क्या समाजवादी पार्टी को चुनाव हारने की बीमारी हो गई है, जिसके चलते वह अपनी आधार भूमि उत्तर प्रदेश में (जिसमें कभी उसकी तूती बोलती थी) न सिर्फ भाजपा को रोक पाने में नाकाम होने लगी है, बल्कि उसके हाथों अपने गढ़ तक गंवा देने को अभिशप्त है? आपका जवाब जो भी हो, गत छ: नवंबर को सपा उत्तर प्रदेश विधानसभा की गोलागोकर्णनाथ सीट (जो तीन अक्टूबर, 2021 को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी के बेटे की अगुआई में आंदोलित किसानों को कुचल मारने की नृशंस वारदात के लिए चर्चित लखीमपुर खीरी जिले में स्थित है) का उपचुनाव विधानसभा चुनाव से भी बड़े अंतर से हार गई तो एक समय उसकी चिरप्रतिद्वंद्वी कही जाने वाली बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने उसके जले पर नमक छिड़कते हुए जो कुछ कहा, उसका लब्बोलुबाब कुल मिलाकर यही है कि हां, सपा के सुनहरे दिन अब बीत चले हैं। इस सिलसिले में उन्होंने यह कहकर भी उसको आईने के सामने खड़ी किया कि भाजपा के मुकाबले अपनी पिछली शिकस्तों के लिए भाजपा विरोधी वोटों के बंटवारे की आड़ लेने वाली सपा यह उपचुनाव हारने के लिए कोई बहाना बनाने की हालत में भी नहीं है। क्योंकि इसमें न बसपा का प्रत्याशी मैदान में था, न कांगे्रस का और भाजपा से उसका मुकाबला एकदम सीधा था।
मायावती के अनुसार इसका एकमात्र अर्थ यही है कि अब सपा ने सीधे मुकाबलों में भाजपा को हराने की शक्ति भी गंवा दी है। निस्संदेह, प्रदेश की राजनीति में अप्रासंगिक हो जाने का खतरा झेल रही मायावती के यह सब कहने के पीछे उनके परंपरागत वोट बैंक के भाजपा की ओर खिसकने लग जाने से जन्मी हताशा हो सकती है, सपा के अल्पसंख्यक वोटरों को यह संदेश देने की राजनीतिक चालाकी भी कि भाजपा को बेदखल करने के लिए उन्हें सपा का मोह छोड़ बसपा का रुख करना चाहिए। हालांकि जब तक वे अपने परम्परागत वोट बैंक की छीजन नहीं रोक पातीं, उनकी यह चालाकी कारगर नहीं ही सिद्ध होने वाली।
लेकिन बात सिर्फ उनकी ही नहीं है। 2012 में बसपा को सत्ता से बाहर कर सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने वाले आज के सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव (चाचा शिवपाल से वर्चस्व की लम्बी लड़ाई में उलझने के बाद जिन्होंने 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले पिता मुलायम सिंह यादव से सपा की कमान छीन ली) द्वारा बार-बार ‘नई सपा है, नई हवा है’ का नारा देने के बावजूद उसे नई मानने से इन्कार करते हुए उसकी संभावनाओं को लेकर कांगे्रस और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी समेत प्रदेश के प्राय: सारे गैरभाजपा दलों के नेता थोड़ी बदली हुई भाषा में मायावती जैसी बात ही कहते हैं। भले ही उनका कभी न कभी सपा से चुनावी गठबंधन हुआ और वे उससे मिलकर चुनाव लड़े। कई तथ्य और आंकडे भी उनके पक्ष में खडे दिखते हैं।
गौरतलब है कि बसपा, कांगे्रस और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी तीनों कभी न कभी अखिलेश की इस ‘नई सपा’ से गठजोड़ कर चुनाव लड़ चुकी हैं, लेकिन उसकी चुनावी हारों का सिलसिला नहीं टूटा है। तिस पर आम धारणा है कि अखिलेश न मुलायम की तरह जनसंघर्षों में उतरकर एमवाई के विरासत में मिले समीकरण की परिधि लांघकर अपनी अपील के विस्तार का माद्दा प्रदर्शित कर पाते हैं, न गठबंधन करने में उनकी जैसी राजनीतिक चतुराई दिखा पाते हैं, न ही अपने कार्यकर्ताओं से वैसे प्रगाढ़ रिश्ते रख पाते हैं। इसलिए उनके विकल्प लगातार सीमित होते जा रहे हैं, तो संभावनाएं संकुचित।
मुश्किल यह कि वे इसके लिए 2017 के विधानसभा चुनाव की करारी हार के गम के लंबे खिंचते जाने को भी दोषी नहीं ठहरा सकते। उस गम से उबरने का मौका तो उन्हें तभी मिल गया था, जब मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर और उपमुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्य ने फूलपुर लोकसभा सीट से इस्तीफे दिए। तब सपा ने भाजपा को बुरी तरह छकाते हुए इनके उपचुनावों में धमाकेदार जीत हासिल की थी। उसकी मनोवैज्ञानिक बढ़त के लिए इतना काफी था, लेकिन अखिलेश इसका लाभ उठाने या उसे बनाए रखने में नाकाम रहे, जिसके चलते यह जीत उनकी अब तक की एकमात्र धमाकेदार जीत होकर रह गई है।
अखिलेश के नाम अब तक कुल मिलाकर इतनी ही ‘उपलब्धि’ दर्ज है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मुख्यमंत्री रहते हुए वे अपनी पार्टी को उत्तर प्रदेश की अस्सी में से पांच सीटें ही जिता सके थे। ये सीटें भी वे थीं, जिन पर उनके परिवार के सदस्य प्रत्याशी थे। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांगे्रस को साथ लेकर भी वे भाजपा के हाथों सत्ता से बेदखली को अभिशप्त हुए, जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा से मुलायम के वक्त टूटा गठबंधन बहाल करके भी सपा की जीती सीटों की संख्या पांच से आगे नहीं बढ़ा पाए। गोकि गठबंधन का लाभ उठाकर बसपा शून्य से दो अंकों में जा पहुंची।
अपनी आजमगढ़ व आजम खां की रामपुर लोकसभा सीटों के गत उपचुनावों में उन्होंने कैसी शिकस्त झेली, यह तो अभी एकदम ताजा इतिहास है। उन्होंने अपने इन गढ़ों में हार जाना कुबूल किया, लेकिन वहां प्रचार करने नहीं गए।
अखिलेश का कम से कम इतना कुसूर तो है ही कि अब जब भाजपा ने कई दलित, पिछड़ी व अति पिछड़ी ंजातियों में नये सिरे से हिंदू होने की चाह जगाकर विरोधियों के विरुद्ध अपनी ढाल बना लिया है, तो भी ‘नई सपा’ के पास इन मतदाताओं को अपने साथ लाने का कोई सुसंगत कार्यक्रम नहीं है। उसने सामाजिक न्याय के उस साझा सूत्र को भी दरकिनार कर रखा है, जो इन्हें फिर से एकजुट कर उसके साथ ला सकता है।
वह इस खतरे को भी महसूस नहीं कर पा रही कि अति पिछड़ों व दलितों से उसकी ‘दुश्मनी’ के ही कारण मुलायम सिंह यादव को मैनपुरी लोकसभा सीट के 2019 के चुनाव में बसपा से गठबंधन के बावजूद 2014 के मुकाबले 10.71 प्रतिशत कम वोट मिले थे, जबकि भाजपा 11.30 प्रतिशत ज्यादा वोट झटक ले गई थी। अब मुलायम नहीं हैं, वह उनके प्रति सहानुभूति की लहर को विफल करके उनकी सीट जीत लेने का दावा कर रही है।
अखिलेश का कहना सही है कि अब भाजपा हर हाल में जीतने के लिए चुनावों में लोकतंत्र को ही हराने पर उतर आती है। वह चुनावों में न सिर्फ सरकारी मशीनरी बल्कि चुनाव आयोग समेत प्राय: सारी संवैधानिक संस्थाओं व एजेंसियों का दुरुपयोग कर अपनी बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को निरंकुश कर लेती है, बल्कि अपने विरोधी मतदाताओं के बूथों तक पहुंचने में भी बाधा डालती है। लेकिन इसी के साथ बेहतर होगा कि वे समझें कि अपनी व अपनी पार्टी की अपील का विस्तार किए बिना वे उसे यह सब करने से कतई नहीं रोक सकते। लोकतंत्र में अंतत: जनबल ही निर्णायक सिद्ध होता है।