक्रमों में तो एक दूसरे को नीचा दिखाना ही स्तर रह गया है। समाचारों के प्रति जिस तरह से लोगों का रुझान कम हो रहा है इसे लेकर चैनलों को भी समय रहते सोचना होगा।

हमारे देश की बात करें तो हमें अधिक नहीं कुछ दशक पहले ही जाना होगा। टीवी आने से पहले के दिन याद कीजिए पुरानी पीढ़ी के लोग उस समय के समाचार बुलेटिन की अहमियत समझते थे और नेशनल बुलेटिन के लिए रेडियो पर सुबह आठ बजे और रात पौने नो बजे के समाचारों का बेसब्री से इंतजार करते थे। घड़ी का समय समाचारों से मिलाया जाता था तो समाचारों की विश्वसनीयता भी थी। इसी तरह से लोकल समाचारों के भी समय तय थे और उनका इंतजार रहता था। उस जमाने में पान की दुकानों पर भी लोग समाचार सुनने के लिए एकत्रित हो जाते थे। रेडियो पर सुने गए समाचारों पर लोगों को विश्वास रहता था। अविश्वास का तो प्रश्न ही नहीं। उस जमाने के समाचार वाचक किसी डिग्निटी से कम नहीं माने जाते थे। इसके बाद दूरदर्शन के शुरुआती दौर में भी समाचार बुलेटिनों का अपना महत्व रहा।

जब शुरुआत में निजी समाचार कार्यक्रम ‘आज तक’ शुरू हुआ तो लोगों में क्रेज रहा। वैसे देखा जाए तो टीवी चैनल्स के समाचारों के प्रति लोगों की विश्वसनीयता अधिक होनी चाहिए, क्योंकि इसमें विजुअल भी होते हैं पर टीआरपी के चक्कर में जिस तरह से समाचार प्रस्तुत होने लगे उससे लोगों का रुझान अपने आप कम होने लगा है। विशेषज्ञों की मानें तो न्यूज की मनमानी प्रस्तुति और सनसनीखेज प्रस्तुतिकरण से लोगोें का मोहभंग होने लगा है। एक अन्य कारण समाचार चैनलों पर गिरता बहस का स्तर है। राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि एक-दूसरे पर व्यक्तिगत छींटाकशी के स्तर पर आ जाते हैं और तर्क के स्थान पर कुतर्क के कारण लोग अब इन बहसों से दूर होने लगे हैं। यह सही है कि बहस में अपना पक्ष रखा जाना चाहिए पर अपने पक्ष के स्थान पर तू-तू, मैं-मैं के स्तर पर आना और चैनल पर जोर-जोर से बोलते हुए सब्जी मंडी का दृश्य बना देना किसी को भी अच्छा नहीं लगता। नहीं तो देखा जाए तो बहस के माध्यम से अपना पक्ष रखने और अपनी बात कहने का अच्छा प्लेटफार्म मिलता है पर हो इसके उलट ही रहा है। कई बार तो ऐसा लगने लगता है कि प्रस्तोता ही किसी विचारधारा विशेष के प्रमोटर लगते हैं और यही कारण है कि बहस का स्तर स्तर नहीं रह पाता है।

अब समय आ गया है जब समाचार चैनलों को अपनी भूमिका नए सिरे से तय करनी होगी। कभी रेडियो जिस तरह से आमआदमी के दिलोदिमाग में रच-बस गया था, वैसी इमेज समाचार चैनलों को बनानी होगी। बहसों में भी प्रवक्ताओं को पूरी तैयारी के साथ आना होगा और दूसरे पर कटाक्ष के स्थान पर अपना पक्ष या चर्चा के विषय पर सार्थक बहस करनी होगी तो समाचार चैनल अपने अस्तित्व को बचाए रख सकेंगे। कारण साफ है अच्छी प्रस्तुति को लोग देखना पसंद करते हैं और टीआरपी अपने आप बढ़ती है। सनसनी से आप कुछ समय के लिए तो टीआरपी बढ़ा सकते हैं पर अपनी पहचार खो देते हैं। मीडिया विशेषज्ञों को भी इस दिशा में सोचना और प्रयास करना होगा।


janwani address 9

What’s your Reaction?
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
- Advertisement -

Recent Comments