एक बार एक व्यक्ति को एक पहुंचे हुए संत से मिलने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। उसने उनसे प्रश्न किया, हम मनुष्य की योनि में आकर ही मुक्ति कैसे प्राप्त करते हैं? संत ने उत्तर दिया, चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, जिसका कारण है मनुष्य का बुद्धिमान और विवेकशील होना।
इस रूप में रहते हुए वो उस समय के किसी पूरे गुरु से दीक्षा ले, ‘शब्द’ और ‘नाम’ का सिमरन करते हुए, अपने जन्मों जन्मों के संचित कर्मों को समाप्त कर सकता है। और जब कर्म समाप्त तो चौरासी के चक्कर से भी छुटकारा हो जाता है। देव लोक के देवता भी मनुष्य रूप में जन्म लेने को तरसते हैं। व्यक्ति ने फिर पूछा, जब हम दुनिया में रहेंगे तो कर्म तो करने ही पड़ेंगे।
क्या हम बिना कर्म करे जीवन व्यतीत कर सकते हैं? संत ने उत्तर दिया, हम सभी कर्मों की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। पिछले कर्मों को चुकाने के लिए ही तो पृथ्वी पर फिर जन्म लिया है। अच्छे कर्म करेंगे तो राजा महाराजा बनकर आ जाएंगे। स्वर्ग और बैकुंठ में जाकर बैठ जाएंगे और अगर बुरे कर्म करेंगे तो नरक के द्वार तो खुले ही मिलेंगे। इसीलिए मनुष्य को जितना हो सके, अपने संचित कर्मों में इजाफा करने के स्थान पर उन्हें कम करने का प्रयत्न करना चाहिए और कर्म काटने का सबसे सरल तरीका है ‘नाम’ भक्ति।
दूसरी तरफ अन्य जीव है, जैसे एक कौआ को या एक गिलहरी को प्रत्यक्ष रूप से देखें, तो पाएंगे कि प्रात: ही वे भोजन तलाशने निकल पड़ते हैं। दिन भर उन्हें अपने प्राणों की रक्षा के लिए चौकन्ना रहना पड़ता है कि कहीं कोई उनके प्राणों पर घात न करे, अर्थात उनके समझ और समय दोनों ही नहीं दिए ईश्वर ने भक्ति के लिए। इस मानव रूपी जन्म का प्रभु सानिध्य में रहकर सर्वोत्तम उपयोग करके हम सदैव के लिए चौरासी लाख योनियों के कालचक्र से मुक्त हो सकते हैं।
प्रस्तुति : राजेंद्र कुमार शर्मा