Tuesday, July 8, 2025
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असम को खा जाती है बाढ़

Samvad


PANKAJ CHATURVEDIबीस दिन में दूसरी बार असम बाढ़ से बेहाल हो गया। इस समय राज्य के 32 जिलों के 5424 गांव पूरी तरह पानी में डूबे हैं और कोई 47.72 लाख लोग इससे सीधे प्रभावित हुए हैं। मौत का आंकड़ा 80 को पार कर गया है। अभी तक एक लाख हैक्टेयर खेती की जमीन के नष्ट होने की बात सरकार मानती है। इस बार सबसे ज्यादा नुकसान पहाड़ी जिले डिमा हासो को हुआ, जहां एक हजार करोड़ की सरकारी व निजी नुकसान का आकलन है। यहां रेल पटरियों बह गर्इं व पहाड़ गिरने से सड़कों का नामो निषान मिट गया। अभी तो यह शुरुआत है और अगस्त तक राज्य में यहां-वहां पानी ऐसे ही विकास के नाम पर रची गई संरचनाओं को उजाड़ता रहेगा। हर साल राज्य के विकास में जो धन व्यय होता है, उससे ज्यादा नुकसान दो महीने में ब्रह्मपुत्र और उसकी सख-सहेलियों का कोप कर जाता है। असम पूरी तरह से नदी घाटी पर ही बसा हुआ है। इसके कुल क्षेत्रफल 78 हजार 438 वर्ग किमी में से 56 हजार 194 वर्ग किमी ब्रह्मपुत्र नदी की घाटी में है। और बकाया 22 हजार 244 वर्ग किमी का हिस्सा बराक नदी की घाटी में है। इतना ही नहीं राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के मुताबिक, असम का कुल 31 हजार 500 वर्ग किमी का हिस्सा बाढ़ प्रभावित है। यानी, असम के क्षेत्रफल का करीब 40 फीसदी हिस्सा बाढ़ प्रभावित है। जबकि, देशभर का 10.2 प्रतिशत हिस्सा बाढ़ प्रभावित है। अनुमान है कि इसमें सालाना कोई 200 करोड़ का नुकसान होता है जिसमें-मकान, सड़क, मवेषी, खेत, पुल, स्कूल, बिजली, संचार आदि षामिल हैं।

राज्य में इतनी मूलभूत सुविधाएं खड़ा करने में दस साल लगते हैं, जबकि हर साल औसतन इतना नुकसान हो ही जाता है। यानि असम हर साल विकास की राह पर 19 साल पिछड़ता जाता है।

असम में प्राकृतिक संसाधन, मानव संसाधन और बेहतरीन भौगोलिक परिस्थितियां होने के बावजूद यहां का समुचित विकास न होने का कारण हर साल पांच महीने ब्रह्मपुत्र का रौद्र रूप होता है जो पलक झपकते ही सरकार व समाज की सालभर की मेहनत को चाट जाता है। वैसे तो यह नद सदियों से बह रहा है। बारिश में हर साल यह पूर्वोत्तर राज्यों में गांव-खेत बरबाद करता रहा है। वहां के लोगों का सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक जीवन इसी नदी के चहुओर थिरकता है, सो तबाही को भी वे प्रकृति की देन ही समझते रहे हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से जिस तरह सें बह्मपुत्र व उसके सहायक नदियों में बाढ़ आ रही है, वह हिमालय के ग्लेशियर क्षेत्र में मानवजन्य छेड़छाड़ का ही परिणाम हैं। केंद्र हो या राज्य, सरकारों का ध्यान बाढ़ के बाद राहत कार्यों व मुआवजा पर रहता है। यदि इस अवधि में राज्य में बाढ़ से हुए नुकसान व बांटी गई राहत राषि को जोड़ें तो पाएंगे कि इतने धन में सुरक्षित असम खड़ा किया जा सकता था।

पिछले कुछ सालों से इसका प्रवाह दिनोंदिन रौद्र होने का मुख्य कारण इसके पहाड़ी मार्ग पर अंधाधुंध जंगल कटाई माना जा रहा है। ब्रह्मपुत्र का प्रवाह क्षेत्र उत्तुंग पहाड़ियों वाला है, वहां कभी घने जंगल हुआ करते थे। उस क्षेत्र में बारिश भी जम कर होती है। बारिश की मोटी-मोटी बूंदें पहले पेड़ंों पर गिर कर जमीन से मिलती थीं, लेकिन जब पेड़ कम हुए तो ये बूंदें सीधी ही जमीन से टकराने लगीं। इससे जमीन की टाप सॉईल उधड़ कर पानी के साथ बह रहा है। फलस्वरूप नदी के बहाव में अधिक मिट्टी जा रही है। इससे नदी उथली हो गई है और थोड़ा पानी आने पर ही इसकी जल धारा बिखर कर बस्तियों की राह पकड़ लेती है।

असम में हर साल तबाही मचाने वाली ब्रह्यपुत्र और बराक नदियां, उनकी कोई 48 सहायक नदियां और उनसे जुड़ी असंख्य सरिताओं पर सिंचाई व बिजली उत्पादन परियोजनाओं के अलावा इनके जल प्रवाह को आबादी में घुसने से रोकने की योजनाएं बनाने की मांग लंबे समय से उठती रही है। ब्रह्यपुत्र नदी के प्रवाह का अनुमान लगाना भी बेहद कठिन है। इसकी धारा की दिशा कहीं भी, कभी भी बदल जाती है। परिणाम स्वरूप जमीनों का कटाव, उपजाऊ जमीन का नुकसान भी होता रहता है। यह क्षेत्र भूकंप ग्रस्त है। और समय-समय पर यहां धरती हिलने के हल्के-फुल्के झटके आते रहते हैं। इसके कारण जमीन खिसकने की घटनाएं भी यहां की खेती-किसानी को प्रभावित करती है।

इस क्षेत्र की मुख्य फसलें धान, जूट, सरसों, दालें व गन्ना हैं। धान व जूट की खेती का समय ठीक बाढ़ के दिनों का ही होता है। यहां धान की खेती का 92 प्रतिशत आहू, साली बाओ और बोडो किस्म की धान का है और इनका बड़ा हिसा हर साल बाढ़ में धुल जाता है। असम में मई से ले कर सितंबर तक बाढ़ रहती है और इसकी चपेट में तीन से पांच लाख हैक्टर खेत आते हैं। हालांकि खेती के तरीकों में बदलाव और जंगलों का बेतरतीब दोहन जैसी मानव-निर्मित दुर्घटनाओं ने जमीन के नुकसान के खतरे का दुगना कर दिया है। दुनिया में नदियों पर बने सबसे बड़े द्वीप माजुली पर नदी के बहाव के कारण जमीन कटान का सबसे अधिक असर पड़ा है।

राज्य में नदी पर बनाए गए अधिकांश तटबंध व बांध 60 के दशक में बनाए गए थे। अब वे बढ़ते पानी को रोक पाने में असमर्थ हैं। फिर उनमें गाद भी जम गई है, जिसकी नियमित सफाई की कोई व्यवस्था नहीं है। पिछले साल पहली बारिश के दबाव में 50 से अधिक स्थानों पर ये बांध टूटे थे। इस साल पहले ही महीने में 27 जगहों पर मेढ़ टूटने से जलनिधि के गांव में फैलने की खबर है। वैसे मेढ़ टूटने की कई घटनाओं में खुद गांव वाले ही शामिल होते हैं। मिट्टी के कारण उथले हो गए बांध में जब पानी लबालब भर कर चटकने की कगार पर पहुंचता है तो गांव वाले अपना घर-बार बचाने के लिए मेढ़ को तोड़ देते हैं। उनका गांव तो थोड़ सा बच जाता है, पर करीबी बस्तियां पूरी तरह जलमग्न हो जाती हैं। बराक नदी गंगा-ब्रह्यपुत्र-मेधना नदी प्रणाली की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी नदी है। इसमें उत्तर-पूर्वी भारत के कई सौ पहाड़ी नाले आकर मिलते हैं, जो इसमें पानी की मात्रा व उसका वेग बढ़ा देते हैं। वैसे इस नदी के मार्ग पर बाढ़ से बचने के लिए कई तटबंध, बांध आदि बनाए गए और ये तरीके कम बाढ़ में कारगर भी रहे हैं।

ब्रह्मपुत्र घाटी में तट-कटाव और बाढ़ प्रबंध के उपायों की योजना बनाने और उसे लागू करने के लिए दिसंबर 1981 में ब्रह्मपुत्र बोर्ड की स्थापना की गई थी। बोर्ड ने ब्रह्मपुत्र व बराक की सहायक नदियों से संबंधित योजना कई साल पहले तैयार भी कर ली थी। केंद्र सरकार के अधीन एक बाढ़ नियंत्रण महकमा कई सालों से काम कर रहा है और उसके रिकार्ड में ब्रह्मपुत्र घाटी देश के सर्वाधिक बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में से है। इन महकमों ने इस दिश में अभी तक क्या कुछ किया?


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