अंतरिक्ष की सैर कराने और बिजली की कारें बनाने के धंधे में अव्वल माने गए दुनिया के नंबर एक पूंजीपति एलन मस्क ने हाल में ‘ट्विटर’ के प्रभावी शेयर खरीदकर उस पर अपना सिक्का जमा लिया है। जाहिर है, दुनियाभर के व्यापार-धंधे से लेकर कला-राजनीति तक के तमाम क्षेत्रों में इससे खलबली मची है, लेकिन इससे भारत सरीखे देशों को क्या फर्क पड़ सकता है? क्या ‘ट्विटर’ समेत अन्य ढेरों ‘सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म’ भीषण गैर-बराबरी में बसी हमारे देश की अधिकांश आबादी को प्रभावित कर पाते हैं?
बीते 8—10 साल से हमारे देश में डिजिटल और इंटरनेट क्रांति का खासा शोर सुनाई दे रहा है। इसी शोर के साथ आंकड़ों के जरिये तकनीक की ताकत और प्रसार का भ्रम रचा जा रहा है। गांव—गांव तक पहुंचते मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया का उदाहरण देकर लगातार यह बताया, समझाया और जताया जा रहा है कि इंटरनेट क्रांति ने सत्ता के पुराने मठ ध्वस्त कर दिए हैं। जनता के हाथों में ताकतवर औजार दे दिया है। इसे हथियार की तरह इस्तेमाल कर किसी भी गैर-बराबरी को चुनौती दी जा सकती है।
ऊपरी तौर पर देखने-सुनने में यह मिठास भरे उत्साही आंकड़े एक ऐसी दुनिया की तस्वीर लगते हैं, जहां हर किस्म की ताकत देश के हर नागरिक, समुदाय और वर्ग के हाथों में आने को आतुर है। जबकि सच्चाई इसके ठीक उलट है। ताकत और संसाधनों की गैर-बराबरी से जूझ रहे हमारे देश में डिजिटल और इंटरनेट क्रांति ने बेहद सफाई से अमीरों, ताकतवरों, संसाधन संपन्न प्रभु वर्ग और गरीब, वंचित, शोषित दुनियाओं के बीच की खाई को बढ़ाया है।
इसकी शुरुआत करीब बीस साल पहले देश में मोबाइल की आमद के साथ हो गई थी। पाठकों को याद होगा कि 20वीं सदी के आखिरी सालों और 21वीं सदी की शुरुआत में वजनदार मोबाइल फोन रखना स्टेटस सिंबल माना जाता था। इसके बाद दुनिया को मुट्ठी में करने की लालची घोषणा के साथ ‘रिलायंस कंपनी’ के जरिये निजी क्षेत्र ने सूचना क्रांति के साथ कदमताल शुरू की।
धीरे-धीरे सूचना संजाल पर निजी क्षेत्र की पकड़ तीखी होती गई। एक जुलाई 2015 को ‘डिजिटल इंडिया मिशन’ की अति-उत्साही सरकारी घोषणा के बाद देश भर में इंटरनेट की पहुंच के आंकड़े सार्वजनिक हैं और ये बताते हैं कि देश में इस वक्त 110 करोड़ आबादी के पास मोबाइल फोन हैं।
इनमें से भी करीब 60 करोड़ स्मार्ट फोन हैं, जिनके जरिये इंटरनेट तक सीधे आम नागरिक की पहुंच बनी है। ध्यान रहे कि देश की कुल आबादी 135 करोड़ के आसपास है और कई नागरिक एक, दो या तीन सिम का इस्तेमाल भी करते हैं, तो इस तरह अगर स्मार्ट फोन की पहुंच की गणना की जाए तो करीब 80 करोड़ आबादी इन ‘चालाक’ (स्मार्ट) फोनों से निरपेक्ष है।
इनमें भी ज्यादातर नागरिक स्मार्ट फोन को महज सोशल मीडिया के चंद चलताऊ वीडियो, गेमिंग और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के गलीज मैसेज को फारवर्ड करने में ही इस्तेमाल कर रहे हैं। हालांकि बाजार का काम इससे चल जाता है और अकूत संपत्ति पैदा करने वाला यह क्षेत्र चंद धन्ना सेठों की तिजोरियों में दौलत का अंबार बखूबी लगा देता है।
इसी क्रम में यह जान लेना जरूरी है कि 2019 में हमारे देश का ‘डिजिटल लैंडिंग मार्केट’ सात लाख करोड़ रुपए का था, जो 2023 में बढ़कर 25 लाख करोड़ रुपए का हो जाएगा। ‘डिजिटल लैंडिंग मार्केट’ उस बाजार को कहते हैं, जिसमें मोबाइल एप के जरिये बैंकिंग लेन-देन, वित्तीय सेवाएं, डिजिटल लोन, इंश्योरेंस आदि काम किए जाते हैं। यह ‘डिजिटल लैंडिंग मार्केट’ नोटबंदी के बाद तेजी से बढ़ा और 2020 के कोरोना-काल में इसमें 87 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। डिजिटल सेवा के बाजार की इस बढ़ोत्तरी को भी इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव और उसी अनुपात में बढ़ती खाई से जोड़कर देखा जा सकता है।
इसे इस तरह समझ सकते हैं कि 2019 में यूपीआई भुगतान के जरिये होने वाले मासिक लेन-देन की कुल संख्या 115 करोड़ थी, जो 2021 में बढ़कर 400 करोड़ हो गई। ये मासिक ट्रांजेक्शन असल में महज 11 करोड़ मोबाइल फोन से हुए हैं। इनमें से जब 50 हजार से एक लाख रुपए तक के ट्रांजेक्शन की बात करते हैं|
तो यह गिरकर एक करोड़ के आसपास रह जाते हैं। यानी ‘डिजिटल लैंडिंग मार्केट’ में महज 0.7 प्रतिशत भारतीयों की हिस्सेदारी 80 प्रतिशत से अधिक की है। इस बाजार की हकीकत यह है कि 47 करोड़ स्मार्ट फोन यूजर्स में से महज 40 प्रतिशत डिजिटल लेन-देन में खुद को सहज महसूस करते हैं।
इस तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि इंटरनेट फ्राड के जरिये नागरिकों को लूटने की घटनाओं में भी इस दौर में खासा इजाफा हुआ है। 2016 में भारत में जहां 8000 साइबर अपराध दर्ज हुए थे, वहीं 2020 में यह बढ़कर 35 हजार से अधिक हो चुके हैं।
इन अपराधों से प्रभावित पूंजी का आंकड़ा 11 लाख करोड़ रुपए के आसपास है। यह समझ पाना कोई मुश्किल काम नहीं है कि इन प्रभावितों में ज्यादातर वे ही लोग हैं, जो इंटरनेट की गलियों में नए-नए आए हैं, या फिर उनके पास सूचनाओं, सत्ताओं का कोई खास सहारा नहीं है।
दिक्कत यही है कि डिजिटल बैंकिंग सेवाओं की पहुंच के सहारे गरीब, कमजोरों को लूटने की साजिशों ने भी नए आकार लेना शुरू कर दिया है। एक सामान्य इंटरनेट यूजर के लिए तेजी से बदलते दृश्यों और रंग-बिरंगे क्लिक के बीच ठगने की कलाओं का बड़ा जाल मौजूद है। इंटरनेट की पहुंच के मामले में भी यह गैर-बराबरी साफ झलकती है।
बीते दिनों में इंटरनेट उपयोगकर्ता कई गुना बढ़े हैं, यह एक सच्चाई है। एक मीडिया सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत में 61 प्रतिशत घरों ने 2021 में इंटरनेट का उपयोग किया, जबकि 2017 में यह केवल 21 प्रतिशत था।
यहां याद रखना चाहिए कि देश की 39 प्रतिशत सबसे गरीब आबादी इंटरनेट के दायरे से बाहर है और जो 61 प्रतिशत इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं, उनमें से भी 40 प्रतिशत से अधिक आबादी तकनीकी रूप से बेहद अक्षम है। यह आबादी बमुश्किल सोशल मीडिया के सामान्य एप्स के जरिये खुद को वर्चुअल दुनिया के किसी अनाम कोने में खड़ी होकर चमकीली दुनिया की तड़क-भड़क से प्रभावित होकर अपने जमीनी सवालों से दूर होकर यथार्थ और भ्रम के बीच झूल रही है।
कोरोना काल ने आॅनलाइन यूजर्स की संख्या में इजाफा किया है। 2020 में जहां आठ करोड़ लोग आनलाइन दुनिया में अपनी जगह तलाश रहे थे, वो 2021 में बढ़कर 13 करोड़ हो गए। इनकी तलाश और इस्तेमाल के तौर-तरीकों पर बात न भी करें तो भी साफ हो जाता है कि 122 करोड़ से ज्यादा आबादी अभी आनलाइन दुनिया से दूर है।
सचिन श्रीवास्तव